लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

चोरी

एक तेरह वर्ष का बालक स्कूल से लौट रहा था। उसे रास्ते में सड़क किनारे एक मोबाइल की सिम मिली। उसने उठा कर अपने मोबाइल में डाल ली। उसमें बैलेन्स भी था। उसने किसी से यह बात कही भी नहीं।
परन्तु उस मोबाइल वाले ने उसकी चोरी की रिपोर्ट लिखा दी थी; अतः जैसे ही उसने उस सिम का उपयोग किया, तुरन्त बात पकड़ी गयी।
पुलिस आयी और उसे पकड़ कर ले गयी। उससे पूछा गया, तब उसने रोते हुए सच बता दिया। कोतवाल ने उसे सीधा बच्चा समझ छोड़ तो दिया, परन्तु उसे बहुत बुरा लगा और उसने नियम ले लिया-
‘किसी की पड़ी हुई वस्तु कभी नहीं उठायेगा। यदि संभव हुआ तो उसके मालिक तक पहुँचायेगा या थाने में जमा करा देगा। स्वयं के उपयोग में कदापि नहीं लेगा।’

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मातृत्व

एक गाँव में एक विधवा स्त्री का इकलौता २० वर्ष का लड़का था। उसका नाम मनोज था। लगभग तीन एकड़ खेती थी। आराम से गुजार हो जाता था।
उसके समीप ही एक किसान का घर था, उसके भी २ लड़के थे। एक लड़का अशोक तो उस लड़के के साथ ही खेलता। एक दिन खेत पर दोनों लड़को में कहा-सुनी हो गयी। बात बढ़ गयी और गुस्से में अशोक ने बड़ा-सा पत्थर मनोज के सिर में फेंककर मार दिया, जिससे उसका सिर फट गया और शीघ्र ही वह मर गया।
पुलिस आयी और अशोक को पकड़कर ले गयी। दोनों घरों में शोक छा गया। एक माह बाद केस का बयान, गवाह आदि होकर फैसला होना था। उस विधवा स्त्री को दूसरे दिन अदालत में बयान देने थे। उसने शान्त होकर विचारा और सो गयी। दूसरे दिन स्नान करके भगवान के दर्शन किये और अदालत पहुँच गयी। उसकी मुद्रा अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थी।
न्यायाधीश द्वारा पूछे जाने पर बोली - "अशोक और मनोज तो अच्छे मित्र थे। अशोक मनोज को कदापि नहीं मार सकता। कोई और ही लड़का पत्थर मार कर भाग गया। अशोक तो वहां से निकल रहा था और लोगों ने अशोक को ही हत्यारा समझ लिया। "
पुलिस के वकील ने उसे उसके पिछले बयानों की याद दिलाई तो उसने कहा -“उस समय मैं पुत्र की मृत्यु के शोक में होश खो बैठी थी। पता नहीं मेरे मुख से क्या निकल गया। मुझे ध्यान नहीं हैं, परन्तु मैं जो इस समय कह रही हूँ वही सत्य है। अशोक निर्दोष है।”
अदालत ने अशोक को बरी (मुक्त) कर दिया।
वह विधवा स्त्री वहाँ से आकर घर के चबूतरे पर बैठी ही थी कि गाँव के अन्य लोग,सरपंच आदि आ गये और बोले -“तुमने ऐसा क्यों कहा ?”
स्त्री - "मैंने जब शान्त चित्त से विचार किया कि मेरा पुत्र तो लौट कर आयेगा नहीं, मेरा घर तो उजड़ ही गया। अशोक को फाँसी हो जाने से उसकी माँ भी दुखी होगी। मुझे क्या लाभ ? मैं इतने दिनों से रात्रि में अशोक की माँ का रोना सुनती रहती थी। मैंने उसे बचाने का निश्चय कर लिया। मैंने एक माँ का कर्त्तव्य मात्र किया है।
सभी धन्य-धन्य कह उठे। सरपंच सहित सभी ग्रामवासी चरण छूते हुए बोले - “आज से आप समस्त ग्राम की माँ है, हम सभी आपकी सेवा करेंगे।”
इतने में अशोक भी छूट कर दौड़ा-दौड़ा आया और चरणों में सिर रख कर बोला -“आज से तुम ही मेरी माँ हो। अशोक को तो फाँसी हो गयी। मैं तो तुम्हारा मनोज हूँ।”
अशोक की माँ भी वहीं खड़ी थी। बोली -“सत्य ही है। इसको जीवन दान देने वाली माँ तो आप ही हो।”
और अशोक वहीं रह गया। उसने जीवन भर मनोज की भाँति उसकी सेवा की।
परोपकार से स्वयं का उपकार सहज ही हो जाता है।

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भ्रष्टाचार

एक राजा खजाने की निरन्तर हानि से परेशान था। प्रजा पर कर (टेक्स) बढ़ रहे थे, परन्तु खजाना खाली हो रहा था। एक बार उसने प्रबुद्ध वर्ग का एक सम्मेलन किया और अपनी समस्या रखी।
एक वृद्ध ने बर्फ का बड़ा टुकड़ा मँगाया और अपने हाथ से क्रमशः हाथों-हाथ राजा के पास पहुँचाया। वह बर्फ का टुकड़ा जब राजा के पास पहुँचा तो बहुत छोटे आँवला जितना था।
राजा को समाधान मिल चूका था। उसने अपने मंत्री, कोषाध्यक्ष और कर्मचारियों की जाँच कराई। चोरी पकड़ी गयी, दोषियों को दण्ड दिया गया। उस वृद्ध को ही राजा ने अपना सलाहकार नियुक्त कर दिया। खजाने की आय स्वयमेव बढ़ने लगी।
भ्र्ष्टाचार का उन्मूलन ही समस्याओं का सही समाधान है।

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परिग्रह की असारता

विदिशा में एक व्यापारी था सोमचंद। तीन मंजिला बिल्डिंग थी। नीचे दुकान, बीच में गोदाम और ऊपर आवास था। करोड़ो रुपये एवं माल घर पर ही रहता था।
सुरक्षा के विचार से उसने ऊपर का जीना दीवाल लगा कर बंद कर दिया था। दरवाजों और खिड़कियों को भी रात्रि के समय बन्द करके ताला डाल देता था।
एक रात को माता-पिता कमरे में सो रहे थे। वह पत्नी और इकलौते पुत्र सहित स्वयं अपने कमरे में सो रहा था। लगभग डेढ़ करोड़ रुपये घर में रखे थे। उसी दिन घी का ट्रक आया था। डिब्बे जीने (सीढ़िया) में भी भरे थे। अचानक बिजली का फॉल्ट होने से आग लगी और घर में फैल गयी।
कही से कोई घुस भी नहीं सका। उसने फोन किये परन्तु सब बेकार गये। नीचे भीड़ देख रही थी परन्तु कोई कुछ भी न कर सका। माता-पिता अपने कमरे में तथा पत्नी और बच्चा भी आग में बुरी तरह जल गये और तड़प-तड़प कर मर गये। लगभग (३५) पैंतीस वर्षीय व्यापारी सोमचन्द डेढ़ करोड़ रुपये बचाने के चक्कर में नीचे आया और वह भी जल कर मर ही गया।
आग अत्यन्त कठिनाई से शान्त हो पाई, परन्तु जली हुई बिल्डिंग ‘परिग्रह की असारता’ और दुःख को प्रगट कर रही थी।
सत्य ही कहा है कि गृहस्थ को भी परिग्रह की सीमा अवश्य कर ही लेना चाहिए और परोपकारी कार्यों में खर्च करते रहना चाहिए।
अपनी शक्ति एवं समय को बचाकर, स्वयं भी धर्माराधना करते हुए, इस दुर्लभ अवसर का सदुपयोग कर लेना ही श्रेयस्कर है।

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अंधविश्वास का अन्त

सुमित कॉलेज में पढ़ता था। छुट्टियों में घर आया। उसके छोटे भाई को कई दिन से बुखार चढ़ा था। माँ से वैद्य की दवाई दिलाने के लिए कहा तो वे बोलीं - “दवाई से क्या होगा ? देवी के मंदिर में नारियल, मिश्री और ग्यारह रुपये पुजारीजी को दे आओ। यहाँ तो लोग यही करते हैं।”
उसने कुछ सोचा फिर पोल खोलने के अभिप्राय से बीस रुपये लेकर मित्र के साथ चला। एक नारियल और मिश्री उसने बाजार से खरीदे। मंदिर में पहुँच कर उसने पुजारी को नारियल और मिश्री देते हुए कहा -“उसके छोटे भाई को बुखार चढ़ा है।”
उसने रुपये और माँगे।
सुमित ने कहा - “रुपये नहीं है।”
पुजारी - " बिना रुपये दिये बुखार नहीं उतरेगा।"
सुमित - “तब हमारा नारियल, मिश्री हमें दे दो।”
कह कर उसने नारियल मिश्री उठा ली। पुजारी ने सुमित और उसके मित्र को भला-बुरा कहा, परन्तु दोनों मित्र चले आये। नारियल और मिश्री तो उन्होंने गरीबों के मोहल्ले में बच्चों को बाँट दिए और ५ रुपये एक गरीब विधवा को दे दिए। बुखार की दवा वैद्यजी के यहाँ से छोटे भाई की हालत बताकर ले ली।
घर जाकर माँ से वैसे ही कह दिया कि प्रसाद दे आये हैं और पुजारी ने दवा भी देने के लिए कहा है और छोटे भाई को दवा दी।
तीन दिन में बुखार ठीक हो गया। माँ ने कहा -" सुमित बेटा ! प्रसाद का चमत्कार देखा ?"
सुमित ने कहा - " मैंने प्रसाद दिया ही नहीं था। बुखार तो दवा से ठीक हुआ है। "
यह सुनकर माँ को भी सत्य समझ में आ गया। तब दोनों मित्रों ने गाँव के और लोगों को यह घटना सुनाई और लोगों का अंधविश्वास दूर हुआ।
भगवन्तों की निष्काम भक्ति भी अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए की जाती है। भक्ति में स्वरुप का चिन्तन, हमारे भेदविज्ञान और तत्त्वविचार में निमित्त होता है।
लौकिक कामनाएँ तो हमें मात्र भटकाती ही है। वे तो पुण्योदय में सहज ही पूरी हो जायें तो अलग बात है, परन्तु भक्ति, जप आदि अनुष्ठान करते हुए वे पूरी हो ही जायेंगी, ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए और न ही ऐसी मान्यता बनानी चाहिए

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सम्पत्ति एक, रुप दो

एक सेठ किशनचंद को अपने धन का अत्यन्त अभिमान था। गरीबों की तो वह हँसी उड़ाता रहता। व्यवहार में भी उनका शोषण ही करता। काम कराके पैसे देने में झगड़ा करता। व्यापार में उन्हें ठगता। बेचारे कुछ कह न पाते, परन्तु अन्तरंग में दुःखी होते।
दान भी जहाँ यश मिलता, वहाँ करता। पूजादि अनुष्ठानों में भी प्रदर्शन ही करता और अपनी सम्पदा, व्यापार आदि की वृध्दि की मनौती ही मनाता।
एक दिन रात्रि को घर में सो रहा था। कुछ डाकू आ गये। नाना प्रकार से कष्ट देकर मार गये और धन लूट ले गये। उसका लड़का समीर बाहर रहता था। समाचार सुनकर आया, बचपन में स्वर्गीय दादी के संस्कार थे। पिता को भी वह इन कार्यों से रोकने का प्रयत्न करता था, परन्तु उसकी चलती नहीं थी ; अतः वह अपनी शिक्षा पूरी करके सर्विस करना ही उचित समझकर, शान्तिपूर्ण जीवन चला रहा था।
समीर ने बची हुई सम्पत्ति को वहीखातों के अनुसार संभाला। जिनका देना था, दिया और शेष सम्पत्ति का एक परोपकार ट्रष्ट बना दिया। जिससे उसने अपनी ही दुकानों से एक में धर्मार्थ औषधालय तथा दूसरे में पुस्तकालय एवं वाचनालय खोल दिया और घर में धार्मिक पाठशाला संचालित करवाई।
सम्पदा जहाँ की वहाँ। अपने परिणामों के अनुसार उसका उपयोग होता है, इसलिए सत्य ही कहा है कि -
’ बच्चों को भी सम्पदा और सुविधाओं की अपेक्षा,अच्छे संस्कार देना अधिक आवश्यक है।'

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अंधश्रद्धा

सातवीं कक्षा का एक छात्र सुलभ अत्यन्त उदास था। पढ़ने में ठीक था, परन्तु बीमार हो जाने से अच्छी तरह पढ़ाई न हो पाई। परीक्षा निकट थी। उसका एक सहपाठी बोला -“चिन्ता क्यों करते हो। अपने स्कूल के ही पीछे टीले पर एक देव का थान बना है। वहाँ सोमवार को प्रसाद और रुपये चढ़ाने और प्रार्थना करने से परीक्षा में उत्तीर्ण हो ही जाते है।”
सुलभ उस लड़के की बातों में आ गया और स्वयं तो ऐसा करने ही लगा और भी साथियों से ऐसा ही कह दिया। अनेक लड़के ऐसा ही करने लगे और अध्ययन के प्रति आलसी हो गये।
जब परीक्षा में फेल हुए , तब पोल खुली। उनके अध्यापक ने समझाया कि “अंधविश्वासों में उलझकर हमें पुरुषार्थ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।”
आगामी वर्ष में वे लड़के रुचिपूर्वक पढ़ने लगे और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए।

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सफलता मन्त्र-तन्त्रों से नहीं

ग्यारहवीं कक्षा का छात्र शोभित खेल में भाग लेता। बड़ी लगन से अभ्यास करता और प्रथम स्थान प्राप्त करता था, परन्तु उसके चाचा ने एक ताबीज दे दिया था और तब से वह अपनी सफलता का कारण ताबीज को ही समझता था। उसके पिता का स्थानान्तरण हो गया और वह दूसरे स्थान पर विद्यालय में पढ़ने लगा।
एक बार वहाँ भी प्रतियोगिता में उसने भाग लिया, परन्तु उसके पास ताबीज न होने से वह अत्यन्त घबड़ाया। तब उसका मित्र जतिन उसे अपने पिताजी के पास ले गया। उसके पिताजी ने कहा -“तुम लगनपूर्वक अभ्यास करो। ताबीज की व्यवस्था हम कर देंगे।”
शोभित ने मेहनतपूर्वक अच्छा अभ्यास किया, परन्तु प्रतियोगिता के समय निराश हो रहा था। तभी दौड़ा हुआ उसका मित्र आया और छोटा-सा पार्सल उसे दे दिया। वह अत्यन्त हर्षपूर्वक प्रतियोगिता में सम्मिलित हुआ और सफल हुआ।
जतिन के घर जाकर, जब वह धन्यवाद देने लगा तब मित्र के पिताजी ने पार्सल खोलने को कहा। देखने पर उसमें एक कंकड़ मिला। तब उन्होंने कहा -
"बच्चों इसप्रकार अन्धविश्वासों में नहीं पड़ना चाहिए। सफलता ताबीजादि से नहीं ; लगन, विनय और विशुद्धि से मिलती है। "

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संयुक्त परिवार

एक था बाईस वर्ष का युवक स्वराज। उसका संयुक्त परिवार था। अनुशासन, प्रेम,शील और संस्कृति की मर्यादाओं में सुरक्षित एवं प्रतिष्ठित। युवक के दो बड़े भाई व एक बहिन भी थी। सबका विवाह हो गया था। उनके बच्चे भी थे। एक वर्ष पूर्व स्वराज का भी विवाह एक पढ़ी-लिखी कन्या दामिनी से हो गया था।
उसे छोटा होने से व्यापार में अधिक समय देना पड़ता और दामिनी को गृहकार्य एवं वृद्ध माता-पिता की सेवा में; अतः मौज-मस्ती के लिए समय ही नहीं मिलता और आधुनिक जिन्स आदि पहनने, होटल ,सिनेमा या बाजार घूमने ,काम के समय टी.वी. आदि देखने पर प्रतिबन्ध था। वह मंदिर भी सास या जेठानी के साथ जाती। भोजन भी महिलाएँ अलग करतीं और पुरुष अलग, पहिले कर लेते।
सुविधानुसार स्वाध्याय आदि में भी पहुँचना आवश्यक था। घरेलू कार्यों से दूर, छात्रावास में पढ़ने वाली दामिनी इस वातावरण को अपनी स्वच्छन्दता के लिए बाधक समझती और भीतर-भीतर दुःखी रहती हुई, पति को न्यारे रहने के लिए दबाव डालती। पति भी धन और यौवन के मद में ऐसा ही विचार कर रहा था।
बुद्धि भी भवितव्य के अनुसार हो जाती है, सहायक भी मिल जाते है। इस नियम के अनुसार, उसने इस सम्बन्ध में स्वाध्याय गोष्ठी में प्रवचन करने वाले सदैव गम्भीर और प्रसन्न मुद्रायुक्त प्रौढ़ पंडितजी को एक पत्र लिखकर दिशा-निर्देश माँगा।
पत्र पढ़कर पंडितजी गम्भीर हो गये और उन्होंने पत्र द्वारा ही उसको सम्बोधन किया। संयुक्त परिवार में शील, संस्कृति एवं सम्पत्ति की सुरक्षा रहती है। विनय, सेवा ,वात्स्लय के संस्कार रहते है। लोक-व्यवहार में सुविधा रहती है। सन्तान के जन्म एवं पालन-पोषण में बड़े लोगों के अनुभवों का लाभ मिलता है। विपत्ति के समय में असहायपना नहीं लगता। समाज में प्रतिष्ठा रहती है। दुर्व्यसनों से बचे रहते है, इत्यादि अनेक लाभ है।
एकाकी परिवार में गृहस्थी के अनुभव न होने से कदम-कदम पर गलतियाँ होती है। सन्तान के जन्म एवं पालन-पोषण में अनेक कठिनाइयाँ आती है। बुद्धि स्वार्थी हो जाती है। बड़ो का अनुशासन न रहने से विनय ,वात्सलय ,उदारता आदि गुण नहीं रह पाते ,मात्र मोहवश संकीर्ण विचारों में घुटते रहते है। पुण्य के उदय में तो कुछ होश नहीं रहता ,परन्तु पाप के उदय में किं कर्त्तव्य हो भटकता फिरता है।
भौतिक सुख-सुविधाओं में रहने से अमर्यादित भोग ,खान-पान व वेशभूषाएँ अन्तर की दुर्वासनाओं को उत्तेजित करती रहती है। पति व्यापार में व्यस्त ,बच्चे स्कूल में और पत्नी अकेली घर में होने से ,शील-हरण और चोरी आदि घटनाएँ ,नौकरों व अन्य लोगों के द्वारा होती हुई सुनी-पढ़ी जाती है। रोगादि के समय परिवार वाले ही काम आते है।
अलग रहने पर कहीं भी जाना हो तब घर का ताला लगाकर जाना पड़ता है। बच्चों की समस्या भी बनी रहती है। उन्हें दादा-दादी ,ताऊ,चाचा आदि का दुलार भी नहीं मिल पाता इत्यादि अनेक हानियाँ है।
अनेक पत्रोत्तरों के माध्यम से इन बिन्दुओं पर जब विचार विमर्श हुआ तब अनेक तथ्य स्पष्ट हुए और पत्रोत्तरों को जब स्वराज के साथ-साथ उसकी पत्नी दामिनी एवं परिवारीजनों ने पढ़ा तब उनकी आँखे खुली और एक संयुक्त बैठक में एक-दूसरे की पीड़ाओं को समझते हुए सुधार भी किया और भविष्य की व्यवस्थित रुपरेखा बनाते हुए संयुक्त ही रहने का पक्का मन बना लिया।
परिवारजनों ने उन पत्रों को पण्डितजी से व्यवस्थित और विस्तृत करवा कर उनका प्रकाशन भी कराया। जिससे कर्तृत्त्व के अहंकार ,स्वच्छन्द भोगवृत्ति एवं संकीर्ण विचारों से टूटते हुए परिवारों की भी रक्षा हो सके। भारतीय संस्कृति के ह्रास ,प्रेम-विवाह ,पति-पत्नी के सम्बन्ध-विच्छेद,अनेक प्रकार के दुराचरण,अराजकता, असुरक्षा, बच्चों के उत्पीड़न,वृद्धों की योग्य सेवा-समाधि न होने, रोगों की वृद्धि आदि अनेक समस्याओं का प्रमुख कारण एकाकी परिवार भी है।
निवृत्तिमार्ग में जो संघ का महत्त्व है, वही गृहस्थ जीवन में संयुक्त परिवार का समझना चाहिए और सदैव ध्यान रखना चाहिए कि संघ में शक्ति भी है और सुरक्षा भी।

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दृढ़ संकल्प

एक युवक था विकास। दिन में पचास-साठ सिगरेट पीता था। एक बार माँ के साथ आध्यात्मिक एवं नैतिक गोष्ठी में जाना पड़ा। वहाँ भली होनहार से प्रवचनों की ध्वनि कान में पड़ी और वह बाहर से समीप के कमरे में छिपकर सिगरेट भी पीता रहा, साथ ही प्रवचन भी सुनता रहा। सिगरेट कम पी पाता, प्रवचन का रस कुछ अधिक आने लगा। प्रवचनों में नैतिकता, नशा के दुष्परिणाम,जुआ की बर्बादी, कुसंगकी बुराइयाँ, विकृत साहित्य, टी.वी. सीरियल आदि जैसे विषय भी आये।
सुनते-सुनते उसे अंधकारमय भविष्य, संक्लेशमय कुमरण, पत्नी का वैधव्य, बच्चे का अनाथपना प्रत्यक्ष-सा दिखने लगा।
उसने एकान्त में खूब विचार किया और दृढ़ संकल्पपूर्वक सिगरेट का त्याग कर दिया।
घर आया। शरीर में चक्कर, सिरदर्द के कारण नींद न आने से परेशान हुआ। आँखे सूज गयी, परन्तु साहस न छोड़ा। पत्नी ने धैर्य बँधाया, घरेलू उपचार किये। चिकित्स्क का भी सहारा लिया, परन्तु उसने विपरीत विचार नहीं किया।
विकृतियाँ स्वभाव तो हैं नहीं। प्रभुभक्ति और संयम के बल से धीरे-धीरे सामान्य हो गया। परेशानियाँ भी मिट गयीं और नशा भी छूट गया।
इसीप्रकार दिन में १०० गुटखा तक खाने वाले युवक ने, गुटखा का त्याग करके अपना जीवन बचाया।
विवेक, संकल्प-शक्ति, धैर्य, प्रभु भक्ति, सद्विचार, उचित उपचार व सहयोग आदि से बुराइयाँ छूटना सहज सम्भव है। उनका छूटना असम्भव मानकर निराश कदापि न होवें।

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छोटा पाप -बड़ा फल

नगर के समीप ही एक मन्दिर एवं साधकों के लिए आश्रम बना हुआ था। एक निस्पृही ,शान्तचित्त व त्यागी साधक के सानिध्य में अनेक व्यक्ति धर्म-साधना कर रहे थे। आदर से लोग उन्हें गुरुदेव, महात्माजी आदि नामों से पुकारते थे।
नगर में बाहर के कुछ चोरों ने चोरियाँ प्रारम्भ कर दीं। जनता परेशान हो रही थी। एक दिन तो उन चोरों ने राजकीय खजाने में चोरी की,परन्तु रक्षकों ने देख लिया। चोर भागे और चोरी का माल आश्रम में फेंककर, वहीं -कहीं छिप गये। रक्षकों ने गुरुदेव को पकड़ लिया। न्यायाधीश ने नगर को बढ़ती हुई चोरियों और खजाने की चोरी के कारण जनता को उत्तेजित देखते हुए,शीघ्रता में शूली की सजा सुना दी।
जल्लाद उन्हें शूली के स्थान पर ले गये। गुरुदेव ने तो मौन ले लिया और उपसर्ग दूर होने पर ध्यानस्थ हो गये, परन्तु जल्लाद द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी शूली अपना कार्य नहीं कर रही थी। खड़ी हुई भीड़ भी आश्चर्य से देख रही थी। न्यायाधीश को समाचार मिला, उन्हें लगा कि गुरुदेव निरपराधी है। भूल मेरी हुई है। उन्होंने पहुँच कर क्षमा माँगी।
चोरों को ये जानकर अत्यन्त पश्चत्ताप हुआ। उनका भी ह्रदय बदल गया। उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया और भविष्य में चोरी न करने की प्रतिज्ञा कर ली। चोरी का माल लाकर रख दिया, जो जनता को वापस मिल गया।व्यक्ति ने प्रश्न किया- “गुरुदेव के निरपराधी होने पर भी इनको कष्ट क्यों हुआ ?”
वहीं खड़े एक निमित्तज्ञानी ने समाधान किया -“गुरुदेव ने पाँच वर्ष की आयु में एक तितली को काँटे से पकड़ा था। बाद में माँ के समझाने पर उसे छोड़ भी दिया और प्रायश्चित स्वरुप उस दिन भोजन भी नहीं किया था.उसी का परिणाम यह उपसर्ग था।”
सभी ने पूछा-“अज्ञान में हो जाने वाले छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा ?”
गुरुदेव बोले_" पाप तो पाप ही है। पशु, पक्षियों, असमर्थों और सरल लोगों को कष्ट देने से तो विशेष पापबन्ध होता है।
जैसे अज्ञानवश अग्नि में हाथ डालने से भी जलते ही हैं, जहर खाने से मरते ही हैं; अतः सर्वप्रथम जीवों को अध्यात्म और अहिंसादिरुप सच्चे धर्म की शिक्षा देना चाहिए।"

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मधुर वचन

यशोवर्द्धन एक निर्धन,बेरोजगार,परन्तु सरल स्वभावी युवक था। वह नौकरी के लिए राजा के यहाँ गया। यद्यपि राजा को आवश्यकता नहीं थी, फिर भी उसकी सरलता और बातचीत के ढंग से प्रभावित होकर उसे रख लिया और स्वयं को पानी पिलाने का कार्य सौंपा। वह भी अत्यन्त निष्ठापूर्वक अपना कार्य करने लगा। एक बार राजा बाहर भ्रमण के लिए गया। रास्ते में पानी समाप्त हो गया। वह पानी के लिए शीघ्रता से आगे चलता हुआ एक गाँव में पहुँचा। लोगों ने बताया यहाँ एक मीठे पानी की बावड़ी है, परन्तु वहाँ एक राक्षस रहता है और वहाँ से कोई जीवित नहीं लौटता। इष्ट का स्मरण करता हुआ युवक मृत्यु की परवाह न करता हुआ वहाँ पहुँचा। उसने स्वयं पानी पिया और कलश में पानी लेकर चलने लगा। तभी वह राक्षस हाथ में एक टेड़ी,लम्बी,लटकती हुई लकड़ी दिखाकर बोला- “पहले यह बताओ कि मेरे हाथ में यह शस्त्र कैसा लग रहा है ?”
यशोवर्द्धन- “राक्षस देव !अत्यन्त सुन्दर। इसे मैं इन्द्र का वज्र कहूँ या भीम का गदा, इसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।”
राक्षस प्रसन्न होता हुआ बोला- “तुम्हारे मिष्ट वचनों से मैं अत्यन्त प्रभावित हूँ। तुम पानी तो ले ही जाओ,एक वरदान भी माँग लो।”
युवक ने कहा- “गाँव में पानी के लिए लोग परेशान होते हैं। आप किसी को पानी के लिए रोंके नहीं,ऐसा मेरा विनम्र निवेदन है।”
राक्षस-" क्या कहूँ ?यह प्रश्न मैं सबसे करता हूँ परन्तु उनके कटु उत्तर से मेरा चित्त खिन्न हो जाता है। अब मैं किसी को नहीं रोकूँगा। तुम्हें कभी कोई आपत्ति आये तो स्मरण करना।"
यशोवर्द्धन ने गाँव में आकर सबसे कहा_ “अब पानी सबको मिलेगा,परन्तु कठोर अपशब्दों को बोलने का सभी त्याग करें।”
गाँव वाले प्रसन्न हुए। वे उससे भोजन का आग्रह करने लगे,परन्तु कर्त्तव्यनिष्ठ उस युवक ने शीघ्रता से जाकर सर्व प्रथम राजा को जल पिलाया।
राजा ने समस्त घटना को सुन कर उसकी अत्यन्त प्रशंसा की और उसे अपना अन्तरंग सलाहकार बना लिया।

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महामहिम शुद्धात्मा

गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूर्ण करके घर आये हुए पुत्र की योग्यता को देखकर पिताजी अत्यन्त प्रसन्न हुए, परन्तु अभिमान को देखकर दुःखी।
उन्होंने पुत्र से कहा- “बेटा !उसका नाम बताओ,जिसके जानने पर अन्य कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती और जिसके ज्ञान से ही सर्व का ज्ञान हो जाता है।”
पुत्र- “पिताजी !ऐसी तो कोई वस्तु नहीं है।”
पिता- “बेटा !वह निज शुद्धात्मा है,जिसके जानने पर ऐसी तृप्ति होती है कि अन्य वस्तु को जानने की अभिलाषा ही नहीं रहती। निजात्मा की आराधना के फल से ही जीव स्वयं वीतराग,सर्वज्ञ और अनन्त सुखी परमात्मा बन जाता है।”
पुत्र को अपने आत्मज्ञान से रहित ज्ञान की असारता भासित हुई। उसका अभिमान गल गया और वह लग गया अध्यात्म के अभ्यास में,आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए।

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देश भक्ति

कॉलेज के समीप एक विधवा स्त्री रहती थी। उसके पति तथा पुत्र शत्रुओं के आक्रमण करने पर देश की रक्षा करते हुए शहीद हो गये थे। देशभक्ति उसके हृदय में भी कूट-कूट कर भरी हुई थी।
घर बड़ा था। उसने घर पर गायें पाल रखी थीं। दूध बेचकर,संतोष-पूर्वक वह अपनी आजीविका चला रही थी। घर के कमरे में कुछ छात्र बाहर से आकर किराये पर रह लेते थे। उनका भोजन भी वह स्वयं एवं अपने ही पड़ोस के सद्गृहस्थ के सहयोग से बना देती थी।
एक बार एक छात्र ने उससे कहा- “माँ !आपको आर्थिक परेशानी रहती है, उसका एक सरल उपाय है कि आप दस लीटर दूध में एक लीटर पानी मिला दिया करें।”
वह स्त्री उसे धिक्कारते हुए बोली- “मेरा कमरा खाली करके अभी चले जाओ। मुझे ऐसा धन नहीं चाहिए। मैं अपने नगरवासियों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकती। ऐसी खोटी सलाह देने का तुम्हें साहस कैसे हुआ ? दया दिखाने के नाम पर तुम मुझे बेईमानी सिखाते हो। तुम ऐसी शिक्षा ग्रहण कर रहे हो ! धिक्कार है तुम्हारी बुद्धि को।”
छात्र ने पैर पकड़ते हुए क्षमा माँगी और भविष्य में कहीं और कभी बेईमानी न करने की प्रतिज्ञा की। तभी उस महिला ने उसे वहाँ रहने दिया।
घर आने पर पिताजी एवं अन्य लोगों को यह घटना अत्यन्त गौरव से बताई और एक प्रेरक प्रसंग लिख कर उसे प्रकाशित एवं प्रसारित भी कराया।

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आदर्श माँ

एक स्त्री के एक लड़का था। पति का देहावसान हो चुका था। लड़के को शिक्षा के साथ ईमानदारी,सेवा व विनय,परोपकार आदि के संस्कार देने का प्रयत्न किया। लड़के ने भी लगनपूर्वक शिक्षा पूर्ण की और नौकरी खोजने लगा।
एक मित्र के पिताजी ने सहयोग किया। नौकरी तो मिल गयी,परन्तु बड़ी रिश्वत देनी पड़ी। लड़का उलझन में पड़ गया। उसने माँ को कुछ न बताया और नौकरी करने लगा और समझौता करते हुए उस रकम को चुकाने के लिए स्वयं भी रिश्वत लेने लगा।
धीरे-धीरे वह बड़ा अधिकारी बन गया। रकम तो चुक गयी,परन्तु उसकी रिश्वत की आदत ही बन गयी। विवाह हो गया हो गया। अपनी पत्नी,बच्चों के साथ बाहर ही रहना होता था। भय के कारण माँ के पास आना भी कम ही होता था।
माँ को किसी प्रसंगवश उसकी रिश्वत लेने की आदत मालूम हो ही गयी। उसने समझाने का प्रयत्न भी किया। उसके द्वारा भेजी जाने वाली सहयोग राशि भी लेने से इन्कार कर दिया।
पुत्र अन्तरंग में कभी-कभी दुःखी भी होता,परन्तु रिश्वत के त्याग का साहस नहीं कर पता था।
वृद्धा माँ बीमार हुई। पड़ोस के लोग उसे अस्पताल ले गये। पुत्र को खबर दी गयी। वह भी आ गया। डॉक्टर ने खून के लिए कहा। पुत्र आगे आया, परन्तु वृद्धा ने पूरी शक्ति से कह दिया-“डॉक्टर मुझे मर जाने दो, मुझे भ्रष्ट अधिकारी का खून नहीं चाहिए। अब मुझे चिकित्सा की भी आवश्यकता नहीं है। घर ले चलो। साधर्मीजनों के सानिध्य में सल्लेखना करुँगी।”
पुत्र का हृदय बदल गया। आँखो से आँसू बह रहे थे। माँ के चरण पकड़ते हुए रिश्वत न लेने की प्रतिज्ञा की। माँ को घर लाया। छुट्टियाँ लेकर माँ की सेवा की। साधर्मीजनों ने सम्बोधा और अत्यन्त उल्लासपूर्वक देह से भिन्न आत्मा का ध्यान करती हुई वह माँ, देह को छोड़ स्वर्गवासी हुई।
लड़के ने माँ की स्मृति में एक ट्रस्ट बनाया और उसके द्वारा वह आगे बढ़ता ही रहा। असमर्थों का सहयोग तो उस ट्रस्ट का प्रमुख कार्य था। उसे अपने बचपन के दिन एवं माँ का चेहरा सदैव याद रहता था।

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परिवर्तन

सेठ रामस्वरुप के पुत्र मनोहर ने एम.बी.ए. तक शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा पूर्ण हो ही पाई थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परिवार का भार सिर पर आ गया। पिताजी का जमा-जमाया हुआ व्यापार ही आगे बढ़ाने का निश्चय किया। समझा और जुट गया। व्यापार तो काफी फैल गया, परन्तु व्यस्तता बहुत हो गयी। शान्ति से भोजन करने तथा माता, पत्नी व बच्चों के लिए समय भी नहीं निकल पाता था।
एक दिन माँ ने कहा - “बेटा ! दस-पन्द्रह मिनट के लिए तो मेरे पास बैठ जाया करो।”
बेटा - “माँ !आपको तकलीफ ही क्या है ? दान, पुण्य के लिए कोई रोक नहीं है, धर्म-ध्यान करो। पड़ोस में बैठ आया करो। मंदिरजी में समय लगाओ। मुझसे समय की अपेक्षा मत रखो।”
ऐसा कहते हुए वह ऑफिस निकल गया।
माँ की आँखों से आँसू निकल पड़े, परन्तु धन की दौड़ में अन्धे होकर दौड़ने वाले उस युवक को वे आँसू कहाँ दिखे ?
एक दिन पत्नी ने कहा -“आज छुट्टी है, मुझे शहर के मंदिरों के दर्शन करा लाओ। कुछ बाजार से सामान भी लाना है।”
युवक - “गाड़ी ले जाओ। रुपये ले जाओ। मुझे समय नहीं है, एक मीटिंग में जाना है।”
पत्नी - “शादी क्या धन से हुई है। तुम्हें कभी समय भी है ? ऐसे धन का क्या करोगे ?”
एक दिन बच्चे बोले - “पिताजी आपका फोटो अख़बार और टी.वी. में दिखता रहता है, परन्तु आपके तो दर्शन भी दुर्लभ है। आज तो आप हमें प्रदर्शनी दिखा दीजिये।”
युवक - " ( हँसकर ) माँ और मित्रों के साथ चले जाओ। मुझे जाना है।"
पड़ोस में पड़ोसी के दादाजी का देहावसान हो गया, परन्तु उसे समय कहाँ जो संवेदना व्यक्त करने जाता ?
तृष्णावश वह शुष्क-सा होता गया। प्रेम, वात्सल्य और व्यवहार-शून्य जीवन कब तक चले। धीरे-धीरे टेंशन रहने लगा। नींद न आने से पर्याप्त विश्राम न मिलने और शान्तिपूर्वक सात्विक भोजन न हो पाने से एसीडिटी आदि रहने लगे। ब्लडप्रेशर आदि हो गये। डॉक्टरों ने भी व्यापार सीमित करने और दिनचर्या व्यवस्थित करने की सलाह दी।
भली होनहार से एक दिन माँ व पत्नी-बच्चों सहित तीर्थयात्रा के लिए गया हुआ था। वहाँ वंदना से लौटकर आते समय प्रवचन सुनने का सुयोग बन गया। गृहस्थ जीवन में भी शान्ति के लिए -
- परिग्रह का परिमाण कर ही लेना चाहिए।
- ज्ञानाभ्यास के बिना, कषायें घटना भी सम्भव नहीं है।
- सुख आत्मा में है , निवृत्ति है। भोगों से तो तृष्णा ही बढ़ती है।
- एक दिन समस्त चेतन-अचेतन परिग्रह छूटना निश्चित है। समय रहते चेत जाना चाहिए।
- अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-बल और प्रभुता से सम्पन्न भगवन्तों का जीवन ही आदर्श है।
- परद्रव्यों का स्वामित्व, कर्त्तव्य आदि मिथ्या है
- मिथ्यात्व और कषायों के मिटे बिना दुःख नहीं मिटता इत्यादि अमृत वचनों को सुनते हुए उनका रहस्य तो समझ में विशेष नहीं आया, शान्ति अवश्य मिली।
वंदना से शारीरिक थकान और प्रवचनों से मन को विश्रान्ति मिलने से खूब नींद आयी। प्रातः शीघ्र उठकर प्रवचन सुनने का उल्लास था। स्नानादि से निवृत्त हो वन्दना कर प्रवचन सुने। तीन दिन के कार्यक्रम में ही विचारधारा बदलने लगी।
माँ, पत्नी, बच्चों से क्षमा माँगते हुए, देवदर्शन, स्वाध्याय एवं व्यापार सीमित करने का नियम बनाया।
घर आये, एक समाधान और शान्ति लेकर। अब घर का वातावरण ही बदल गया था।
शीघ्र उठना, दर्शन-पूजन-स्वाध्याय, समय पर भोजन, परिवार के साथ-साथ भी भक्ति, पाठ, स्वाध्याय के साथ ही आत्मनिरीक्षण सहित सामायिक का अभ्यास।
सम्पदा को असार समझते हुए उसे पात्रदान एवं परोपकार में लगाने की योजना भी बनायी। निवृत्तिपूर्वक समाधि का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।
रोग, टेंशन आदि स्वयमेव दूर हो गये। सत्य ही कहा है -
जिनरुप ही देखने योग्य है।
जिनवचन ही सुनने योग्य है।
जिनभावना ही भाने योग्य है।

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कृतज्ञता

दो भाई जिनेश और दिनेश अपना-अपना व्यापार करते हुए, एक ही घर में ऊपर रहते थे। भोजन अलग-अलग बनता। माता-पिता कभी ऊपर कभी नीचे सहजता से भोजन कर लेते थे। पिता का देहावसान हो गया। माँ अकेली रह गयी। छोटे भाई के बच्चे छोटे थे अतः माँ प्रायः छोटे भाई के पास नीचे ही रहती थी। दोनों भाइयों ने कहा कि माँ को कुछ राशि देना चाहिए। व्यवहार में लेन-देन के लिए, दो-दो हजार मासिक दोनों भाई देते रहेंगे और वे ऐसा ही करने लगे।
एक रात्रि में लेटे-लेटे बड़े भाई जिनेश को विचार आया कि जिस माँ ने हमें बिना हिसाब रखा, हमारा पालन-पोषण किया, मनमाना खर्च दिया,उस माँ को हम उसकी वृद्धावस्था में मात्र दो-दो हजार निश्चित वेतन की तरह दें, यह ठीक नहीं, कृतज्ञता नहीं है।
उसी समय उठा और अलमारी से नोटों की गड्डियाँ थैले में बिना गिने लेकर माँ के पास नीचे कमरे में पहुँचा। चरणों में सिर और थैला रखकर बोला- "माँ ! भूल क्षमा करें। अलमारी की चाबी ऊपर ही रखी रहती है। मुझसे पूछने की जरुरत नहीं है, आप स्वयं निकाल लेना।
आपके उपकारों का बदला चुकाने में तो मैं सब प्रकार असमर्थ ही हूँ। जब कमाने में सीमा नहीं, तब तुम्हें देने की सीमा क्यों रखूँ ? फिर कभी माँ की पेटी खाली नहीं रह पायी। वह देखता और बिना कहे ही और रख देता।
माँ भी सहजता और संतोष से धर्मध्यान में लगी हुई, अपनी आयु पूर्ण कर स्वर्गवासी हुई।
गुरुजनों को मात्र सामग्री एवं साधन दे देना ही पर्याप्त नहीं है; उन्हें आदर, सेवा और समय भी देना जरुरी है।
छोटे से उपकार के प्रति भी जिसमें अहोभाव नहीं आता, कृतज्ञता नहीं वर्तती, वह हृदय नहीं, पत्थर ही समझना।
सद्गृहस्थ के लिए (लौकिक दृष्टि से ) पिताजी घर का मस्तक है और माँ हृदय।

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संस्कारहीन शिक्षा

एक संस्कारित परिवार की अबोध कन्या थी। घर में धार्मिक संस्कार मिलने से उससे पिताजी कभी पूछते-“तुम्हें कैसा बनना है ?” वह सहजता से कह देती- “सीता माता जैसी।”
कुछ बड़ी होने पर शहर के कॉलेज में पढ़ने गयी। आधुनिक परिवेश, शील की हँसी उड़ाने वाले स्वच्छन्द साथियों का वातावरण। मन विकृत करने वाले अखबार, पत्रिकायें, टी.वी. के अश्लील सीरियल आदि। पापों को छिपाने वाले समस्त कुसाधनों की जानकारी भी सहज ही हो गयी।
जिस-तिस प्रकार शिक्षा पूर्ण कर किसी विदेशी कम्पनी में नौकरी करने लगी और वहीं किसी सहकर्मी के प्रेम में फँस कर जीवन बर्बाद हो गया। कुछ दिनों बाद एड्स की बीमारी हो गयी। नौकरी छूट गयी।
घर लौट आयी। लज्जा के कारण बाहर मुख भी नहीं दिखा पाती और तड़प-तड़प कर मर गयी।
सत्य है, सुसंस्कारों के बिना शिक्षा भी क्लेश का ही कारण है।

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दुर्व्यसन

सोमेश को कुसंग के कारण नशे की आदत पड़ गयी। तम्बाकू, गुटखा खाये बिना चैन नहीं पड़ता था। पढ़ा-लिखा भी कम था। मध्यम परिवार का वह युवक सामान्य सी आजीविका करता था। शादी हो गयी और एक बच्चा भी था। सामान्य रुप से ठीक चल रहा था। परन्तु तम्बाकू के सेवन से धीरे-धीरे सोमेश के मुख में कैंसर हो गया।
आजीविका बिगड़ गयी। माता-पिता पहले ही शान्त हो गए थे। कैंसर अस्पताल में भर्ती सोमेश की पत्नी को डॉक्टरों ने कह दिया कि जीवित रहना सम्भव नहीं है।
सोमेश बच्चे पर प्यार से हाथ फेरते कह रहा है- “बेटा !मैं भगवान के पास जा रहा हूँ। तुम मम्मी के साथ में आराम से रहना।”
बच्चा अपनी माँ से कहता है - “मम्मी ! पापा को हम भगवान के पास नहीं जाने दे तो !”
स्त्री प्यार से उसे गोद में ले लेती है, परन्तु अन्तव्यर्था किससे कहे ?
एक दिन पत्नी और बालक को विलखता हुआ छोड़कर सोमेश चला ही गया।
बचपन के सुसंस्कारों के बल पर स्त्री ने धैर्य धारण किया। अपने एक भाई को अपने पास बुला लिया। आजीविका की व्यवस्था कर, बच्चे को संस्कारित एवं शिक्षित करने में जुट गयी। बच्चे की आँखो के सामने, पिता के वियोग का वह दृश्य, कभी-कभी आ ही जाता था। बड़े होकर उसने अपने साथियों की एक समिति बनाई और नशा, जुआ, कुशील आदि दुर्व्यसनों के विरुद्ध अभियान प्रारम्भ कर ही दिया। सज्जनों का सहयोग मिला और अभियान प्रगति की ओर बढ़ता ही गया।
क्या हम भी इसप्रकार के अभियानों को संचालित कर सकेंगे, सहयोगी बन सकेंगे ? इसप्रकार के उत्पादनों एवं व्यापारों के त्याग की शपथ ले सकेंगे ?

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सच्ची दया

महानगर के फुटपाथ के किनारे बैठी एक भिखारिन की गोद में बैठे बच्चे की हाथ-पैर की अंगुलियाँ जली हुई थी। राहगीर दया से द्रवित होकर उसे कुछ न कुछ दे ही देते थे।
एक राहगीर ने पूछा- “बच्चे की अंगुलियाँ कैसे जल गयीं ?”
उसकी सज्जनता से प्रभावित होकर भिखारिन बोली- “स्वयं थोड़ी-थोड़ी जला दी हैं। पहले मुझे भीख मिलने में परेशानी होती थी। अब भीख आसानी से मिल जाती है।”
धिक्कार है ! ऐसी कुबुद्धि को, क्रूरता को और ऐसी मिथ्या-दया के प्रदर्शन को, जिसके कारण कितने ही बालकों का अपहरण होता है, उन्हें अमानवीय अत्याचारों का शिकार होना पड़ता है, किसी के पैर तोड़े जाते है, किसी को अंधा किया जाता है और दयनीय तरीके सिखाए जाते हैं, फिर उनसे भीख मँगवाई जाती हे, जिसमें से उन्हें मात्र भोजन आदि ही मिलता है। उसका लाभ स्वार्थी अराजक लोग उठाते हैं। काश ! उन्हें पता होता कि दुष्कृत्यों का फल जीव स्वयं ही भोगता है।
वह राहगीर सम्पन्न, विवेकी और दयालुवृत्ति का था। उसने उस स्त्री से कहा कि वह भिक्षावृत्ति के निकृष्ट धंधे को छोड़कर उसके साथ चले। वह उसे अपनी फैक्टरी में आजीविका दिला देगा और बच्चेको शिक्षित करेगा।
भिखारिन की भली होनहार थी। उसने उसकी बात मान ली और उसके साथ चली गयी। उसने अपनी फैक्टरी में उसे नौकरी दे दी और रहने को कोठरी। बच्चे को बड़ा होने पर स्कूल भेज दिया।
वह भिखारिन से मजदूरिन हो गयी। प्रसन्न रहने लगी। समय जाते क्या देर लगती है ? लड़का पढ़ाई भी करता रहा और अतिरिक्त समय में फैक्टरी में काम भी कर लेता। धीरे-धीरे वह फैक्टरी का ही मैनेजर बन गया। सेठजी के उपकार को सदैव याद रखता और सेठजी के सहयोग से उसने एक आश्रम बनाया, जहाँ असहायों को आजीविका एवं उन्नति के अवसर दिए जाते।

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