लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

छोटा पाप -बड़ा फल

नगर के समीप ही एक मन्दिर एवं साधकों के लिए आश्रम बना हुआ था। एक निस्पृही ,शान्तचित्त व त्यागी साधक के सानिध्य में अनेक व्यक्ति धर्म-साधना कर रहे थे। आदर से लोग उन्हें गुरुदेव, महात्माजी आदि नामों से पुकारते थे।
नगर में बाहर के कुछ चोरों ने चोरियाँ प्रारम्भ कर दीं। जनता परेशान हो रही थी। एक दिन तो उन चोरों ने राजकीय खजाने में चोरी की,परन्तु रक्षकों ने देख लिया। चोर भागे और चोरी का माल आश्रम में फेंककर, वहीं -कहीं छिप गये। रक्षकों ने गुरुदेव को पकड़ लिया। न्यायाधीश ने नगर को बढ़ती हुई चोरियों और खजाने की चोरी के कारण जनता को उत्तेजित देखते हुए,शीघ्रता में शूली की सजा सुना दी।
जल्लाद उन्हें शूली के स्थान पर ले गये। गुरुदेव ने तो मौन ले लिया और उपसर्ग दूर होने पर ध्यानस्थ हो गये, परन्तु जल्लाद द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी शूली अपना कार्य नहीं कर रही थी। खड़ी हुई भीड़ भी आश्चर्य से देख रही थी। न्यायाधीश को समाचार मिला, उन्हें लगा कि गुरुदेव निरपराधी है। भूल मेरी हुई है। उन्होंने पहुँच कर क्षमा माँगी।
चोरों को ये जानकर अत्यन्त पश्चत्ताप हुआ। उनका भी ह्रदय बदल गया। उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया और भविष्य में चोरी न करने की प्रतिज्ञा कर ली। चोरी का माल लाकर रख दिया, जो जनता को वापस मिल गया।व्यक्ति ने प्रश्न किया- “गुरुदेव के निरपराधी होने पर भी इनको कष्ट क्यों हुआ ?”
वहीं खड़े एक निमित्तज्ञानी ने समाधान किया -“गुरुदेव ने पाँच वर्ष की आयु में एक तितली को काँटे से पकड़ा था। बाद में माँ के समझाने पर उसे छोड़ भी दिया और प्रायश्चित स्वरुप उस दिन भोजन भी नहीं किया था.उसी का परिणाम यह उपसर्ग था।”
सभी ने पूछा-“अज्ञान में हो जाने वाले छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा ?”
गुरुदेव बोले_" पाप तो पाप ही है। पशु, पक्षियों, असमर्थों और सरल लोगों को कष्ट देने से तो विशेष पापबन्ध होता है।
जैसे अज्ञानवश अग्नि में हाथ डालने से भी जलते ही हैं, जहर खाने से मरते ही हैं; अतः सर्वप्रथम जीवों को अध्यात्म और अहिंसादिरुप सच्चे धर्म की शिक्षा देना चाहिए।"

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