लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

खाली मन

एक नवयुवक संतोष ने सत्समागम का निमित्त पाकर, ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। दूसरे लोगों को देख-देखकर वह जप,पाठ, पूजा,स्वाध्याय आदि करने लगा, परन्तु उसके मन में यही भाव चलते रहते कि एक सुन्दर और सुविधा युक्त भवन बन जाये। कुछ फण्ड और अन्य आमदनी हो जाये। उसके लिए कुछ धार्मिक आयोजन कर लें।प्रचारक एवं कर्मचारी, गाड़ी आदि साधन हो जायें। विश्व में ख़ूब ख्याति हो जाए; अतः उसके चित्त में शान्ति नहीं थी।
एक दिन वह बाजार से निकल रहा था। मार्ग में पूर्व के परिचित मित्र की दुकान मिली। मित्र ने बुलाया और वह भी स्नेहवश दुकान में भीतर जाकर बैठ गया।उसकी किराने की दुकान में अनेक छोटे-बड़े डिब्बे लगे थे। वहां खाली डिब्बे भी थे। उन्हें देखकर कौतूहलवश उसने पूछा- " इनमें क्या है?"
मित्र ने बताया- “आतमराम है।”
उसने तो ग्रामीण दुकानदारी की भाषा में कहा, परन्तु वह ब्रह्मचारी युवक विचारने लगा कि मित्र ठीक ही तो कह रहा है कि जो खाली होते हैं, उनमें आतमराम होता है। मेरा मन भी जब इन बाह्य विकल्पों से खाली होगा, तभी परमात्मा का ध्यान हो सकेगा।
सचेत होकर वह लग गया बाह्य विकल्पों को छोड़कर,समता की साधना और आत्मा की आराधना में, निस्पृह भाव से। अब उसकी परिणति बदल चुकी थी। संतोष,समता एवं शान्ति उसकी पावन मुद्रा से ही दिखती थी।

4 Likes