सल्लेखना महोत्सव
आत्मार्थी विद्वान् प्रशान्त जैन अपने नाम के अनुरूप ही धीर, गम्भीर एवं शान्त स्वभावी थे। प्रौढ़ावस्था में ही व्यापारादि से निवृत्त हो परिवार से निरपेक्ष घर में रहते हुए भी गृहत्यागी की भाँति, प्रदर्शन और ख्याति की वांछा से दूर निरन्तर तत्त्वाभ्यास में लगे रहते थे।
प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठकर आत्मचिन्तन एवं वैराग्यपाठ आदि करते। शौच-स्नानादि के पश्चात् शुद्ध वस्त्र पहनकर भगवान की पूजा, स्वाध्यायादि करते। वात्सल्यपूर्वक साधर्मीजनों को भोजन कराते । यह उनका दैनिक नियम ही था। कोई अतिथि न मिलने पर वे स्थानीय गोष्ठी के ही किसी साधर्मी को ही भोजन के लिये बुला लाते। अकेले भोजन करना उन्हें अच्छा ही नहीं लगता था। भोजन में भी सादगी और सहजता । न कोई प्रदर्शन, न विशेष औपचारिकता।
दीन-दु:खियों का भी यथायोग्य गुप्त रीति से सहयोग करना उनकी प्रवृत्ति ही बन गयी थी।
मूलगुणों के नियम के साथ ही वे अणुव्रतों का भी यथाशक्ति पालन करते थे। ब्रह्मचर्य तो उन्होंने युवावस्था में ही ले लिया था।
बाजारू खाद्य एवं विलासिता की सामग्री के लिए तो उनके घर में ही कोई स्थान नहीं था। उनकी धर्मपत्नी समता, बालक विनीत एवं पुत्रवधू सुनीता भी उनके अभिन्न सहयोगी थे।
पर्व के दिनों में एकाशनादि सहज ही होते । उनका कक्ष सबसे अलग एकान्त में था। जिसके समीप उनके आगन्तुक साधर्मी भी प्रायः रुके ही रहते थे।
भेदज्ञान ही उनका जीवन था और वैराग्य ही शृङ्गार। किसी प्रकार की सांसारिक लालसा भी उनके मन में न आती।
अब तो एक ही भावना थी, संयमपूर्वक समाधि हो। उसके लिए समस्त लोकव्यवहारों से भी निवृत्त हो आराधना में सावधान रहते।
एक दिन जिनमन्दिर से लौट कर भोजन करके बैठे थे। उन्हें शरीर में कुछ अशक्तता विशेष लगी। वैसे उनकी इन्द्रियाँ सजग थीं। फिर भी उन्होंने एक वसीयत लिखी।
जिसमें आवश्यक वस्त्रादि रखकर, समस्त परिग्रह का त्याग करते हुए अपना व्यक्तिगत धन एवं वह मन्दिरजी के समीप वाला स्वयं का आवासीय स्थान भी धार्मिक एवं लोकोपकारी कार्यों में समर्पित ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ साधर्मीजनों द्वारा संचालित ट्रस्ट को सौंपते हुए, यह निर्देश दिया कि मेरे द्वारा जिन कार्यों एवं संस्थाओं को जो सहायता दी जा रही है, वह निर्विघ्नरूप से चलती रहे। वे अपने परिजनों और सेवक आदि को तो पहले ही योग्य सम्पत्ति आदि दे चुके थे।
फिर बाहर से भी सभी साधर्मीजनों को निमन्त्रण देकर मन्दिर में सादगीपूर्वक विधान कराया और उसी समय साधर्मीजनों की उपस्थिति में ही सल्लेखना धारण कर ली।
अब वे प्रायः मौन रहते । स्वयं उपयोग को साधते रहते। कोई न कोई साधर्मी उनके समीप रहता। तत्त्वचर्चा के अतिरिक्त अब वहाँ दूसरी चर्चा निषिद्ध थी। पूजा, स्वाध्याय, सामायिक ध्यानादि भली प्रकार चल रहे थे। निर्यापक के रूप में तत्त्वाभ्यासी साधर्मी ‘जिनेन्द्रजी’ को समीप रखा था। भोजनादि सीमित होता जा रहा था। किसी प्रकार की विशेष पीड़ा न उनके शरीर में थी, न मन में। प्रसन्न, शान्त एवं गंभीर मुद्रा उनकी अन्तरंग निस्पृहता एवं पवित्रता को सहज ही प्रगट कर रही थी।
विशुद्धता के बल से, अपनी संयोगी पर्याय का अन्तकाल अतिनिकट भासित होते ही, उन्होंने सभी से पुनः क्षमायाचना की व क्षमाभाव धारण किया और निर्ग्रन्थ गुरु का उस समय सुयोग न मिलने के कारण, पंच परमेष्ठी भगवन्तों की साक्षीपूर्वक जिन प्रतिमा के सन्मुख समस्त परिग्रह का त्याग करके केशलौंच करते हुए निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण की। निर्दोष वृत्तिपूर्वक पहले से शुद्ध भोजन करने वाले साधर्मी श्रावक के यहाँ विधिपूर्वक थोड़ा जल लेकर उन्होंने आजीवन उपवास का नियम ले लिया।
प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी। यह मंगल समाचार वायुवेग से देशभर में पहुँच रहा था। दूर-दूर से साधर्मीजन इस मंगलमयी दृश्य को देखने आ रहे थे और तीसरे दिन मध्याह्न १ बजे वे देह से प्रस्थान कर स्वर्गवासी हुए।
साधर्मीजनों ने पूर्व से तैयारी कर ली थी। अतिशीघ्र निकट उद्यान में चन्दन, नारियलादि की चिता पर उनका भौतिक शरीर रखा गया और मंगलाचरणपूर्वक अग्नि में देह का विसर्जन हुआ। भौतिक शरीर तो विलीन हो गया, परन्तु संयम की सुगन्ध दिशाओं से आज भी आ रही है। यश:शरीर आज भी अमर है और भव्य जीवों को निरन्तर मोक्षमार्ग में प्रेरित कर रहा है।
पंचम काल की विषम परिस्थियों में, हीन संहननादि होने पर भी तत्त्वज्ञान और वैराग्य के बल से हम भी जीवन सफल करें यही भावना हम भी भाते हैं।