लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

न्याय की कमाई

एक अधीक्षक, प्रायः दरवाजे से सटे बरामदे में टहल रहा था। हल्की रिम-झिम बरसात चल रही थी। एक भिक्षुक पड़ोस में भोजन माँग रहा था। पड़ोसी न जाने किस उलझन में था, उसने दुत्कार दिया। भिक्षुक अनसुनी करता हुआ आगे बढ़ता गया। अधीक्षक ने नौकर को रोटी लेकर भेजा, परन्तु भिक्षुक ने इनकार करते हुए कहा- “जो रिश्वत लेते हैं, उनके घर का भोजन मैं नहीं करता।”
नौकर बड़बड़ाता हुआ लौटा और उसने अधीक्षक से ज्यों का त्यों कह दिया।
पहले तो अधीक्षक को क्रोध आया और वह ना जाने क्या-क्या कह गया, परन्तु बाद में उसे अपने पर बहुत ग्लानि आयी। कई दिनों किसी काम में मन न लगाता, रात्रि को नींद न आती। मन रिश्वतवृत्ति को धिक्कारता। मन लगाने को, पिताजी की पुस्तकों की अलमारी खोली। निकाल कर पढ़ने लगा। एक दिन प्रेरक-प्रसंगो में ‘दृढ़-संकल्प’ पढ़ते-पढ़ते मन विश्रान्त हुआ, आँखों में चमक आ गयी और रिश्वत-त्याग का संकल्प ले लिया।
अधिकारी को रिश्वत न पहुँचने से प्रोन्नति रुक गयी। पत्नी और बच्चें भी नाराज होते, परन्तु अन्तरंग में संतोष और प्रसन्नता बढ़ती ही जाती। कर्तव्य-पालन से प्राप्त संतुष्टि से सहनशक्ति भी ऐसी होती गयी कि कोई कुछ भी कहे, कोई असर नहीं और न उत्तेजना। केवल मन्द मुस्कान चेहरे पर खेलती रहती। थोड़े दिनों में सब सहज हो गया। उच्च अधिकारी को समाचार मिले, उसने भी ईमानदारी का गुप्त परीक्षण किया और प्रभावित होकर प्रोन्नति भी की और सार्वजनिक सम्मान भी।
एक दिन वही भिक्षुक दरवाजे पर भिक्षा माँगने लगा। अधीक्षक महोदय बोले - “तुम तो रिश्वत लेने वाले के यहाँ भोजन नहीं लेते।”
भिक्षुक हसँते हुए बोला - “देवता ! आप रिश्वत नहीं लेते। आपका अन्नग्रहण कर मैं अपने को धन्य समझूँगा और खूब भगवद्भक्ति कर जीवन सफल करुंगा।”
अधीक्षक महोदय, विस्मयपूर्वक उसकी ओर देखने लगे और हर्षित होकर, उसे भरपेट भोजन कराया। भिक्षुक भी आशीर्वाद देता हुआ चला गया।

2 Likes

सह्रदयता

धर्मचन्द कपड़े का एक छोटा-सा दुकानदार था। ईमान एवं संतीषपूर्वक अपनी आजीविका चलाता था। देव, गुरु और धर्म का पारखी, दया से भीगे ह्रदय वाला, नेक इन्सान था। दूसरो के दुर्व्यवहार को अपना कर्मोदय समझकर सहन कर लेता, परन्तु दूसरों के साथ स्वयं दुर्व्यवहार कदापि नहीं करता। अपना नुकसान सहलेता,परन्तु दूसरों का नुकसान सोचता भी न था। सादा जीवन उच्च विचारों की साक्षात् मूर्ति था वह।
एक दिन एक अध्यापक ने आकर सात सौ रुपये का कपड़ा खरीदा और एक हजार का नोट दिया। वापस करने को रुपये नहीं थे। सहजता से कह दिया, आप कपड़ा ले जायें, रुपये बाद में आ जायेंगे। संयोग की बात, वह कपड़ा ले गया और चार-पाँच दिन वापस न लौटा। उसे चिंता हुई। तलाशने पर मालूम पड़ा, उसकी नौकरी कल ही छूट गयी। पता लगते हुए उसकी किराये की कोठरी में पहुँचा, तब पहले तो उसने कोठरी में अन्दर बुलाया। जाकर देखा कि एक बच्चा अत्यन्त बीमार पलंग पर लेटा है। उसने कहा - “सेठजी मेरी नौकरी अभी छूट गयी है , इधर बच्चे के बीमार हो जाने से मैं स्वयं उलझन में पड़ गया हूँ।” उसने पत्नी का जेवर देते हुए कहा - " आप यह ले जायें, मैं आपके रुपये देकर अपना जेवर ले जाऊँगा।"
दुकानदार ने विचारा और कहा - " ऐसी मुसीबत में जेवर नहीं ले जाऊँगा, तुम समयानुसार रुपये दे जाना।" उसने कहा - “मेरे पिताजी तीन-दिन बाद आ रहे हैं। आप प्रातः आ जाना और मैं आपके रुपये देकर ही घर जाऊँगा।”
धर्मचन्द ने तीन दिन बाद जाकर देखा, कोठरी खाली हो चुकी है,पत्नी बच्चे भी नहीं हैं, किन्तु अध्यापक उसी की प्रतीक्षा में बैठा था। उसने सात सौ रुपये देते हुए कहा - “आपने उस दिन जेवर छुआ तक नहीं। आपके सह्रदयता पूर्वक व्यवहार से ही यह रुपये दे रहा हूँ, नहीं तो प्रातः अंधेरे में ही चला जाता, क्योकि दूसरे उधार वाले भी बहुत परेशान कर रहे थे।”
धर्मचन्दजी द्रवित हुए, रुपये लेकर चले आये।

2 Likes

सूक्तियाँ

  1. धन से सब सम्भव है, ऐसा मानने वाले की संगति कभी मत करो, क्योंकि वह धन के लिए अधम से अधम कार्य कर सकते है।
  2. जैसे बुद्धिमान व्यक्ति सड़े हुए फलों में से भी बीजों को निकाल लेता है, उसी प्रकार दोषों के समूह में से गुणों को ग्रहण कर लेना ही हितकर है।
  3. सोचो ! दुर्लभ मनुष्य शरीर सत्कार्यों और आत्मकल्याण के लिए है। तम्बाकू, गुटका, बीडी, सिगरेट, शराब आदि के सेवन से आप अकाल में तड़प-तड़पकर मर जायेंगे।
  4. स्वच्छन्द प्रवृत्ति में सुख मानना तो मिथ्यात्व दशा में ही सम्भव है।
  5. पुण्योदय में अभिमानवश दूसरों का तिरस्कार करने वाला व्यक्ति उसके फल में स्वयं तिरस्कृत हो जाता है।
  6. जो व्यवहार को ही परमार्थ मानकर व्यवहारिक प्रवृत्ति में ही संतुष्ट हो जाते है वे जीव परमार्थ ज्ञान और सुख से वंचित ही रह जाते हैं।
  7. यदि छोटे-छोटे प्रसंगो में बुरा मानने की आदत पड़ जायेगी तो सत्संग में रहना दुर्लभ हो जाएगा।
  8. रागादि के होने में परद्रव्य निमित्त तो है, परन्तु दोषी नहीं। यदि स्वयं रागादि न करे तो परद्रव्य जवरन् रागादि नहीं करा सकते।
3 Likes

प्रकाशकीय

विवेक, ईमानदारी, उदारता, कर्त्तव्यनिष्ठा, क्षमा, शील, संतोष, धैर्य, सेवा आदि मानवीय गुणों से ही मानव प्रतिकूलताओं में भी सुखी एवं संतुष्ट रहता है। न कोई चिन्ता, न तनाव ( टेंशन ) ऐसे मानव ही महा मानव की श्रेणी में आ जाते हैं। वे प्रशंसनीय एवं दूसरों के लिए आदर्श हो जाते हैं।
उनके जीवन के प्रेरक-प्रसंग सुकोमल बच्चों पर गहरे संस्कार देने में समर्थ होते हैं। किं कर्त्तव्य विमूढ युवाओं को भी पतन के गर्त में गिरने से थाम लेते हैं। वृद्धों को धैर्य प्रदान करते हैं।
जन सामान्य के लिए भी बोधगम्य अतिसरल भाषा में लिखी गयी सारगर्भित, संक्षिप्त ह्रदय को झकझोर देने वाली कथाएँ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से सुन्दर एवं सुखकर शिक्षा देकर जीवन को सही दिशा में सहज ही मोड़ देती हैं। पाठक को पता भी नहीं चलता और उसका मन बुराइयों से अच्छाईयों की ओर उत्साहित होने लगता है।
ऐसी कथाएँ स्वस्थ, मनोरंजन के साथ-साथ पथ-प्रदर्शक भी होती हैं।
भौतिक चकाचौंध में अंध हुए, विलासिता से ग्रसित क्लेशों से घबराये, निराशा की ओर दौड़ते हुए व्यक्तियों के लिए नैतिक मार्ग पर सुरक्षित चलने में ये बोध कथाएँ स्पीड ब्रेकर का कार्य करेंगी। अतः इन्हें सभी जन पढ़े, पढ़ाये और अधिक से अधिक प्रसार करें- ऐसी भावना के साथ, प्रेरणा से प्रकाशन तक हुए सभी सहयोगी महानुभावों के हम ह्रदय से आभारी हैं।
सजग पाठकों से निवेदन है कि त्रुटियों से अवश्य अवगत करायें, जिन्हें आगामी संस्करण में सुधारा जा सके।
--------मंत्री---------

3 Likes

अहो भाग्य

भारतीय साहित्य में कथाओं का अपना विशिष्ट स्थान है। अपने विचारों या सन्देशों को पाठकों को ह्रदयंगम कराने हेतु कहानी से अच्छा और कोई माध्यम नहीं है। कोमलमति बालकों के लिए तो कथा से बढ़कर और कोई माध्यम है ही नहीं।
माननीय बाल ब्रह्मचारी रवीन्द्रजी द्वारा विरचित पूजन-पाठ जनमानस को आन्दोलित करने में सफल हुए हैं। अब कथा साहित्य भी सद्विचारों की क्रान्ति करने के लिए उदित हो रहा है।
पण्डितजी साहब ने बहुत सरल और बोधगम्य भाषा में ईमानदारी, नैतिकता, कर्त्तव्यनिष्ठा, परोपकार आदि अनेक जीवन मूल्योंका रंग सहज घटनाओं में आकर प्रस्तुत किया है।
इन लघु कथाओं में पात्रों की भीड़ और लम्बे-लम्बे संवाद नहीं हैं, लच्छेदार भाषा भी नहीं है, मात्र एक-दो पात्र और साधारण सी घटना के माध्यम से सीधे अपना सन्देश पाठकों तक पहुँचा देती हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सभी कहानियाँ सकारात्मक सन्देश देती हैं। कहीं भी घटनाओं में नाटकीय मोड़ नहीं है और न कोई कहानी दुखान्त है।
पण्डितजी का प्रेरक चिन्तन वर्तमान पीढ़ी के लिए तो जीवन-मन्त्र है ही, भावी अनेक पीढ़ियों के लिए भी दीप स्तम्भ का काम करेगा। भावी पीढ़ी उनके उपकारों का मूल्यांकन किए बिना न रहेगी। उनका जितना भी उपकार माना जाए कम है। आशा है प्रस्तुत कृति के माध्यम से प्रेषित सन्देश एक समर्पित आत्मार्थी और परोपकारी समाज का निर्माण करने में सहायक होगा।
---------पं. अभयकुमार शास्त्री-----------
जैनदर्शनाचार्य, एम.काम., देवलाली

4 Likes