लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

प्रायश्चित्त

एक दिन रानी के हार के लिए मथुरा नरेश को उत्तम मोतियों की जरूरत पड़ी। राजा ने नगर के जौहरी लोगों को बुलाकर कहा; परन्तु सबके द्वारा मना करने पर, देखा-देखी वृद्ध जौहरी रतनचन्द्र ने भी मना कर दिया। राजा को क्रोध आ गया और उसने कहा- जिसके यहां मोती पाये जायेंगे, उसका धन हरण कर, नगर से निकाल दिया जायेगा।
वृद्ध जौहरी रतनचन्द्र घर जाकर अत्यंत भयभीत हुआ। उसने स्वाध्याय कराने वाले अपने पंडितश्री ज्ञानेन्द्रजी से समाधान पूछा।

पण्डितजी- "भूल छिपाना कठिन भी है और कष्टकर भी । भूल मिटाना सरल भी है और सुखकर भी। एक असत्य को छिपाने के लिए अनेक असत्य उपाय करना, कदापि उचित नहीं।"
उनकी नेक सलाह के अनुसार, वह एक उत्तम मोतियों का सुन्दर हार लेकर राजदरबार में पहुंचा और अपनी भूल की विनयपूर्वक क्षमा मांगते हुए वह हार स्वयं रानी को भेंट कर दिया।
बड़े पुरूष विनय से प्रसन्न हो जाते हैं। इस न्याय से राजा ने प्रसन्न हो उन्हें क्षमा कर दिया।
सदैव ध्यान रखें कि रोग का इलाज जितनी शीघ्र किया जाए उतना ही सुगम है। ऐसे ही भूल भी शीघ्र ही स्वीकार कर दूर कर ली जाये, इसी में हित है।

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