लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

परिग्रह की असारता

विदिशा में एक व्यापारी था सोमचंद। तीन मंजिला बिल्डिंग थी। नीचे दुकान, बीच में गोदाम और ऊपर आवास था। करोड़ो रुपये एवं माल घर पर ही रहता था।
सुरक्षा के विचार से उसने ऊपर का जीना दीवाल लगा कर बंद कर दिया था। दरवाजों और खिड़कियों को भी रात्रि के समय बन्द करके ताला डाल देता था।
एक रात को माता-पिता कमरे में सो रहे थे। वह पत्नी और इकलौते पुत्र सहित स्वयं अपने कमरे में सो रहा था। लगभग डेढ़ करोड़ रुपये घर में रखे थे। उसी दिन घी का ट्रक आया था। डिब्बे जीने (सीढ़िया) में भी भरे थे। अचानक बिजली का फॉल्ट होने से आग लगी और घर में फैल गयी।
कही से कोई घुस भी नहीं सका। उसने फोन किये परन्तु सब बेकार गये। नीचे भीड़ देख रही थी परन्तु कोई कुछ भी न कर सका। माता-पिता अपने कमरे में तथा पत्नी और बच्चा भी आग में बुरी तरह जल गये और तड़प-तड़प कर मर गये। लगभग (३५) पैंतीस वर्षीय व्यापारी सोमचन्द डेढ़ करोड़ रुपये बचाने के चक्कर में नीचे आया और वह भी जल कर मर ही गया।
आग अत्यन्त कठिनाई से शान्त हो पाई, परन्तु जली हुई बिल्डिंग ‘परिग्रह की असारता’ और दुःख को प्रगट कर रही थी।
सत्य ही कहा है कि गृहस्थ को भी परिग्रह की सीमा अवश्य कर ही लेना चाहिए और परोपकारी कार्यों में खर्च करते रहना चाहिए।
अपनी शक्ति एवं समय को बचाकर, स्वयं भी धर्माराधना करते हुए, इस दुर्लभ अवसर का सदुपयोग कर लेना ही श्रेयस्कर है।

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