लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

संस्कारों का प्रभाव

एक लड़का सुबोध, कक्षा चार में पढ़ता था। वह रात्रिकालीन धार्मिक पाठशाला में भी अवश्य जाता था। बुद्धिमान तो था ही,शीघ्रता से किसी भी विषय को समझ लेता था।
एक बार सांयकाल घूमते हुए, घर से कुछ अधिक दूर निकल गया। उसे कुछ डाकू मिल गये, वे उसे घर में बन्द करके रखते। सुबोध के घर दस लाख रुपयों की माँग की गयी। घर के लोग चिंता में पड़ गये।
सुबोध वहाँ भी प्रातः शीघ्र उठकर, णमोकार मंत्र एवं मेरी भावना, बारह भावना, आत्मकीर्तन आदि अत्यन्त मधुर स्वर में पढ़ता एवं भगवान की भक्ति करता।अपने ही पूर्व कर्मोदय का विचार करते हुए, समता रखने का प्रयास करता। फिर भी कभी-कभी घर और पाठशाला की याद आ जाने से रोना आ ही जाता था।
वहाँ का खान-पान ठीक न होने से, दो दिन तो उसने कुछ खाया ही नहीं। उसे देखकर उस डाकू की बूढ़ी माँ को अत्यन्त दया आयी। अकेले में उन्होंने लड़के के समीप जाकर उसका परिचय पूछा और उसे धर्मात्मा जानकर, उसके अनुसार बर्तन माँजती, पानी छानती और बहुत स्वच्छ्ता से भोजन बनाती और उसे दिन में ही खिला देती उसकी पाप, पुण्य, धर्म की चर्चा सुनकर वे बड़ी प्रसन्न होतीं।
एक दिन उन्होंने अपने डाकू बेटे के बाहर से लौट कर आने पर सारी चर्चा सुनाई। तब उसने परीक्षा के लिए लड़के के सामने बन्दूक तान कर कहा- “तेरे पिताजी रुपया तो भेज नहीं रहे; अतः मैं तुझे गोली मारता हूँ।”
देह से भिन्न आत्मा को समझने के बल से उसने अपनी कमीज उठाकर, पेट खोलते हुए निडर होकर कहा -“मार दो, शरीर ही तो मरेगा; आत्मा तो अजर अमर है।”
यह सुनकर डाकू का ह्रदय बदल गया। वह विचारने लगा -“कहाँ तो यह छोटा लड़का और कहाँ मैं ?”
उसने मन ही मन संकल्प किया और लड़के के पैर छूकर चोरी, शराब, माँस,
जुआ, आदि का त्याग कर दिया। फिर उसके पिताजी और पाठशाला के अध्यापक को बुलाकर,
उसने क्षमा माँगते हुए लड़के को सौंप दिया।
उसने सुबोध के पिताजी के सहयोग से गाँव में एक दुकान प्रारम्भ कर दी तथा शिक्षण-शिविरों में जाकर धर्मलाभ लेने लगा। उसे ज्ञान-वैराग्य का ऐसा रस लगा की एक दिन उसने घर छोड़ दिया और सत्समागम में रहते हुए स्वयं ज्ञानार्जन किया और गाँव-गाँव में भ्रमण कर नैतिक शिक्षा एवं धार्मिक शिक्षा की पाठशालाएँ खुलवाई।
इसप्रकार एक संस्कारित बालक की दृढ़ता के निमित्त से अनेक लोगों का कल्याण हुआ।

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