लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

लघु बोध कथाएं

लेखक - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Contents:

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विवेक और उदारता

एक थी सत्संस्कारों में पली हुई बेटी। नाम था विनीता। नाम के ही अनुकूल बड़ों की विनय एवं सेवा को सौभाग्य मानती थी। प्रमाद-रहित स्वच्छ एवं चुस्त चर्या। अपने अध्ययन के साथ ही परोपकार में दत्तचित्त । सहज ही सर्व की प्रिय ।
दैवयोग से उसका विवाह धनी किन्तु कंजूस परिवार में हो गया। जहाँ न पात्रदान न करुणादान।
एक दिन एक अशक्त, भूखा और असहाय वृद्ध द्वार पर आया। बहू ने देखा और वासी सूखी रोटी दे दी।
वृद्ध ने कहा- “बेटी ! यह तो मुझसे नहीं खाई जायेगी।

बहू- “बाबा ! इस घर में वासी ही खाया जाता है।”

बहू की विनय, सेवा एवं कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न रहने वाले वहीं खड़े हुए उसके श्वसुर बोले- '‘बेटी ! ऐसा क्यों कहती हो?’ |
बहू- ‘पिताजी ! इस घर में मैंने यही देखा है कि पूर्व पुण्य से प्राप्त सम्पदा को भोगो और जोड़ो। दान, पुण्य, धर्म आदि तो देखा ही नहीं।"

श्वसुर को अपनी भूल समझ में आयी। फिर तो बहू ने उस भूखे वृद्ध को अच्छा भोजन कराया और धर्ममार्ग में लगने की प्रेरणा की तथा उसका परिचय प्राप्त कर सच्चरित्र जान घर के समीप ही एक कोठरी रहने को दे दी।
वृद्ध भी कृतज्ञ-भाव से यथाशक्ति घर के कार्यों में सहयोग करने लगा। घर के छोटे बच्चों को तो वह बहुत प्यार से खिलाता। उनसे अच्छी बातें करता, बड़े बच्चों से तो वह अच्छी पुस्तकें पढ़वाता और प्रसन्न रहता। बहू की सुबुद्धि से मिल गया परिवार को एक विश्वसनीय सेवक।

एक दिन बुखार आया और अल्प समय में वह भगवान का स्मरण करता हुआ और देह से भिन्न आत्मा का चिन्तन करता हुआ, सभी से क्षमाभाव-पूर्वक शान्त परिणामों से देह छोड़ कर, सद्गति को प्राप्त हुआ।

“जिसप्रकार नाप से छोटा जूता तो मात्र पैर में ही कष्ट देता है, परन्तु नाप से बड़ा जूता तो गिराकर पूरे शरीर को कष्ट देता है, उसी प्रकार धन की कमी से तो व्यक्ति मात्र परेशान ही होता है, परन्तु धन की अतिवृद्धि व्यक्ति को अहंकारी, विलासी, क्रूर आदि बनाकर पतन के गर्त में गिरा देती है।”


There was a girl named Vinita who grew up in an ethical family. She was courteous to elders just like her name. She considered serving others a fortune. She followed a healthy, active and hygienic lifestyle. She pursued philanthropy along with her studies. She was everyone’s favorite naturally.
She got married into a rich but miser family where there were no donations or charity given.
One day a hungry, helpless and impotent old man came on the door. Daughter-in-law saw him and gave stale bread.

The old man said, “Daughter, I won’t be able to eat this.”
Daughter-in-law replied, “Sire! Only stale is eaten in this house.”
Impressed with daughter-in-law’s care, courtesy, and conscientiousness, the father-in-law standing there said, “Daughter, why do you say so?”

Daughter-in-law replied, “Father! I have seen the tradition of enjoying and multiplying the wealth acquired from the former virtue in this house. I have not seen charity, virtue or religion.”

Father-in-law realized his mistake. Then, the daughter-in-law served good food to the old man and inspired him to be on the right path. After getting his introduction and knowing him to be a truthful person, they gave him an attic near the house to live in.

The elderly man also began to cooperate with the grateful spirit in the household chores. He used to play lovingly with younger children in the house. He used to talk good with them, make the older children recite good books and live happily. Due to daughter-in-law’s good sense, the family got a trustworthy servant.

One day, he caught the fever. Thinking about Lord and soul being different from the body, he left the body.

For mistakes in this translation, report to @Divya.

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सल्लेखना महोत्सव

आत्मार्थी विद्वान् प्रशान्त जैन अपने नाम के अनुरूप ही धीर, गम्भीर एवं शान्त स्वभावी थे। प्रौढ़ावस्था में ही व्यापारादि से निवृत्त हो परिवार से निरपेक्ष घर में रहते हुए भी गृहत्यागी की भाँति, प्रदर्शन और ख्याति की वांछा से दूर निरन्तर तत्त्वाभ्यास में लगे रहते थे।
प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठकर आत्मचिन्तन एवं वैराग्यपाठ आदि करते। शौच-स्नानादि के पश्चात् शुद्ध वस्त्र पहनकर भगवान की पूजा, स्वाध्यायादि करते। वात्सल्यपूर्वक साधर्मीजनों को भोजन कराते । यह उनका दैनिक नियम ही था। कोई अतिथि न मिलने पर वे स्थानीय गोष्ठी के ही किसी साधर्मी को ही भोजन के लिये बुला लाते। अकेले भोजन करना उन्हें अच्छा ही नहीं लगता था। भोजन में भी सादगी और सहजता । न कोई प्रदर्शन, न विशेष औपचारिकता।
दीन-दु:खियों का भी यथायोग्य गुप्त रीति से सहयोग करना उनकी प्रवृत्ति ही बन गयी थी।
मूलगुणों के नियम के साथ ही वे अणुव्रतों का भी यथाशक्ति पालन करते थे। ब्रह्मचर्य तो उन्होंने युवावस्था में ही ले लिया था।
बाजारू खाद्य एवं विलासिता की सामग्री के लिए तो उनके घर में ही कोई स्थान नहीं था। उनकी धर्मपत्नी समता, बालक विनीत एवं पुत्रवधू सुनीता भी उनके अभिन्न सहयोगी थे।
पर्व के दिनों में एकाशनादि सहज ही होते । उनका कक्ष सबसे अलग एकान्त में था। जिसके समीप उनके आगन्तुक साधर्मी भी प्रायः रुके ही रहते थे।
भेदज्ञान ही उनका जीवन था और वैराग्य ही शृङ्गार। किसी प्रकार की सांसारिक लालसा भी उनके मन में न आती।
अब तो एक ही भावना थी, संयमपूर्वक समाधि हो। उसके लिए समस्त लोकव्यवहारों से भी निवृत्त हो आराधना में सावधान रहते।
एक दिन जिनमन्दिर से लौट कर भोजन करके बैठे थे। उन्हें शरीर में कुछ अशक्तता विशेष लगी। वैसे उनकी इन्द्रियाँ सजग थीं। फिर भी उन्होंने एक वसीयत लिखी।
जिसमें आवश्यक वस्त्रादि रखकर, समस्त परिग्रह का त्याग करते हुए अपना व्यक्तिगत धन एवं वह मन्दिरजी के समीप वाला स्वयं का आवासीय स्थान भी धार्मिक एवं लोकोपकारी कार्यों में समर्पित ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ साधर्मीजनों द्वारा संचालित ट्रस्ट को सौंपते हुए, यह निर्देश दिया कि मेरे द्वारा जिन कार्यों एवं संस्थाओं को जो सहायता दी जा रही है, वह निर्विघ्नरूप से चलती रहे। वे अपने परिजनों और सेवक आदि को तो पहले ही योग्य सम्पत्ति आदि दे चुके थे।
फिर बाहर से भी सभी साधर्मीजनों को निमन्त्रण देकर मन्दिर में सादगीपूर्वक विधान कराया और उसी समय साधर्मीजनों की उपस्थिति में ही सल्लेखना धारण कर ली।
अब वे प्रायः मौन रहते । स्वयं उपयोग को साधते रहते। कोई न कोई साधर्मी उनके समीप रहता। तत्त्वचर्चा के अतिरिक्त अब वहाँ दूसरी चर्चा निषिद्ध थी। पूजा, स्वाध्याय, सामायिक ध्यानादि भली प्रकार चल रहे थे। निर्यापक के रूप में तत्त्वाभ्यासी साधर्मी ‘जिनेन्द्रजी’ को समीप रखा था। भोजनादि सीमित होता जा रहा था। किसी प्रकार की विशेष पीड़ा न उनके शरीर में थी, न मन में। प्रसन्न, शान्त एवं गंभीर मुद्रा उनकी अन्तरंग निस्पृहता एवं पवित्रता को सहज ही प्रगट कर रही थी।
विशुद्धता के बल से, अपनी संयोगी पर्याय का अन्तकाल अतिनिकट भासित होते ही, उन्होंने सभी से पुनः क्षमायाचना की व क्षमाभाव धारण किया और निर्ग्रन्थ गुरु का उस समय सुयोग न मिलने के कारण, पंच परमेष्ठी भगवन्तों की साक्षीपूर्वक जिन प्रतिमा के सन्मुख समस्त परिग्रह का त्याग करके केशलौंच करते हुए निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण की। निर्दोष वृत्तिपूर्वक पहले से शुद्ध भोजन करने वाले साधर्मी श्रावक के यहाँ विधिपूर्वक थोड़ा जल लेकर उन्होंने आजीवन उपवास का नियम ले लिया।
प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी। यह मंगल समाचार वायुवेग से देशभर में पहुँच रहा था। दूर-दूर से साधर्मीजन इस मंगलमयी दृश्य को देखने आ रहे थे और तीसरे दिन मध्याह्न १ बजे वे देह से प्रस्थान कर स्वर्गवासी हुए।
साधर्मीजनों ने पूर्व से तैयारी कर ली थी। अतिशीघ्र निकट उद्यान में चन्दन, नारियलादि की चिता पर उनका भौतिक शरीर रखा गया और मंगलाचरणपूर्वक अग्नि में देह का विसर्जन हुआ। भौतिक शरीर तो विलीन हो गया, परन्तु संयम की सुगन्ध दिशाओं से आज भी आ रही है। यश:शरीर आज भी अमर है और भव्य जीवों को निरन्तर मोक्षमार्ग में प्रेरित कर रहा है।
पंचम काल की विषम परिस्थियों में, हीन संहननादि होने पर भी तत्त्वज्ञान और वैराग्य के बल से हम भी जीवन सफल करें यही भावना हम भी भाते हैं।

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बड़े का बड़प्पन

जलगांव निवासी दोनों भाई परिस्थितिवश बंटवारा करके अलग रहने लगे। बड़ा भाई समकित अपना व्यापारादि स्वयं देखता और नौकरों के कार्यों पर भी सूक्ष्मदृष्टि रखता; अतः उसकी सम्पत्ति बढ़ती गयी।
छोटे भाई शशांक ने प्रमादी हो सारा कारोबार नौकरों के भरोसे छोड़ दिया; अत: उसके व्यापार में घाटा होने लगा। बडे़ भाई ने बीच बीच में अनेक बार समझाया, पर भवितव्यतानुसार बुद्धि हो जाती है; अतः उसकी समझ में नहीं आया। अन्त में दुकान भी बिकने की नौबत आ गयी।
बड़े भाई ने जानकारी होने पर उसे बुलाया। प्रेम से धीरज बंधाया। उसका कर्जा चुकाया और उसे अपने साथ में काम करने के लिए तैयार किया।छोटा भाई भी प्रेम के वश हो, बड़े भाई के निर्देशन में काम करने लगा। धीरे-धीरे उसकी उन्नति होती गयी। बड़े भाई ने उसका हिस्सा पुनः उसे ही दे दिया।

स्वावलम्बन और उदारता का पाठ पढ़ाते हुए, स्वाध्याय की प्ररेणा दी। स्वाध्याय से छोटे भाई की आंखें खुलीं। उसने पुण्य- पाप एवं धर्म का स्वरूप समझा और बड़े भाई का उपकार मानता हुआ, अपना जीवन सार्थक करने में लग गया।

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प्रायश्चित्त

एक दिन रानी के हार के लिए मथुरा नरेश को उत्तम मोतियों की जरूरत पड़ी। राजा ने नगर के जौहरी लोगों को बुलाकर कहा; परन्तु सबके द्वारा मना करने पर, देखा-देखी वृद्ध जौहरी रतनचन्द्र ने भी मना कर दिया। राजा को क्रोध आ गया और उसने कहा- जिसके यहां मोती पाये जायेंगे, उसका धन हरण कर, नगर से निकाल दिया जायेगा।
वृद्ध जौहरी रतनचन्द्र घर जाकर अत्यंत भयभीत हुआ। उसने स्वाध्याय कराने वाले अपने पंडितश्री ज्ञानेन्द्रजी से समाधान पूछा।

पण्डितजी- "भूल छिपाना कठिन भी है और कष्टकर भी । भूल मिटाना सरल भी है और सुखकर भी। एक असत्य को छिपाने के लिए अनेक असत्य उपाय करना, कदापि उचित नहीं।"
उनकी नेक सलाह के अनुसार, वह एक उत्तम मोतियों का सुन्दर हार लेकर राजदरबार में पहुंचा और अपनी भूल की विनयपूर्वक क्षमा मांगते हुए वह हार स्वयं रानी को भेंट कर दिया।
बड़े पुरूष विनय से प्रसन्न हो जाते हैं। इस न्याय से राजा ने प्रसन्न हो उन्हें क्षमा कर दिया।
सदैव ध्यान रखें कि रोग का इलाज जितनी शीघ्र किया जाए उतना ही सुगम है। ऐसे ही भूल भी शीघ्र ही स्वीकार कर दूर कर ली जाये, इसी में हित है।

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संयम की दृढ़ता

पिता विरक्त हो साधु हो गये, पुत्र भी ब्रह्मचर्य व्रत ले संघ में रहने लगा। एक दिन गर्मी अधिक थी, विहार करते हुए पिता ने पुत्र की व्याकुलता को समझा और मोह वश कह दिया- हम लोग आगे मिलेंगे, तुम धीरे-धीरे आ जाना। पुत्र नदी के समीप अकेला रह गया। उसका मन पानी पीने का हुआ, परन्तु तुरन्त उसने विचार किया- भले ही स्थूल रूप से कोई नहीं देख रहा, परन्तु सर्वज्ञ के ज्ञान से तो कुछ भी छिपना सम्भव नहीं है और शरीर के मोहवश मैं अपना संयम क्यों छोड़ू। वह शांत चित्त हो बैठ कर तत्त्वविचार पूर्वक तृषा परिषह जीतता रहा, परन्तु आयु का उसी समय अन्त आने से उसकी देह छूट गयी और संयम की दृढ़ता एवं शान्त परिणामों से स्वर्ग में देव हुआ।
तत्काल अवधिज्ञान से समस्त प्रसंग समझकर, वह उसी पुत्र का वेश बनाकर संघ में आया। उसने अन्य साधुओं को नमस्कार किया, परन्तु पिता को नहीं। वह बोला- " साधु होकर आपको ऐसा मोह एवं छल करना उचित नहीं था। मैंने अपना नियम नहीं छोड़ा और देह छोड़कर स्वर्ग में देव हुआ। हे गुरुवर! आप भी प्रायश्चित्त करें।"
पिता ने भी प्रायश्चित्त किया और साधना में सचेत हो, तल्लीन हो गये।

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वात्सल्य

शैलेष ग्राम में रहने वाली अपनी बहिन सुलोचना के घर गया। उसे भूख लगी थी। उसने बहिन से कुछ खाने को मांगा।
सुलोचना हर्ष विभोर हुई, खेत से आई ताजी मटर छील-छील कर भाई को खिलाने लगी और खुद भी खाने लगी, परन्तु छिलके भाई को देती जाती और मटर स्वंय खाती जाती।
उसी समय उसका पति भी आ गया और देखकर बोला-“ये क्या कर रही हो?”
और स्वयं मटर छील कर पत्नि के भाई को देने लगा।
खाते हुए भाई बोला-“मटर तो मीठी है ही, परन्तु छिलके और भी अधिक मीठे थे।”
पति विवेकी था तुरन्त बोला-“मीठा तो वात्सल्य होता है। तुम्हारा कहना ठीक ही है।” पश्चात् घर की कुशलक्षेम पूछने लगा। थोड़ी देर बाद अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक दोनों ने भोजन किया।
थोड़ी देर विश्राम के बाद भाई ने अपने घर की राह पकड़ी।

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स्याद्वाद से समाधान

एक बार दतिया के शक्तिशाली राजा विश्वलोचन ने अपने राज्य के समस्त धर्मगुरुओं को बुलाकर आदेश दिया-“आप लोग जब तक अलग-अलग मान्यताएं छोड़कर सब एकमत नहीं हो जाते, तब तक कारागृह में रहेंगे।”
वे लोग कुछ भी उत्तर न दे पाने से कारागृह में बन्द कर दिये गये।
कुछ ही दिनों में वहां एक दिव्यांशु नामक विद्वान आया। राजा ने कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् पूछा-“आपको हमारी नगरी कैसी लगी?”
विद्वान्- “नगरी तो सुन्दर है परन्तु बाजार में अनेक दुकानें ठीक नहीं हैं। सबको मिलाकर एक दुकान बना दी जाये। इसी प्रकार विद्यालयों में अनेक कक्षाओं की जगह एक हाल में सामूहिक पढ़ाया जाये। चिकित्सालय के भी अनेक विभाग समाप्त कर दिये जायें तो कितना सुन्दर और सरल हो जाते।”
राजा- “ये न तो सम्भव है और न व्यावहारिक।”
विद्वान्- “तब फिर सभी मनुष्यों के विचार समान कैसे हो सकते हैं? चारों गतियों से आने और चारों गतियों में जाने वाले जीवों के परिणाम एवं विचार एक-से कैसे होंगे और मुक्ति जाने वाले जीवों के परिणाम तो सबसे अलग ही होंगे। आपकी सबको एकमत कर देने की कल्पना कैसे सम्भव है ?”
राजा को अपनी भूल समझ में आ गयी और उसने सभी को कारागृह से मुक्त कर दिया।

माध्यस्थ-भावपूर्वक रहना ही हितकर है। जिज्ञासु जीवों को उपदेश देने से, जो वस्तुस्वरुप को समझते जायेंगे, वे सहज मोक्षमार्गी होते जायेंगे।

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कर्त्तव्यनिष्ठा

बरसाती नदी के ऊपर रेलवे का एक पुराना पुल था। उसके समीप ही एक बुढ़िया अपने इकलौते बेटे के साथ रहती थी। वह बेटे को धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के संस्कार कहानियों के माध्यम से स्वयं देती थी ; अतः उसका हृदय परोपकार एवं सेवा की भावना से भरा हुआ था।
एक रात्रि घनघोर वर्षा के कारण वह पुल टूट गया, उसकी आवाज से समझकर, लड़के ने वर्षा में भीगते हुए जाकर स्वयं टूटा पुल देखा। उसी समय गाड़ी आने का समय हो रहा था। उसने शीघ्र ही अपनी लाल कमीज को एक डण्डे में लगाया और एक बड़ी टॉर्च लेकर पुल से पहले ही लाइन के किनारे खड़े हो गया। दूर से ही ड्रायवर ने लाल रंग का इशारा देखकर गाड़ी रोकी , उतरकर पूछा - तब उसने ड्रायवर को टूटा पुल दिखाया।
ड्रायवर एवं यात्रियों ने उसे धन्यवाद एवं इनाम भी दिये, परन्तु वह तो इतने लोगों की रक्षा हो जाने से ही खुश था।
ड्रायवर ने समीप के स्टेशन पर सूचना भेजी, शीघ्र पुलिस एवं विभाग के अधिकार और समीप के गाँव के लोग आ गये। सभी ने यात्रियों की व्यवस्था की।
उसमें एक अधिकारी ने प्रसन्न होकर उस लड़के को पढ़ाने एवं रेलवे में योग्यतानुसार सर्विस देने की घोषणा कर ही दी। माँ सहित उसे स्टेशन के समीप ही एक आवास दिया गया, जिससे वह आगे की पढ़ाई भी कर सके।
सूचना पाकर शिक्षा-विभाग ने भी उसे छात्रवृत्ति प्रदान की और वह आगे रेलवे-विभाग में ही उच्च अधिकारी बना।

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स्वाध्याय

एक था उत्कर्ष नाम का श्रावक। भगवान जिनेन्द्र की दर्शन- भक्ति के साथ ही वह ज्ञानीजनों की संगति एवं स्वाध्याय विशेष रूचि पूर्वक करता था। उसने गुरुजनों से भी सुना था और स्वयं भी पढ़ा और समझा था कि सादगी और संतोष से मात्र अवसर ही मिलता है, सही दिशा तो स्वाध्याय से ही मिलती है।
इसी प्रकार भक्ति एवं पूजा के माध्यम से, भक्त भगवान से अपनी ही कहता है। भगवान का स्वरूप एवं उपदेश तो स्वाध्याय के माध्यम से समझा जाता है। जैसे वैद्य से केवल अपनी ही कहते रहने से, रोग मुक्त नहीं हुआ जा सकता। स्वस्थ होने के लिए वैद्य के अभिप्राय को समझना अनिवार्य है। वैसे ही स्वाध्याय के द्वारा भक्ति सार्थक होती है।
प्रतिकूल प्रसंगों में समाधान तो स्वाध्याय से ही होता है। स्वाध्याय ही हमें अनुकूलताओं में भी फंसने नहीं देता।
मुक्ति मार्ग के साथ- साथ समस्त लोक व्यवहार भी हमें जिनवाणी के अभ्यास से ज्ञात होता है।
गुरुओं के समागम का वास्तविक लाभ भी हमें स्वयं के स्वाध्याय से ही मिल पाता है, अन्यथा कथन की अपेक्षा और प्रयोजन न समझें तो कभी-कभी हम भ्रमित भी हो जाते हैं।
मिथ्या चित्रकारों और स्वानुभव का भी मुख्य उपाय स्वाध्याय ही समस्त तपों का आधार होने से परम तप कहा है।
ध्येय और साध्य के सम्यग्ज्ञान बिना यथार्थ धर्मध्यान भी नहीं होता है। मात्र मंदकषाय होने से कुछ स्थूल शान्ति-सी लगती है, वह भी क्षणिक एवं काल्पनिक है। इसके अतिरिक्त साधक का बाह्य उपलब्धियों, ख्याति आदि में उलझ जाना सम्भव है।
इस प्रकार वह स्वाध्याय के बहुत से लाभ बताते हुए, अन्य पात्र जीवों को स्वाध्याय की प्ररेणा करता। पुस्तकें और शास्त्र देता एवं विद्वानों का समागम कराता। जिनमन्दिर में दैनिक स्वाध्याय पाठशाला, गोष्ठियां एवं ज्ञान- वैराग्यवर्धक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराता रहता। इस प्रकार समाज में उत्साह पूर्ण वातावरण बना हुआ था। अन्य भद्रपरिणामी जीव भी स्वाध्याय का लाभ लेते।
अनेक लोकोपकारी कार्यों का भी समय- समय आयोजन होता रहता था। कभी आध्यात्मिक शिक्षण शिविर, कभी नैतिक शिक्षण शिविर कभी स्वास्थ्य शिक्षण शिविर, कभी असहायों की विभिन्न प्रकार से सहायता हेतु शिविर वहां होते ही रहते थे।
एक शुभ अवसर पर उसे वैराग्यमय विचार आया कि ये जगत तो ऐसे चलता रहेगा। अब तो पूर्णतः निवृत्ति लेकर आत्मकल्याण करना चाहिए। ये सब भले ही प्रशस्त कार्य है, परन्तु इनमें उपयोग तो बहिर्मुखी एवं स्थूल होता ही है।
व्यापारादि से तो बहुत पहले ही निवृत्त हो चुका था; अतः उसने मुनिदीक्षा की भावना भाई और वह सामायिक और ध्यान के माध्यम से अपनी समतामयी साधना का अभ्यास बढ़ाने में लग गया; अतः उसकी निद्रा भी अल्प रह गयी थी। भोजनादि भी एकबार, मौन और विरक्तता सहित, अनाहारी स्वभाव के लक्ष्य पूर्वक और अनाहारी दशा की भावना सहित होता था।
अंतरंग वैराग्य के ज्वार को कौन रोके? भव्यजीवों ने तो अनुमोदना ही की। अब वे मुनिराज गुणभद्र जी निर्दोष चर्या का यथाशक्ति पालन करते। पहले से ही शुद्ध भोजन करने वाले श्रावक के यहां अनुद्दिष्ट भोजन करते, कोलाहल पूर्ण शहरों से दूर रहते । आरम्भपूर्ण कार्यों की प्ररेणा तो दूर, अनुमोदना भी नहीं करते।
प्राय: मौन साधना। कभी भव्यों के भाग्य से कुछ उपदेश हो जाते। संघ के ब्रह्मचारी भाइयों की विशेष प्ररेणा एवं सहयोग से कुछ लिखा जाये, वह भी स्वयं को अकर्ता ज्ञाता स्वरूप ही अनुभवते हुए, स्वान्त:सुखाय अथवा निज भावना निमित्त। कौन आया, कौन गया, किसने नमस्कार किया, स्तुति की अथवा किसने कुछ कह दिया- इनसे कोई प्रयोजन नहीं। मान-अपमान में समता। मात्र आत्मार्थ में सावधान। जो देखता धन्य हो जाता। जीवन के अन्तिम समय में योग्यरीति से समाधि कर अपना तो कल्याण किया ही, धर्म की भी मंगलमयी प्रभावना करते हुए, हमारे लिए आदर्श छोड़ गये।
कोटिश: नमन! उनके पावन एवं तरण-तारण चरणों में।

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पुरुषार्थ

एक आलसी व्यक्ति रास्ते में लुटेरों के भय से भयभीत, श्मशान में बने एक मंदिर में पहुँचा और दीनतापूर्वक बोला - “हे प्रभो ! रक्षा करो।”

वहाँ रहने वाले एक देव को दया आ गई गयी उसने कहा - “मंदिर के किवाड़ लगा ले।”

व्यक्ति - “भय के कारण मेरी हिम्मत किवाड़ लगाने की नहीं हो रही।”
देव - “अच्छा कोई आये तो जोर से हुँकार देना।”
व्यक्ति - “मेरी जीह्वा में शक्ति नहीं रही। "
देव - “मात्र सामने देखते रहना।”
व्यक्ति - “मेरी आँखे ही नहीं खुल पा रही।”
देव - “अच्छा ! जाओ वेदी के पीछे छिप जाओ।”
व्यक्ति - “मेरे पैर आगे नहीं बढ़ रहे।”
देव - " (क्रोध सहित ) निकल जा यहाँ से, तुझ जैसे पुरुषार्थहीन की रक्षा नहीं हो सकती।”

सच है ! भगवान भी दुःख से छूटकर सुखी होने का मार्ग बताते हैं। समझ कर श्रद्धान एवं आचरण तो स्वयं के पुरुषार्थ से ही होगा।

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कृतज्ञता

एक भले घर का संस्कारित विद्यार्थी पियूष बाहर कमरा लेकर एम.ए. में अध्ययन कर रहा था। परिस्थितिवश कमरे का किराया भी न दे सका, परन्तु मालिक ने कुछ नहीं कहा। साथ ही उसको जरूरत के अनुसार कुछ और आर्थिक सहयोग दे दिया।
अध्ययन के पश्चात् उसकी नौकरी लग गयी, उसने उन सज्जन का किराया और धन तो भेज ही दिया, बाद में भी प्रायः वह भेंट लेकर जाता रहा।
मालिक के कहने पर यही कह देता, - "आपके उपकार से तो जीवन भर उऋण नहीं हो पाऊँगा। " उसने भी जीवन में जरुरतमंदो का यथासम्भव सहयोग करने का नियम ही बना लिया था।
"स्वयं दुखों के प्रसंगों से घिरे होने पर भी उपकार का अवसर नहीं चूकना चाहिए। परोपकारी से होने वाले पुण्य से अपने लौकिक कार्य भी सहज ही हो जाते हैं।"

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कषाय की विचित्रता

नगर के बाहर एक छोटा-सा आश्रम था। वहां एक त्यागी जी रहते थे। वहां से निकलने वाले यात्री भी कभी घण्टे-दो-घण्टे तो कभी रात्रि में भी विश्राम कर लेते थे।
एक दिन सर्दी की सांय बरसात भी होने लगी। समीप के नगर की स्त्री पास के गाँव में अपने मायके जा रही थी। स्त्री ने आकर त्यागीजी से रात्रि में रुकने की अनुमति माँगी। त्यागीजी ने सहज भाव से कह दिया - पास के कमरे में ठहर जाओ।
रात्रि के समय उस स्त्री को नींद न आई। उसे कामवासना सताने लगी। वह उठ कर त्यागीजी के समीप आकर, हाव -भाव प्रदर्शित करते हुए , कामना पूरी करने के लिए गिड़गिड़ाने लगी, परन्तु अपने शील में दृढ़ त्यागीजी ने उसे समझा - बुझा कर अपने समीप से हटा दिया।
वह स्त्री लज्जित भी हुई और भयभीत भी। उसने विचारा यदि त्यागीजी ने किसी से कह दिया तो नगर में मेरी बदनामी होगी; अतः इन्हें मार देना चाहिए।
प्रातः वह उनसे क्षमा माँगते हुए बोली- महाराज! मैं घर पहुँच कर आपके लिए मिष्ठान्न भेजूँगी, आप अवश्य ग्रहण कर लेना।
घर जाकर मिष्ठान्न में विष मिलाकर नौकर के हाथ उसने भेज दिया। त्यागीजी ने भी सरल भाव से रख दिया। उसी समय उस स्त्री का परदेश से लौट कर आया हुआ पति बोला -“बाबाजी !भूख लगी है, कुछ खाने को तो कृपा करें।” तब उन्होंने उसे वही मिष्ठान्न दे दिया, जिसे खाकर वह अपने घर चला गया।
वहाँ जहर चढ़ जाने से मर गया। पता लगने पर वह स्त्री पछताती हुई, अत्यन्त दुःखी होती हुई, उन्हीं त्यागी के समीप पहुँची और क्षमायाचना की।

उन्होंने उसे वैराग्यपूर्ण धर्म का उपदेश दिया, जिससे वह स्त्री विरक्त हो गयी।

  1. शील में दृढ़ रहें।
  2. कपट कदापि न करें।
  3. दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर, निर्दोषता पूर्वक आगे बढ़ें।

"दुर्व्यसनों के त्याग बिना आर्थिक समृद्धि भी क्लेश और पतन का कारण बन जाती है।"

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युक्ति एवं धैर्य

एक था चंदन नाम का सीधा-सादा गरीब किसान कठिनाई से कुछ धन जोड़ कर मेले में से एक गाय और एक बाल्टी लेकर लौट रहा था। रास्ते में अँधेरा हो गया, वहीं राहगीरों को लूट लेने वाला डाकू मिल गया। उसने तेज आवाज देकर रोका और गाय एवं शेष रूपये छीन लिए। साथ के अन्य लोगों को भी उसने लूट लिया और जंगल की ओर जाने लगा।
दुःखी किसान ने कुछ सोचा और भगवान का नाम ले उसने पीछे से जाकर बाल्टी उसके सिर में फँसा दी और शीघ्रता से उसके हाथ रस्सी से बाँध दिए। तब तक अन्य लोग भी आ गये।
इसप्रकार राहगीरों एवं ग्रामीणों को लूटमार से राहत मिली।

विपत्ति में रोना उपाय नहीं है। धैर्य ,साहस एवं युक्तिपूर्वक परिस्थिति का सामना करना चाहिए।

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प्रेरणा

महिपाल नाम के स्वाध्यायी सेठ एक दिन तालाब के किनारे खड़े थे, तभी उन्होंने देखा कि एक मेंढक को सर्प ने आकर पकड़ लिया, फिर भी मृत्यु से बेखबर मेंढक, कीड़े खाने में मग्न रहा। जब तक उसका मुख बाहर रहा वह कीड़े खाता रहा। अन्त में सर्प द्वारा निगल लिया गया।
सेठ विचारने लगे कि मेंढक की भाँति सभी मोही जीवों की यही दशा है। जो अन्य जीवों को मरते हुए प्रत्यक्ष देख रहा है और स्वयं भी निरन्तर मृत्यु के समीप आता जा रहा है। तो भी विषय-कषायों में मग्न हुआ परिग्रह में ही उलझा रहता है। एक क्षण भी परलोक के सम्बन्ध में विचार नहीं करता और आत्महित में सावधान नहीं होता। इसीप्रकार दुर्लभ मनुष्य पर्याय का काल पूरा करके दुर्गति में चला जाता है।
सावधान !शीघ्र आत्महित कर लेना चाहिए, ऐसा विचार करते हुए, वे व्यापार, परिवार एवं लोक-व्यवहार से निवृत्ति लेकर चले गये एक पवित्र तीर्थस्थान, अपना हित करने के लिए।

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संतोषवृत्ति

दीपक नाम का एक युवक, जिसके पिता पहले ही परलोक सिधार गए, माता बीमार पड़ गयी, भाई-बहिन छोटे थे। आर्थिक तंगी से परेशान होकर वह जिलाधीश महोदय नैतिक विचारों के करुणाशील व्यक्ति थे। उसके वृत्तान्त को सुनकर, तुरन्त कोष से तीस हजार की सहायता हेतु कह दिया।
युवक गाँव का था। वहाँ सस्ती व्यवस्था थी। युवक ने तुरन्त कहा -“श्रीमान दस हजार से मेरा काम हो जायेगा। यह राशि भी मैं अपनी कमाई में से भविष्य में इसी फण्ड में जमा करा दूँगा।”
जिलाधीश महोदय उसकी संतोषवृत्ति से अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने उसे दश हजार रुपये तो दिए ही, उसे योग्यतानुसार अपने ही कार्यालय में लिपिक की नौकरी भी दे दी।
युवक कृतज्ञभाव से देखता रह गया। उसने माता का इलाज कराया। वे शीघ्र स्वस्थ भी हो गयी। भाई-बहनों को पढ़ाया और सत्य, ईमानदारी एवं परोपकार के संस्कार देते हुए व्यवस्थित किया। गाँव में भी कार्यालय के सहयोग से अनेक अच्छे कार्य वह निरन्तर करता ही रहा। मरणोपरांत भी गाँव के लोग उसका आदर से स्मरण करते हैं।

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सत्यनिष्ठा

एक गरिमा नाम की बालिका, लौकिक शिक्षा के साथ ही धार्मिक पाठशाला में, नैतिक संस्कार भी ग्रहण कर रही थी। अब वह कक्षा ८ में आ गयी थी, उसकी समझ में आने लगा था कि मात्र पूजा-पाठ ही धर्म नहीं है। धर्म तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप है। मोह और क्षोभ से रहित साम्यभाव (समता -परिणाम) ही दुःखों को दूर कर, परम सुख को देने वाला परमार्थ धर्म है।
अहिंसा ही परम धर्म है। जिसका आधार सत्य है। अचौर्य ,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तो अहिंसा की प्राप्ति के लिए ही हैं।
वैसे भी किसी कार्य में सफलता हेतु सम्यक् अभिप्राय, सूक्ष्म उपयोग और व्यवस्थित चर्या, परमावश्यक है।
एक दिन सत्य की महिमा को सुनते हुए, उसने अपने जीवन में अहिंसामय सत्य बोलने का नियम ही ले लिया। अनेक प्रसंगों में उसने अपने नियम का भलीप्रकार निर्वाह किया।
एक बार उसके घर में डाकू आ गये। लूटने के बाद सरदार बोला- "किसी के पास यदि कुछ धन हो तो शीघ्र दे दें। तब उसने आगे बढ़कर कहा - “मेरी गुल्लक में रूपये हैं। इन्हें भी लेते जायें।” डाकू सरदार उसकी सत्यनिष्ठा से अत्यन्त प्रभावित हुआ। कुछ देर सोचता रहा फिर बोला - “बेटी !अब हमें इस घर से कुछ भी नहीं ले जाना है, अपना समस्त धन सँभालो। आज से हम डकैती का भी त्याग करते हैं। तुम हमें कुछ अच्छी पुस्तकें अवश्य दे दो, जिससे हमारा जीवन नैतिक और शान्तिमय बन जावे।”
उसने लड़की एवं उसकी माँ के पैर छुए। लड़की ने उन्हें मिष्ठान्न खिलाया और राखी बाँधते हुए कहा -“समस्त नारियों को माता, बहिन और पुत्री समान समझना और उनके शील की रक्षा में सहयोगी बने रहना।”
डाकुओं ने उस घड़ी को धन्य मानते हुए, हर्षपूर्ण अश्रुओं से विदा ली।

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ईमानदारी

एक था चैकपोस्ट का अधिकारी धीरज। अत्यन्त ईमानदार, संतोषी और कर्त्तव्यनिष्ठ। भ्रष्टाचार के युग में व्यक्ति का निर्वाह कठिनता से होता है। अनेक छोटे-बड़े लोग, समय के अनुसार समझौते की नीति से चलने के लिये दबाव बनाते , परन्तु वह अपने सिद्धान्त पर अड़िग रहा। शीघ्र-शीघ्र स्थानांतरण की परेशानियाँ तो उसकी आदत में ही आ गयी थीं।
एक बार तस्करी का माल उसने पकड़ लिया। मालिक बड़ा व्यापारी एवं राजनेताओं से सम्बन्धित था। उसने पहले तो भारी प्रलोभन दिया, ५० लाख तक देने के लिए कह दिया ,परन्तु वह विचलित न हुआ। ऊपर से नेताओं एवं मंत्रियों के फोनों पर भी उसने ध्यान नहीं दिया। नियमानुसार चालान कर दिया और माल जब्त कर लिया।
कोर्ट में पेशी होने पर, रिश्वत के बल से केस शीघ्र ही ख़ारिज हो गया। मंत्रियों की नाराजी के कारण उसे नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा, परन्तु वह निराश न हुआ।
एक बड़े उद्योगपति को जब यह मालूम पड़ा, तब उसने शीघ्र ही उसे बुलाया और अपनी कम्पनी के सर्वोच्च पद पर सम्मान-सहित नियुक्त किया। जहाँ उसे सारी सुविधायें भी थी और वेतन भी पहले से अधिक।
अब वह पहले से सतर्क रहता। मालिक का अहित न होने देता और अधीनस्थ लोगों के हित का सदैव ध्यान रखता। माह में एक बार वह सभी की मीटिंग करता। जिसमें सभी कर्त्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, संतोष एवं परोपकार आदि की शिक्षा देता।
कम्पनी दिन-प्रतिदिन उन्नति कर रही थी। उसने मालिक को धन की असारता का पाठ पढ़ाते हुए शिक्षा, चिकित्सा व असहायों के सहयोग आदि कार्यों हेतु एक ट्रस्ट बनाने की सलाह दी। मालिक ने सहर्ष स्वीकार करते हुए, उसे ही ट्रस्ट का सचिव बनाया और कम्पनी की आय का एक निश्चित अंश लोकोपकारी कार्यों में खर्च होने लगा।

ठीक ही कहा है -"धन तो पुण्य के उदय से बहुत से लोगों को मिल जाता है, परन्तु जो उसका सदुपयोग कर लें वे प्रसन्न भी रहते हैं और प्रशंसनीय भी होते हैं। "

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चोरी भी हिंसा है

एक विधवा महिला का इकलौता पुत्र बीमार हो गया। जहां वह नौकरी करती थी, उसी सेठ से उसने कर्जा माँगा। दयालु सेठ ने उसे कर्जा दे दिया। वह रुपये लेकर घर आयी, परन्तु रात्रि को चोर घर में घुस कर, वह रुपया एवं अन्य सामान ले गये। धन के अभाव में इलाज न हो सका और उसका पुत्र मर गया। पुत्र के मोह में शोक करती हुई वह स्त्री भी मर गयी।

सत्य ही कहा है -
१.चोरी करना हिंसा करने जैसा ही पाप है।
२. पाप के उदय में सहाय का निमित्त नहीं बनता।
३. मोह ही दुःख का कारण है।
४. मोह के नाश के लिए सत्समागम और ज्ञानाभ्यास करना चाहिए।

जब सेठ ने यह घटना सुनी, उसे वैराग्य हो गया और समस्त परिग्रह का त्याग कर दिगम्बर आचार्य की शरण में पहुँचा और मुनिदीक्षा ले आत्मकल्याण में लग गया।

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सादा भोजन

एक थे ब्रह्मचारी ज्ञानेन्द्रजी। आत्मार्थ की भावना से भरा हुआ था जिनका हृदय। ज्ञान -ध्यान के अभ्यास में प्रयत्न -पूर्वक लगे रहते थे। बाहरी प्रपंचो से कोसों दूर, एक ग्राम से २ कि.मी.दूर एकान्त में स्थित एक तीर्थ क्षेत्र पर सामान्य कमरे में रहते थे। श्रावक लोग खाद्य -सामग्री दे जाते और वे अपना भोजन स्वयं बनाकर खाते।
क्षेत्र की स्वच्छता,स्वाध्याय आदि का तो ध्यान रखते, परन्तु विकास की अन्य योजनाओं से अत्यन्त निस्पृह रहते। किसी बड़े कार्यक्रम के समय तो वे प्रायः अन्यत्र चले जाते थे।
एक दिन एक श्रावक मालपुआ आदि मिष्ठान्न लाया। उन्होंने अस्वीकार कर दिया। विशेष आग्रह करने पर, शिक्षा देने के अभिप्राय से एक मालपुआ वहीं दीवाल पर लगे दर्पण पर रगड़ दिया, जिससे उसमें धुँधला (अस्पष्ट ) दिखने लगा। फिर उन्होंने एक सूखी रोटी उस पर रगड़ दी, जिससे वह फिर चमकने लगा। तब वे बोले -"भाई! इसीप्रकार गरिष्ट मिष्टान्न आदि हमारे उपयोग को मलिन करते हैं और साधना में बाधक होते हैं। "
अतः हमें स्वाद पर दृष्टि न रखते हुए, संयम के अनुकूल सादा भोजन करना ही हितकर है। वह सहज और सस्ता होने से, उपलब्ध भी सहजता से हो जाता है। उसके बनने में आरम्भ भी कम होता है, समय भी कम लगता है और सादगी-पूर्ण जीवन के लिए कमाना भी कम पड़ता है, अतः गृहस्थ को भी सात्विक भोजन ही करना चाहिए, जिससे हमारे परिणाम भी शान्त रहें और हम निराकुलता से धर्मध्यान भी कर सकें।
उन भाई को सादा भोजन एवं सादे जीवन की शिक्षा सहज ही समझ में आ गयी।

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