लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

शील रक्षा

विद्या अपनी शिक्षा पूरी कर नगर के माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका बन गयी। सादगीपूर्ण रहन-सहन था। अपने कार्य को ईमानदारी से करने का प्रयत्न करती। बच्चों को विषय की शिक्षा के साथ ही समय-समय पर नैतिक शिक्षा भी देती रहती थी। गाँव वाले भी बच्चों में स्वच्छता, विनय, सेवा, परोपकार के संस्कारों को देखकर प्रसन्न होते और पीठ पीछे कहते - “हम लोगों के भाग्य से विद्या जैसी अध्यापिका गाँव में आ गयी है।”
एक दिन बस में जाते हुए हरे-भरे खेतों की ओर खिड़की से देखती हुई आ रही थी। कुछ दूर पर देखा कि एक लड़की को कुछ लड़के खेत की ओर पकड़ कर ले जा रहे हैं। उसने तुरंत ड्रायवर से कह कर बस रुकवायी। उतर कर देखा-लड़की के मुख में कपड़ा ठूँस दिया है। लड़के देखते ही भागे, परन्तु उसकी ललकार से यात्रियों ने भाग कर उन्हें पकड़ ही लिया। यात्री मारने लगे, परन्तु उसने उन लड़को को भी बचाया।
लड़की को तो सांत्वना देकर अपने पास बैठा ही लिया। समीप के गाँव के लोग भी आ गये। उसने उन लड़कों को अच्छी तरह समझाया- “इस पाप के विचार मात्र से रावण की क्या दशा हुई ? तुम लोग स्वयं विचार करो।”
लड़के भी शर्मिन्दा होकर क्षमा माँगने लगे। उन्होंने अध्यापिका दीदी एवं उस लड़की के पैर छूकर शील की प्रतिज्ञा की कि हम जीवन-पर्यन्त सभी महिलाओं का योग्य सम्मान एवं सुरक्षा में सहयोग करेंगे। उनके साथ अपनी माता, बहिन एवं पुत्री जैसा ही सद् व्यवहार करेंगे।
कुछ लोग आक्रोश में उन्हें थाने ले जाकर सजा दिलाने के लिए उद्धत थे, परन्तु विद्या ने कहा - "भूल सुधारने के लिए क्षमा करते हुए अवसर प्रदान करना ही श्रेयस्कर है।"
बस तो चली गयी थी। गाँव के मुखिया और वे लड़के स्वयं उन्हें अपनी गाड़ी से उनके गन्तव्य पर छोड़ने गए और उससे गाँव में अपने ही सानिध्य में नैतिक शिक्षा शिविर लगाने की प्रार्थना की। जिसे दीदी ने सहर्ष स्वीकार कर ली।
दूसरे दिन अख़बारों में छपा - 'आज भी ऐसे लोग हैं।'

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संयम की सुगन्ध

२५ वर्षीया रागिनी की शादी को अभी लगभग एक वर्ष ही हुआ था। अचानक उसके पति की मृत्यु हो गई और वह विधवा हो गयी। उसके सास-ससुर भी दूसरे विवाह के लिए आग्रह करने लगे, परन्तु रागिनी ने अत्यन्त विनय और दृढ़ता से कहा- “स्त्री का जीवन में एक ही पति होता है। मेरा ह्रदय किसी अन्य को पति के रुप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। अब तो मैं आप लोगों के संरक्षण में संयमी जीवन बिताना चाहती हूँ। आप भी मुझे पुत्री समझें। बुढ़ापे में मैं आपकी सेवा करुँगी और समाधि भी कराऊँगी।”
सास ने दूसरे पुत्रों और बहुओं के मोह में मना किया, परन्तु ससुरजी ने स्वीकार कर लिया। वह प्रातः शीघ्र उठती। इष्ट-स्मरण कर दैनिक-चर्या, घर की सफाई आदि, पशुओं की सेवा और व्यवस्था करके मंदिरजी पहुँच जाती। वह दर्शन, भक्ति, स्वाध्याय और मंदिरजी की वैयावृत्ति आदि करते हुए प्रसन्न रहती। भोजन और घरेलू कार्यों में सहयोग कर, पुनः स्वाध्याय भवन पहुँच जाती। रात्रि को धार्मिक पाठशाला, मंदिरजी में स्वाध्याय में जाती।
दिन बीत रहे थे। घर में अन्य सदस्यों को धार्मिक रुचि न होने से वे लोग रात्रि को भी देर तक टी.वी. तेज स्वर में चलाते। घर छोटा था। उसे अच्छा न लगता, परन्तु सहन करती; फिर भी ताने मिलते। घर के कामों से इसे क्या ? ये तो दिन-भर मन्दिर में ही बनी रहती है।
सासूजी भी अन्य बहुओं की तरह बोलती। मन कभी दुःखी हो जाता।
एक दिन मन्दिर में कुछ उदास बैठी थी। स्वाध्याय गोष्ठी की एक वृद्धा माताजी ने स्नेह से कारण पूछा तो उसे रोना आ गया। उसकी अन्तर्व्यथा को सुनकर, उन माताजी ने अपने पति से कहा- “एक महिलाश्रम बनवाना है, जहाँ संयम की भावना वाली कन्याएँ, विधवाएँ और वृद्धाएँ सभी धर्मध्यान कर सकें।”
पति भी सम्पन्न, उदार, वात्सलयभावी प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उन्होंने कुछ साधर्मी भाइयों को बुला कर विचार-विमर्श किया और एक ट्रस्ट बनाया। मन्दिरजी के समीप वाली अपनी ही जमीन पर एक महिलाश्रम एवं एक विद्यालय व एक औषधलय आदि बनाने का निर्णय ले लिया।
समाज की एक मीटिंग बुलाई और सबकी सहमति से एक भव्य आयोजन कर, उसका शिलान्यास कर, पहले एक छोटा भवन बनाकर आश्रम प्रारम्भ कर दिया। उन्हीं संस्थापिका माताजी के संरक्षण में रागिनी ने गृहत्याग कर, उस आश्रम का संचालन संभाला। कृत्रिमता और प्रदर्शन से दूर उस आश्रम में प्रारम्भ में तीन वृद्ध महिलायें, तीन विधवाएँ और दो बाल ब्रह्मचारिणी बहिनें आयी। धीरे-धीरे वहाँ के वातावरण को देखते हुए अन्य महिलायें भी वहाँ रहने लगीं। धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ वहाँ आजीविका के लिए एक सिलाई-कढ़ाई केन्द्र, संगीत, पेन्टिंग आदि की कक्षाएँ प्रारम्भ की गयीं।
उत्साही ट्रस्टियों एवं समाज के सहयोग से वह संस्था आस-पास के क्षेत्र के लिए आशा का केन्द्र बन गया। धीरे-धीरे वहाँ घरेलू उपयोग की शुद्ध सामग्री भी तैयार होकर बिकने लगी। अनेक लोगों को इससे रोजगार भी मिला। समीप ही दूसरी जमीन लेकर उसका विस्तार होता गया।
महिलाओं का परिसर धार्मिक कार्यक्रमों से गूँजता रहता। प्रातः ४ बजे से रात्रि के दस बजे तक वहाँ गतिविधियाँ चलती ही रहती। आर्थिक व्यवस्था सहयोगी औद्योगिक संस्थान एवं समाज के सहयोग से सहज ही चलने लगी।
वे माताजी एवं बहिन इसे देख-देखकर अत्यन्त संतुष्ट होतीं, परन्तु गहन तत्त्वाभ्यास के बल से इन व्यवस्थाओं से विरक्त-सी रहती।
अन्त में उन माताजी एवं उनके पति भी सर्वस्व समर्पणपूर्वक समाधि को प्राप्त हुए।
आज भी उनकी यशोगाथा वहाँ गूँजती-सी लगती है। रागिनी ने विरागिनी होकर अपनी दृढ़ता एवं लगन से अनेक महिलाओं के लिए राग से विराग का द्वार खोल दिया।
धन्य है ऐसी संयम की भावना, विवेक एवं समर्पण बुद्धि को।

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नीयत का कमाल

रामलाल एक गरीब दुकानदार था। गाँव में संतोषपूर्वक अपनी आजीविका करता था। उसकी ईमानदारी की चर्चा गाँव के बाहर भी होती रहती थी। भक्ति व परोपकार की भावना से उसका अंतरंग भरा हुआ था। दूसरों की भलाई के लिए न उस आलस था और न अपने नुकसान की परवाह।
एक बार अधिक वर्षा के कारण उसकी दुकान गिर गयी। आजीविका बिगड़ गयी। उसने पास के ग्राम के एक सज्जन सेठ से पाँच हजार रुपये माँगे। उसकी ईमानदारी से परिचित उन सज्जन ने बिना लिखे ही एक वर्ष में लौटाने की बात कहकर उसे रुपये दे दिये।
रास्ते में मन में खोटा भाव आ गया कि सेठ ने रुपये बही में तो लिखे नहीं। वह रुपये नहीं लौटायेगा।
चलते-चलते वह नदी के समीप स्नान के लिए रुका। रुपये की प्लास्टिक की थैली उसने वहीं रख दी। कपड़े पेड़ पर टाँग दिये और नदी में नहाकर, निकल कर देखा तो रुपये की थैली नहीं दिखी। आखिर मिलती कैसे ? उसके ऊपर तो वहाँ घूमती हुई एक भैंस ने गोबर कर दिया था। उससे वह ढक गयी थी।
उसे अपने खोटे भाव पर बहुत पश्चाताप हुआ। उसने पुनः सेठ से रुपये माँगे तो उन्होंने सहज भाव से फिर दे दिये। अब लौटते हुए वह विचार कर रहा था कि किसी प्रकार सेठ के पूरे दस हजार रुपये निश्चित समय पर लौटाऊँगा।
उसी स्थान पर उसके मन में आया एक बार पुनः देख लूँ। तभी उसका पैर गोबर पर पड़ा जिससे गोबर पसरने से वह थैली दिखने लगी। उसने उठाकर धोई। वह पाँच हजार रुपये सेठ को तुरन्त वापस कर आया। शेष रुपये उसने समय पर वापस कर दिये और संकल्प किया कि खोटा भाव कभी नहीं करुँगा।
सत्य ही कहा हे कि अपने भले-बुरे भावों का फल जीव को स्वयं ही भोगना पड़ता है।

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शील

एक थी घास बेचकर गुजारा करने वाली शीलवती युवती सुशीला। एक ताँगे वाला युवक रामू उससे घास खरीदता था। एक दिन उसने खोटे भाव पूर्वक पैसा देते समय उसका हाथ दबा दिया। उसने संकोचवश कुछ कहा तो नहीं, परन्तु वह दूसरे रास्ते से निकलने लगी।
एक दिन वह युवती घास लेकर जा रही थी। रामू ने घास उसे ही देने के लिए कहा। युवती पहले तो झिझकी, फिर तैयार हो गयी। तब उसने आँगन में घोड़े के पास घास डालने के लिए कहा।, परन्तु जैसे ही वह घास डालने अन्दर घुसी, युवक भी उसके साथ भीतर घुस गया और किवाड़ लगाकर उसके साथ कुचेष्टाएँ करने लगा, परन्तु वह युवती खुरपी लेकर आक्रमण कर बैठी। युवक घबड़ा कर गिर पड़ा। उसने तुरन्त खुरपी से युवक की नाक थोड़ी सी काट दी और किवाड़ खोलकर निकल गयी।
युवक उठा, उसने नाक पानी से धोई, उस पर दवा लगाई और अत्यन्त लज्जित हुआ, वह जहाँ भी जाता सब हँसते।
फिर उसने दृढ़तापूर्वक शील की प्रतिज्ञा ही कर ली। अब तो वृद्ध हो चला है, परन्तु आज ताँगा चलाते हुए जब युवक-युवतियों की उत्शृंकल कुचेष्टाएँ देखता है तो उसे वह घटना याद आ जाती है। उसका मन काँप उठता है।

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विवेकपूर्ण उदारता

एक थे सद्गृहस्थ। पुण्योदय से न चाहते हुए भी व्यापार बढ़ रहा था। आध्यात्मिक रुचि होने से लक्ष्मी बढ़ने से हर्ष उतना नहीं होता था, जितना उससे निवृत्ति का भाव।
स्वाध्याय करते समय विचार करते कि - "धनादि सामग्री तो धूल के समान ही हमारे परिणामों को मलिन करने वाली है, अनित्य है। रास्ते में चलते हुए आ जाने वाली वृक्षों की छाया के समान है। जब तक इसका त्याग नहीं हो पा रहा है, तब तक उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए।"
भावना के अनुसार ही एक बार एक ऐसे आध्यात्मतीर्थ पर जाने का सुयोग बना, जहाँ बाह्य धार्मिक रचनायें तो विशेष आकर्षक नहीं थीं। मन्दिर, मुमुक्षु निवास, अतिथिगृह, विद्यालय, छात्रावास, आश्रम आदि अत्यन्त सादगीपूर्ण थे, परन्तु अनेक ब्रह्मचारी भाई, बहिनें, वृद्ध, प्रौढ़, श्रावक, श्राविकाएँ धर्म साधन कर रहे थे। बच्चे भी आकर अध्ययन एवं धार्मिक संस्कार ले रहे थे।
प्रातः ब्रह्ममुहूर्त से रात्रि दस बजे तक वहाँ प्रार्थना, आध्यात्मिक पाठ, तत्त्वचर्चा, सामायिक एवं ध्यान का अभ्यास, पूजा, स्वाध्यायादि कार्यक्रम अत्यन्त व्यवस्थित चलते थे। उनके आवास, भोजन, चिकित्सा आदि की समुचित व्यवस्था थी।
परस्पर में वात्सलय, सेवाभावादि प्रत्यक्ष ही देखने को मिलते थे अर्थात् धर्मचर्चा के साथ यथायोग्य नियम, संयम, वैराग्यभावना भी सहज ही वर्तते थे। चित्त को संतोष हुआ। अल्प प्रवास था।
यह स्थान चंचला लक्ष्मी के सदुपयोग के योग्य तो है ही, जीवन को सार्थक बनाने के लिए भी योग्य है, ऐसी भावना लेकर लौटे।
वहाँ वात्सल्य एवं व्यवस्था तो मिली, परन्तु दानादि की कोई अपील या विज्ञापन भी नहीं था। आश्चर्य हुआ कि इतनी व्यवस्था कैसे चलती होगी ? घर आकर सम्पर्क किया, जानकारी मिली, परन्तु निस्पृहतापूर्वक निवेदन किया - “इस व्यवस्था में मुझे भी सौभाग्य मिल सकता है ?”
उत्तर मिला - " सब आपका ही है, हम तो व्यवस्था के निमित्तमात्र हैं। बच्चा जन्मता है तो माँ के आँचल में स्वयमेव बच्चे के भाग्योदय से दूध आ जाता है। उसी प्रकार सभी के भाग्य से सामग्री स्वयमेव आ जाती है।
आपका व्यापार क्या है ? हम लोग हिंसक एवं निंद्य व्यापार से उपार्जित आय में से दान स्वीकार नहीं करते, जिससे कि साधकों का मन विकृत न हो। सादगी और संतोष ही हमारी साधना का मूल है।"
सुनकर मन प्रसन्न हुआ।
तत्त्वज्ञान के अभ्यास का फल तो निश्चिंतता एवं शान्तता ही है।
उन्होंने एक बड़ी राशि अत्यन्त विनम्रतापूर्वक अहोभाव सहित ट्रस्ट के खाते में डाल दी और भविष्य में भी इसी प्रकार सहयोग करते रहने की भावना व्यक्त की।
प्रसंग को सुनकर लगा कि आज भी ऐसे निस्पृही लोग और उदार दातार हैं, जिन्हें किसी प्रकार के सम्मान की चाह न होते हुए, मात्र अपने धनादि के सदुपयोग की भावना रहती है।
ऐसी भ्रान्ति अविवेकी लोगों को ही होती है कि बिना नाम, सम्मान या प्रदर्शन के धन देने वाले आज नहीं हैं।

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भावों का फल

एक साधक निस्पृह भाव से चले आ रहे थे। रास्ते में गन्ने के खेत, गुड़ बनाने की भट्टियाँ तथा गन्ना और गुड़ से भरी बैलगाड़ियाँ दिखाई दीं। अचानक विकल्प आया, इतनी कैसी भीनी-भीनी गन्ध आ रही है ? कैसा अच्छा व्यापार ? वहीं एक ओर बैठ कर सामायिक करने लगे, परन्तु मन बार-बार गन्ने और गुड़ की भरी गाड़ियों की ओर जा रहा था। उसी समय गति बंध हुआ और वे मरकर बैल बन गये। फिर तो वैसे ही गन्ने और गुड़ से भरी गाड़ी खींचने लगे।
एक दिन उसी रास्ते में विहार करते हुए दिगम्बर मुनिराजों का संघ दिखा। उनके दर्शन करते हुए बैल को भावविशुद्धि हुई तथा जातिस्मरण हुआ। आँखो से टप-टप आसूँ गिरने लगे। अपनी साधक दशा याद आई। परिणामों का फल देखते हुए बाह्य संसार से चित्त भयभीत एवं विरक्त-सा हुआ।
जैसे ही उसे गाड़ी से खोला गया, वह शीघ्रता से मुनिसंघ की ओर भागने लगा। पीछे से उसका मालिक भाग रहा था पकड़ने के लिए।
बैल मुनिराज के समीप ही चरणों में सिर झुका कर बैठ गया। सभी आश्चर्य से देख रहे थे। मालिक ने आकर पुचकारा, परन्तु वह उठने का नाम नहीं ले रहा था। समझ गया कि इसे पूर्वभव का स्मरण हुआ है और यह विरक्त हो गया है।
उसने अनुमोदना करते हुए एक धार्मिक व्यक्ति को साथ में कर दिया जो उसे भोजन-पानी कराता रहता और वह मुनिराज का प्रवचन सुनता और तत्त्वचिन्तन करते हुए अपनी विशुद्धि बढ़ा रहा था।
एक दिन उसी प्रकार धर्मसाधना करते हुए उसने समताभाव-पूर्वक उसकी देह छोड़ दी।
श्रावकों ने और उसके मालिक ने भी स्वयं आकर समीप की बड़ी नदी में अत्यन्त सम्मान-पूर्वक उसकी देह का विसर्जन करके एक सुन्दर शान्ति-विधान का आयोजन किया।

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क्रोध

एक किसान अपने खेत के समीप ही झोपड़ी में रहता था। फसल पक कर तैयार खड़ी थी। वहीं एक कुत्ता प्रायः उसकी रोटियाँ उठा ले जाता, कभी दूध पी जाता। किसान को गुस्सा आता। एक दिन उसने कुत्ते को पकड़कर, पूँछ में कपड़ा लपेटकर, तेल डालकर आग लगा दी और कुत्ते को छोड़ दिया। कुत्ता घबड़ा कर भागा और सरसों की पकी तैयार फसल वाले खेत में घुस गया। सारी फसल जल कर नष्ट हो गयी।
कुत्ता तो भागता हुआ ट्यूबवेल के पास भरे पानी में बैठ गया। उसकी आग बुझ गयी। धीरे-धीरे उसकी पूँछ भी ठीक हो गयी।
किसान को अपने क्रूर परिणामों की सजा मिल गयी।

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प्रयोजन को प्रमुख रखो

एक व्यक्ति आम खाने के लिए बाग में गया। वहाँ माली से पूछने लगा - " १. यह बाग किसका है ? २. इसमें कितने पेड़ है ? ३. कौन-कौन सी जाति है ? ४. कब-कब फल आते हैं?" इत्यादि।
इसी बीच कुछ लोग आये, वे आम खरीद कर ले गये। तब उसने कहा- " कुछ आम मुझे भी चाहिए ?"
माली ने कहा - " अब तो आम समाप्त हो गये और मुझे काम से जाना है। तुम फिर आना। तब से इधर-उधर की बातें क्यों करते रहे? बाग ही देखते रहे।"
उस व्यक्ति को बिना आम लिए ही वापस जाना पड़ा। ठीक ही कहा है - " आम खाना है तब पेड़ गिनने से क्या ?"
इसी प्रकार सामान्य जीव अप्रयोजन विकल्पों में ही उलझे रहते है। मनुष्य पर्याय, सत्समागम आदि की दुर्लभता का ही विचार करते रहते हैं; परन्तु तत्त्वनिर्णय, भेदविज्ञान, स्वानुभव व संयम आदि का उद्यम नहीं करते और पर्याय पूर्ण होने पर संसार सागर में ही गहरे डूब जाते हैं।
अतः सर्वप्रथम प्रयोजनभूत तत्त्वों का निर्णय कर अपना हित कर लेना ही श्रेयस्कर है।

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सद् व्यवहार

एक मार्ग के बीच में सुनसान स्थान पड़ता था। वहीं एक डाकू अपने दो-तीन साथियों के साथ यात्रियों को लूटता रहता था। एक बार वह स्वयं दूसरे गाँव गया। वहाँ उसे रात्रि हो रही थी, गन्तव्य पर पहुँचना सम्भव नहीं था। सोचने लगा- “क्या करूँ ?”
तभी निकट की झोपड़ी से आवाज आई -“आगे जंगल है। यहीं आकर रात्रि विश्राम कर लो।”
वह झोपड़ी में पहुँचा। उस मध्यमवर्गीय सद्गृहस्थ ने उसे प्रेम से भोजन कराया और रात्रि विश्राम की समुचित व्यवस्था दी। रात्रि में उसके घर के सभी सदस्य बैठ कर भगवद्भक्ति एवं भजन गाते और धर्मिक चर्चा करते।
वह व्यक्ति उस वातावरण से अत्यन्त प्रभावित हुआ और सोचने लगा -" मेरा निवास भी तो ऐसे ही स्थान पर है। मैं भी राहगीरों की ऐसी ही सेवा किया करूँगा। जीवन पानी के बबूले की तरह क्षणभंगुर है। खोटे भावों का दुष्फल भी जीव को स्वयं ही भोगना पड़ता है। कुछ अच्छे कार्यों में जीवन लगाऊँ, जिससे संतोष, शान्ति और यश मिले और परलोक भी सुधरे।"
वहाँ से लौटने के बाद वह दृढ़ संकल्पपूर्वक सदभावना सहित यात्रियों की सेवा करने लगा। यात्री भी प्रसन्न होते और उसे कुछ न कुछ दे ही जाते।
एक दिन एक सेठ ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर वहीं धर्मशाला आश्रम आदि बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसके बड़े लड़के को ही उसका प्रबन्धक बनाया गया। छोटे लड़के को वहीं एक दुकान करा दी। धीरे-धीरे वहीं एक स्कूल, चिकित्सालय भी बन गया। एक कॉलोनी बस गयी। वह स्थान अत्यन्त मनोरम लगने लगा। समीप के महानगर से प्रातः सांय वहाँ लोग स्वच्छ वातावरण में घूमने आने लगे।
वह व्यक्ति यह सब देखकर अत्यन्त प्रसन्न होता और दूसरे गाँव वाले सद्गृहस्थ का अति उपकार मानता। उसने उन्हें अपने यहाँ आमन्त्रित कर उनका सम्मान किया तथा उन्हीं सेठ से कह कर, उनके निर्जन स्थान का भी अच्छा विकास कराया।
सत्य ही कहा है -
१. लौकिक उन्नति भी सद्गुणों और सद् व्यवहार से होती है।
२. निस्पृह भाव से किया हुआ उपकार व्यर्थ नहीं जाता।
३. सद् व्यवहार से दुर्जन भी प्रायः सुधर जाते हैं।
वह व्यक्ति पहले के जीवन में गतिबन्ध हो जाने से मर कर कुत्ता बना। दूसरे कुत्ते उसे परेशान करते, उसका भोजन भी छीन लेते और भौंक-भौंक कर भगाते रहते।
एक रात्रि एक सेठ की हवेली में चोर घुस रहे थे। यह देख वह कुत्ता जोर-जोर से भौंकने लगा। लोग जाग गये और चोर भाग गये। सेठ ने यह देख उस कुत्ते को पाल लिया और बड़े प्यार से वे उसे अच्छा भोजन कराते, स्नानादि कराते। वह कुत्ता भी अत्यन्त शान्त हो गया और मरकर सेठ के घर में ही पौत्र के रुप में जन्म लिया।
सत्य ही है कि जीव अपने परिणामों से ही दुःखी-सुखी होता है।

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करुणा

एक था राजकीय उद्यान, जिसमें सैंकड़ो शाकाहारी जानवर-हिरन, खरगोश आदि भी रहते थे। सरकार की ओर से लाखों रुपये उसके ऊपर व्यय होते थे, परन्तु अधीक्षक भ्र्ष्टाचारी और चौकीदार भी शराबी। घास चोरी से बिक जाती, जलाशय भी सूखा पड़ा रहता। बीमार जानवरों की कोइ देखभाल करने वाला नहीं था। पदस्थ डॉक्टर को दवायें बेचने और प्रायवेट प्रेक्टिस से ही उद्यान में आने का समय नहीं मिलता। सत्य ही कहा - स्वार्थी व्यक्ति के परिणामों में निर्दयता एवं व्यवहार में कठोरता आ जाती है।
मूक जानवर भूख-प्यास से बीमार होकर मरते जा रहे थे। चौकीदार के किशोर नामक बालक को जानवरों से बहुत प्रेम था। वह हिरनों और खरगोशों के साथ छुट्टी के समय घण्टों खेलता। जानवर भी उसकी आवाज सुनकर ही उसके समीप आ जाते, उसके शरीर से लिपट जाते। उसके द्वारा खिलाई जाने वाली रोटी आदि प्रेम से खाते।
एक दिन एक खरगोश, जिसे वह प्रेम से दुलारे कह कर पुकारता था, उसे झाड़ी के पास बीमार तड़पता हुआ मिला। उसने तुरन्त उसे उठाया और लेकर अधीक्षक के बंगले पर पहुँचा। संयोग से अधीक्षक साहब तो टूर पर गये थे। उनका करुण नामक पुत्र मिला, जिसे अपनी दादी से करुणा और प्रेम के संस्कार मिले थे। वह तुरन्त डॉक्टर के पास पहुँचा और उसका इलाज कराया। उसे घर से लाकर दूध आदि पिलाया। डॉक्टर को उसने इलाज के लिए तीन सौ रुपये भी अपने पास से दिए। इसप्रकार उसकी जान बच गयी।
अब उन किशोरों को जानवरों के प्रति अत्यन्त दया आयी। उनके पिता ही उनकी दुर्दशा के लिए दोषी है, यह जानकर वे बहुत दुःखी हुए। एक बार तो उन्होंने एक सहपाठी के पिता कोतवाल से मिलकर शिकायत कर समस्या का समाधान करने का विचार किया, परन्तु उनका मन अपने पिताओं को दण्ड दिलाने का नहीं हुआ अतः वे कुछ सहपाठियों के साथ मिलकर, स्वयं ही उद्यान की व्यवस्था करने की सोचने लगे।
संयोग से एक सामाजिक संगठन द्वारा कुछ प्रतियोगिताएँ (भाषण, निबन्ध, चित्रकला आदि ) आयोजित की गयीं। उन बच्चों ने उन प्रतियोगिताओं में भाग लेकर, पुरुस्कारों द्वारा धन प्राप्त कर गर्मी में जलाशय भरवाने का निश्चय किया
वे प्रतियोगिताओं में विजयी भी हुए, परन्तु पुरुस्कार राशि कम होने से, उन्हें विशेष लाभ न हो सका।
वे लोग उद्यान में पीछे बैठे हुए आगामी कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे। उन्होंने राजकीय उद्यान की करुणदशा को बताते हुए मुख्यरुप से नगर के बच्चों और युवाओं से सहयोग करने की अपील लिखी, जिसे उन्होंने अख़बार में छपाने का निर्णय किया।
रात्रि हो जाने पर भी जब अधीक्षक का लड़का घर न पहुँचा, तब वे उसे ढूँढ़ते हुए वहाँ आये और चार-छह लड़कों को देखकर पूछने लगे - “क्या कर रहे हो ?”
बुद्धि भवितव्य के अनुसार प्रवर्तती है। इस न्याय से बच्चों की बातें सुनकर उनकी आँखो में आँसू आ गये। अपील पढ़कर तो उन्हें अपने ऊपर बहुत ग्लानि आयी। उन्होंने उसी समय भ्र्ष्टाचार के त्याग की प्रतिज्ञा की। चौकीदार ने शराब का त्याग किया। फिर तो जानवरों के भाग्य जाग गये। कुछ ही महीनों में उद्यान का कायाकल्प ही हो गया।
उद्यान के स्थापना दिवस के अवसर पर अधीक्षक ने खुले मंच पर वह घटना सुनाई और बच्चों को मैडल देकर सम्मानित किया। उपस्थित नगरवासियों के भी ह्रदय भीग गये। पक्षियों के लिए कई जगह दाना डाला जाने लगा। नगर के बीमार एवं वृद्ध पशुओं के भी दिन फिरे। एक करुणापूर्ण वातावरण सहज ही बन गया।

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बाल-प्रेम

जिनेश और महेश अच्छे मित्र थे। एक-सी उम्र, एक-सी शक्ल। दोनों सगे भाइयों जैसे लगते। साथ-साथ पढ़ते और साथ-साथ खेलते। दोनों गरीब परिवार के थे, परन्तु ह्रदय अत्यन्त उदार था। महेश की तो माँ भी नहीं थी। एक बार जिनेश का नया कुरता-पायजामा देखकर महेश भी मचलाऔर उसने भी पिताजी से वैसा ही कुरता-पायजामा बनवा लिया।
दोनों नए कपड़े पहन कर एक उत्सव में गये। वहाँ और भी बहुत-से बच्चे खेल रहे थे। वे भी उन्हीं के साथ खेलने लगे। एक शैतान लड़का महेश के साथ लड़ पड़ा और लड़ाई में उसका कुरता फट गया। उसे बिना देखे ही दोनों घर की ओर चल दिए। शाम हो गयी थी। घर के समीप ही महेश ने देखा कुरता फट गया है। वह भयभीत होकर रोने लगा। रोने की आवाज सुनकर उसके पिता ने आवाज देकर बुलाया। जिनेश ने तुरन्त गली में छिपकर अपना कुरता उसे पहना दिया और उसका फटा कुरता उसने पहनते हुए कहा कि वह माँ से सिलवा लेगा।
घर से निकलते हुए महेश के पिता ने उसे देख लिया। वे बच्चो के निश्छल प्रेम को देख कर द्रवित हो गये। उन्होंने महेश को उस समय कुछ नहीं कहा।
जिनेश के फ़टे कुरते को देख माँ ने भी उत्सव का दिन होने से कुछ न कह कुरता सिल दिया।
कुछ बच्चों ने भी उन्हें कुरता बदलते हुए देख लिया था ; अतः जिनेश-महेश डरते रहते कि यह बात उनके घर बच्चे कह न दें। एक दिन जिनेश माँ के साथ महेश के घर आया। महेश के पिता ने दोनों को अपने पास बुलाया और जिनेश को गोद में उठाकर जोर से उसकी माँ को उस दिन की घटना सुनाते हुए बोले- “भाभी ! आज से जिनेश भी मेरा ही बच्चा है। बच्चों का इतना प्रेम देख कर तो मैं उस दिन से गुस्सा ही भूल गया।”
फिर तो उन्होंने उन्हें मिठाई खिलाई और बहुत-बहुत प्यार और आशीर्वाद दिया। वे दोनों भी निर्भय होकर खेलने लगे।

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अभिमान

एक गाँव समुद्र के किनारे था। वहीं एक माँ और बेटा रहते थे। वे अत्यन्त गरीब थे। परन्तु बेटा बहुत उद्द्ण्ड था। माँ रोज की शिकायतों से परेशान थी। बेटा भी माँ को परेशान देखकर थोड़ी देर दुःखी होता, परन्तु आदत से मजबूर।
एक दिन एक जहाज आया। उसके कैप्टन को एक कर्मचारी की जरुरत थी। लड़का तैयार हो साथ चला गया। वहाँ अपनी ईमानदारी और मेहनत से धीरे-धीरे उन्नति करता हुआ, जहाज का कैप्टन बन गया। उसने भी एक जहाज खरीदा और स्वयं व्यापार करने लगा।
काफी समय बाद भी न लौटने के कारण, माँ बेटे को याद करती, दुःखी होती। वह बीमार भी रहने लगी और कपड़े आदि भी ढंग के न रहे।
लड़का एक दिन धन कमाकर शान से लौटा। गाँव वाले सुनकर उत्साह से उसको लेने पहुँचे। माँ ने भी चावल बनाये और बेटे के समीप पहुँची, परन्तु अहंकारवश बेटे ने, उसे माँ मानने से इनकार कर दिया। डेरे से निकलवा दिया। दूसरे दिन माँ फिर गयी, परन्तु अभिमानी लड़के ने फिर निकलवा दिया। तीसरे दिन फिर दुर्व्यवहार करने पर उसके मुख से शाप निकल ही पड़े। उसने ऊपर हाथ उठाते हुए कहा - "हे भगवान ! इसके अभिमान का फल इसे अवश्य मिले।
वह लड़का भी अपना जहाज लेकर लौट पड़ा। थोड़ी ही दूर जाने पर तूफान आया, उसका जहाज डूबने लगा। लड़के का अभिमान टूटा, उसने हाथ जोड़े और बोला - हे ईश्वर ! हे माँ ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मुझे क्षमा करो ! अब मैं कभी, किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं करुँगा।
तूफान रुका, काफी नुकसान हो चुका था। फिर भी एक नाव के साथ घर की ओर लौट पड़ा। नाव को किनारे छोड़कर घर आकर के माँ के चरणों में माथा रख कर क्षमा माँगी। माँ भी उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। वहीं रहकर अपना व्यापार भी देखता और माँ की योग्य सेवा करता।
अभिमान का फल और वैभव की असारता, उसने आँखो से देखी थी ; अतः वह धर्म और कर्त्तव्य को कभी नहीं भूलता। वृद्ध,असहाय एवं गरीबों के लिए तो वह योग्य सहयोग हेतु सदैव तत्पर रहता।

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आलसी मित्र

एक आलसी युवक था। उसका मित्र भी आलसी और धूर्त था। उसका विवाह दूर के एक नगर में हुआ। पत्नी बुद्धिमती थी, परन्तु वह न तो पत्नी की सुनता और न आलस्य छोड़, काम में मन लगाता।
एक बार ससुराल में विद्वानों का सम्मान व भोजन था। दामाद का मित्र भी विद्वान बन कर पहुँच गया। भोजनोपरान्त कहने लगा - “मैं विद्वान नहीं,आपके दामाद का मित्र हूँ। वेश तो मैंने अच्छे भोजन के लिए बना लिया है।”
ससुरजी ने कुछ कहा। दुबारा ऐसा ही आयोजन फिर किया और मित्र फिर वेश बदल कर पहुँच गया,परन्तु इस बार पहचान लिया। फिर भी उन्होंने भोजन तो कराया, परन्तु बाद में एकान्त में बुलाकर उससे कुछ चर्चा की, परन्तु वह क्या बताता ?तब ससुरजी ने दामाद के मित्र को अच्छी तरह समझाया। भली होनहार होने से उस मित्र को भूल का अहसास हुआ और दृढ़ संकल्प पूर्वक घर लौटा और अपने मित्र के साथ जूट गया काम में।
भाग्य ने साथ दिया और वे कुछ ही दिनों में धनी हो गये, परन्तु वे धर्म कार्यों में भी सदैव तत्पर रहते, जिससे यशस्वी और प्रसन्न भी थे।

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रईस का विवेक

छोटा-सा नगर था। वहाँ वयोवृद्ध रईस वीरचन्द्रजी थे। धनी होने के साथ-साथ सादगी की मूर्ति, परोपकारी, विवेकी और धर्मनिष्ठ भी थे। अभिमान तो उन्हें छू भी नहीं पाया था। संयोग और सम्पदा के साथ ही शरीर की नश्वरता को भी भलीप्रकार समझते थे, अतः प्रति समय सावधान रहते।
उसी नगर में दूसरे रईस मोहनलाल भी थे। दोनों की अच्छी मित्रता समाजोन्नति के लिए वरदानस्वरुप थी। स्पृहापूर्वक धार्मिक अनुष्ठान एवं लोकोपकारी कार्य वहाँ होते ही रहते थे।
एक दिन सब्जीमण्डी में दोनों के नौकर सब्जी लेने गये। नये-नये सेब आये थे। थोड़े ही थे। दोनों का अहं टकराया। सेबों की बोली बढ़ने लगी, भीड़ जुड़ गयी। अन्त में पचास रुपये के सेब पाँच हजार में लेकर मोहनलाल का नौकर शान से चला, परन्तु घर पहुँचने पर मालिक ने नाराज होकर उससे सेब ले लिए। वे उन सेबों को लेकर वैसे ही वीरचन्द्र जी के यहाँ पहुँचे। वहाँ उनका नौकर रोकर यह घटना सुना रहा था और कर्मोदय की विचित्रता को जानने वाले रईस साहब हँस रहे थे। उन्होंने वीरचन्द्र जी के चरण छूते हुए, अपने नौकर की गलती के लिए क्षमा माँगी। साथ में गया हुआ नौकर भी चरणों में गिरकर रोने लगा। वीरचन्द्र ने थाली, पानी, चाकू आदि मँगाकर मोहनलाल से कहा - इन सेबों को धोकर-पौंछकर बनाओ। फिर उन्होंने वे सेब नौकरों को खिलाये, स्वयं भी खाये। आधे सेब मोहनलाल के घर भेजें और नौकरों को भी शिक्षा दी - सदा ईर्ष्या और अहंकार से दूर रहेंगे।
समीप में बैठे बच्चों और महिलाओं ने ईर्ष्या न करने की शपथ ही ले ली।
जिसने सुना - हर्षविभोर हो प्रशंसा की।

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दया और क्षमा

सर्दी के दिन सेठ रामलालजी, प्रातः काल अपने खेत से चले आ रहे थे। रास्ते में एक कुत्ता, ठण्ड से ठिठुर कर सड़क किनारे पड़ा था। ऐसा लगता था कि वह अब बच नहीं पायेगा। सेठ को दया आयी। उन्होंने वहाँ नौकर से लकड़ी एकत्र करवाकर आग जलवायी। गर्मी लगने से कुत्ते को होश आया, उसने कृतज्ञता से सेठ की ओर देखा। सेठ ने घर से गरम-गरम दूध मँगवा कर पिलाया। कुत्ता खड़ा हो गया, सेठ के पीछे-पीछे चल दिया और दरवाजे पर रुक गया। वहीं से उसे भोजन मिलने लगा। सेठ की दुकान और घर पास में थे। वह घर, दुकान और गोदाम की चौकीदारी करने लगा। सेठ मन्दिर जाते तो वह भी साथ में जाता। वहीं बाहर बैठा रहता। पूजा-प्रवचन भी सुनता। मन में बहुत प्रसन्न होता, अनुमोदना करता। अब वह अत्यन्त शान्त हो गया था। न किसी को सताता, न माँसादि गन्दी वस्तुएँ खाता।
एक दिन गोदाम में एक कर्मचारी ने चोरी करके कुछ सामान पास के जंगल में पेड़ के समीप जमीन में छिपा दिया। सेठ गोदाम आया तो कुत्ता उनकी पेन्ट खींच कर उन्हें जंगल ले गया। उनके साथ नौकरादि भी गये थे। वह कर्मचारी भी था। कुत्ता जमीन कुरदने लगा। नौकर ने वहीं खोदा और वह सामान मिल गया।
यह देखकर चोरी करने वाला कर्मचारी सोचने लगा- अरे !मैं तो कुत्ते से भी गया-बीता हूँ। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। सेठ ने उसे क्षमा कर दिया और वह बन गया ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी।

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सज्जनता

सेठ श्यामलाल के दो पुत्र थे। कृष्णचन्द आयु में भी बड़ा था और विवेक, उदारता, क्षमा और ईमानदारी आदि गुणों के कारण भी नगर में प्रशंसनीय था। छोटा भाई करमसेन आलसी और ईर्ष्यालु होने से सदा दुःखी रहता था।
सेठजी ने दोनों को समान हिस्सा देकर न्यारा कर दिया था और स्वयं धर्मध्यान में अपना समय लगाते थे। वे घर बहुत कम रहते। प्रायः सत्समागम में और तीर्थक्षेत्रों में चले जाते थे। फिर भी बड़े भाई की प्रतिष्ठा एवं उन्नति देखकर करमसेन मन ही मन ईर्ष्या से जलता रहता तथा निरन्तर उनका बुरा करने की सोचता। कृष्णचन्द जानते हुए भी उससे अन्तरंग स्नेह और बाहर में भी अच्छा व्यवहार ही करते।
सही ही कहा है कि दुर्जनों के दुर्व्यवहार से पीड़ित होने पर भी, सज्जन अपनी सज्जनता नहीं छोड़ते।
एक दिन घूमकर आते समय कृष्णचन्द ने एक घायल छटपटाता हुआ नाग देखा। दयावश वे रुक गये। उसको णमोकार मंत्र सुनाते हुए उन्होंने योग्य उपचार भी किया। वहीं एक किसान से दूध मँगाकर उसे पिलाया। सर्प स्वस्थ होने लगा। कृष्णचन्द कई दिन उधर जाकर सर्प की देखभाल करते रहे। सर्प भी ठीक समय पर बिल से निकल कर उनकी प्रतीक्षा करता और कृतज्ञता से भर जाता।
बात आयी-गयी हो गयी। लगभग दो वर्ष बाद कृष्णचन्द को व्यापार में भारी लाभ हुआ। समाज में वे पंचायत के अध्यक्ष बन गये। करमसेन अपनी कषाय से दुःखी होता हुआ एक सपेरे से मिला और काला नाग टोकरी में बंद कर मँगवाया और रात्रि को बड़े भाई के कमरे में छोड़ दिया, परन्तु नाग ने अपने उपकारी को तुरन्त पहिचान लिया और शान्त बैठा रहा। कृष्णचन्द जैसे ही उठे उन्होंने णमोकार मंत्र, प्रभाती आदि पाठ पढ़े, सामायिक की। फिर नाग को भी दूध पिलाकर उसे सहज भाव से एक टोकरी में रखकर जंगल उसके बिल के समीप छोड़ आए।
करमसेन ने भी जब यह जाना तो उसके भी भाव बदल गये। उसने रोते हुए बड़े भाई से क्षमा माँगी। बड़े भाई के ह्रदय में तो कुछ मैल था ही नहीं, उन्होंने सहज भाव से क्षमा कर, न्याय और धर्म मार्ग में लगने की सलाह दी, परन्तु उनका मन फिर व्यापार, घर आदि से विरक्त हो गया और शेष जीवन धर्माराधना में लगाने का निश्चय कर ही लिया।
एक दिन उन्होंने घर का भार, अपने पुत्र विनयकुमार पर छोड़ा। समाज का अध्यक्ष छोटे भाई को बनवाकर स्वयं चले गये एक ब्रह्मचर्याश्रम में, आत्माराधन कर अपना जीवन सफल करने।
ईर्ष्या में मत जलो, नहीं तो अग्निकायिक बनोगे।

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कह दूँगा

सेठ जिनेश्वरदास धनी होने पर भी, अपने गरीबी के वे दिन सदैव याद रखते जब वे मेहनत कर, छोटा-सा ठेला लगाकर अपनी गृहस्थी चलाते, किराये के मकान में रहते, ईमानदार, शीलवान, परोपकारी वृत्ति वाले विनयवन्त व्यक्ति होने पर भी समाज और गाँव में उन्हें प्रमुखता नहीं दी जाती, परन्तु उन्हें क्या ? वे तो सन्तोषपूर्वक अपना कार्य करने और भगवान की भक्ति, संतों का समागम और योग्य सेवादि करते हुए प्रसन्न रहते थे।
समय बदला। उनके खेत की ओर से सड़क निकल गयी। समीप में मण्डी, बस स्टैण्ड आदि बन गये। उनकी जमीन की कीमत काफी बढ़ गयी। उन्होंने थोड़ी जमीन बेच दी। एक दुकान बना ली। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ता गया और वे आज समाज में विशेष धनी लोगों की पंक्ति में प्रतिष्ठित हो गये।
जिधर से निकले जय जिनेन्द्र, जय राम जी, नमस्कार आदि करते हुए व्यक्ति उन्हें सम्मान देते, परन्तु सेठजी सबके उत्तर में मात्र कहते - “कह दूँगा।”
एक दिन, एक मित्र के आग्रहपूर्वक पूछने पर बोले - “भाई ये सब मेरा नहीं, धन का ही तो अभिवादन करते हैं। मुझे तो धन जब नहीं था, तब पूछते ही कहाँ थे ? मुझसे बोलने से भी बचते थे ; अतः मैं कह देता हूँ कि तुम्हारी जय जिनेन्द्र आदि धन से कह दूँगा।”
मुझे तो न तब कोई दुःख था और न अब हर्ष। मैं तो इस धन की अध्रुवता को भली-भाँति जानता हूँ। यह तो पथिक के ऊपर आ जाने वाली वृक्षों की छाया के समान है। निरन्तर यही भावना भाता हूँ कि कब इन प्रपंचों से विरक्त होकर आत्मकल्याण करूँ ?
सुनकर मित्र की आँखों में आँसू आ गये और धन्य-धन्य कहता हुआ कहने लगा - “मेरी भी ऐसी ही भावना कब हो ?”

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सहयोग

एक संस्था में परस्पर सद्भाव रखने वाले २० कर्मचारियों के एक समूह की आवश्यकता थी। विज्ञप्ति निकलने पर साक्षात्कार के लिए टीमें आयीं। परीक्षा हेतु उनके हाथों में कोहनी से लकड़ी की पत्तियाँ, बाँधकर, हाथ सीधे कर दिये और जब उनसे मिठाइयों के थाल मेज पर रखकर, नाश्ता करने के लिए कहा गया, पर स्वार्थवृत्ती के कारण वे नाश्ता न कर सके और असफल हो गये।
एक अन्य टीम के लोगों में परस्पर अत्यन्त प्रेम था। वे खाना ही नहीं, खिलाना भी जानते थे। आपस में सहयोग की भावना से भरे हुए थे। उन्होंने थाल में से मिठाइयाँ उठा-उठा कर दूसरों को खिलायीं। इसप्रकार वे सभी भलीप्रकार नाश्ता करने में सफल हुए और कार्य हेतु उनका चयन हो गया।
वे भी प्रसन्न थे और संस्था के अधिकारी भी योग्य कर्मचारियों के मिल जाने से प्रसन्न हुए।
सत्य ही कहा है - स्वार्थ की भावना से स्वार्थ की भी सिद्धि नहीं होती। लौकिक स्वार्थ तो परोपकार से होने वाले पुण्य से स्वयं ही सिद्ध हो जाते है। दूसरों को सम्मान देने से स्वयं ही व्यक्ति सम्मानित हो जाता है।

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साता और असाता

श्रेष्ठी जिनदास विवेकी, परोपकारी व स्वाध्याय प्रेमी व्यक्ति थे। वे आत्मा और परमात्मा के स्वरुप को भली भाँति समझते थे। जीवन, यौवन, धन-वैभव आदि संयोगों की असारता और अध्रुवता को जानने के कारण, उन्हें मिथ्या अभिमान छू भी नही पाता था। स्वयं के स्वाभिमान के साथ-साथ दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही योग्य व्यवहार करना उनके जीवन की विशेषता थी।
वे न तो धर्म की ऊँची-ऊँची बातें करते और न कुछ रुढ़ि की क्रियायें करके संतुष्ट होते। क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, उदारता, संयम आदि धर्म के लक्षण उनके दैनिक जीवन में फूल में सुगन्ध की भाँति दिखाई देते। आत्मकल्याण के लक्ष्य से तत्त्वज्ञान के अभ्यासपूर्वक स्वाध्याय, जिनभक्ति, भेदविज्ञान व समता उनकी चर्या के प्रमुख अंग थे। घर में रहते हुए अनासक्त रहते और पुण्योदय से प्राप्त वैभव का विवेकपूर्वक सदुपयोग करते। वे वास्तव में धर्मात्मा थे।
उनके यहाँ साधर्मीजनों का आवागमन होता ही रहता। एक दिन एक निर्धन साधर्मी उनके समीप आया तब वे अनेक लोगों के बीच बैठे हुए कुछ धर्म चर्चा कर रहे थे। उसने आकर जयजिनेन्द्र की और खड़ा हो गया।
अन्य लोग उसकी मलिन और दयनीय दशा को देखकर विचार में पड़ गये। तभी सेठजी ने स्नेह-भरे स्वर में पूछा- “पिताजी कैसे हैं ?”
साधर्मी भाई अभिप्राय को समझकर बोला - “मरणासन्न अवस्था में।”
सेठजी ने मुनीम को तुरन्त उसे भोजनादि करवाकर, दस हजार रुपये और वस्त्रादि देने का आदेश दिया तथा सभी लोगों से रहस्य बताते हुए बोले- “साता और असाता - ये वेदनीय कर्म के दो पुत्र अर्थात् सगे भाई है। मैं साता का और यह असाता का पुत्र है।”
भाई ! संसार का यही स्वरुप है। साता के उदय में प्राप्त सामग्री सदुपयोग करने लायक है, अभिमान के लिए कहाँ अवसर है ? वह तो क्षणभंगुर है।
असाताजनित संयोग भी क्षणिक होने से, दीनतापूर्वक आर्त्तध्यान के निमित्त नहीं है, अपितु भेदविज्ञान -पूर्वक समता से, मात्र जानने योग्य हैं। वास्तव में वे वैराग्य के निमित्त हैं।

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सजगता

सेठ धर्मदास अच्छे व्यापारी थे। ईमानदारी-पूर्वक व्यापार करते। व्यापार में होने वाले लाभ का, सत्पात्रों को दान देकर एवं दीन-दुखियों का उपकार करते हुए, सदुपयोग भी करते। व्यापार भी बढ़ता जा रहा था। कई दुकानें, गोदामादि माल से भरी रहतीं। अनेक मुनीम और नौकरादि कार्य करते। वे सूक्ष्मदृष्टि से उन सबका निरीक्षण करते रहते थे। अच्छे कार्य करने वालों को पुरस्कार देते और लापरवाही या चोरी आदि करने वाले को क्षमा के साथ कड़ी चेतावनी और दण्ड भी देते। सेठ का इकलौता पुत्र ज्ञानेश, वैसे तो बुद्धिमान था, कोई दुर्व्यसन भी उसमें नहीं था; परन्तु सहज प्राप्त वैभव के कारण उसमें आलस्य आ गया था। व्यापार में प्रायः नौकरों के भरोसे रहता। सेठजी समझाते तो हँस कर टाल देता।
एक दिन सेठजी का अचानक स्वर्गवास हो गया। ज्ञानेश के कन्धों पर पूरा भार आ गया, परन्तु उसकी लापरवाही के कारण एक वर्ष में ही काफी घाटा हो गया, तब वह परेशान होकर मन्दिरजी में होने वाले स्वाध्याय में गया। वहाँ अध्यात्म के साथ-साथ लोक-व्यवहार की भी अनेक बातें आती, जिन्हें वह ध्यान से सुनता। एक दिन स्वाध्याय में आया कि - "हमें आत्मकल्याण के साथ-साथ लौकिक कार्यों को भी भवितव्य, भाग्य अथवा दूसरों के ही भरोसे नहीं छोड़ देना चाहिए। योग्य पुरुषार्थ करना ही श्रेयस्कर है। दृढ़-संकल्प, सूक्ष्म उपयोग और आलस्य रहित व्यवस्थित चर्या के बिना कहीं सफलता नहीं मिलती।"
उसने स्वयं विचार किया और एकान्त में श्रीयुत पंडितजी से भी चर्चा की। उन्होंनें सब सुनकर सलाह दी- “नौकरों का अतिरिक्त भरोसा न करें और उनके ऊपर पैनी निगाह रखें।”
दूसरे दिन शीघ्र उठकर उसने णमोकार मंत्र का स्मरण और तत्त्वचिन्तन आदि किया। भगवान की पूजा, पात्रदान आदि पूर्वक भोजन करके, दुकानों और गोदामों का निरीक्षण करना प्रारम्भ कर दिया। काफी गड़बड़ी को देखकर उसने मुनीमों और नौकरों की एक मीटिंग की। जिसमें उत्तेजित हुए बिना, सभी को यथार्थता का बोध कराते हुए आगे ईमानदारी से कार्य करने का निर्देश दिया।
उस दिन उसे पिताजी की खूब याद आई और आलस्य छोड़कर उन्हीं के पदचिन्हों पर चलने का उसने संकल्प ही कर लिया। फिर क्या ? व्यापार में लाभ भी प्रत्यक्ष दिखने लगा।
उसे स्वाध्याय की बहुत महिमा आयी। उसने विचार किया कि - "स्वाध्याय सर्व समाधान कारक है। यदि स्वाध्याय में न जाता और कहीं मंत्र-तंत्रों में भटक जाता तो जीवन बर्बाद ही हो जाता।"
फिर तो उसने पण्डितजी से परामर्श करके तत्त्वज्ञान के प्रसार की व्यापक योजना बनाई। शिविर, पाठशाला, छात्रावासों को तो वह उदारता पूर्वक सहयोग करता।

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