लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

सम्पत्ति एक, रुप दो

एक सेठ किशनचंद को अपने धन का अत्यन्त अभिमान था। गरीबों की तो वह हँसी उड़ाता रहता। व्यवहार में भी उनका शोषण ही करता। काम कराके पैसे देने में झगड़ा करता। व्यापार में उन्हें ठगता। बेचारे कुछ कह न पाते, परन्तु अन्तरंग में दुःखी होते।
दान भी जहाँ यश मिलता, वहाँ करता। पूजादि अनुष्ठानों में भी प्रदर्शन ही करता और अपनी सम्पदा, व्यापार आदि की वृध्दि की मनौती ही मनाता।
एक दिन रात्रि को घर में सो रहा था। कुछ डाकू आ गये। नाना प्रकार से कष्ट देकर मार गये और धन लूट ले गये। उसका लड़का समीर बाहर रहता था। समाचार सुनकर आया, बचपन में स्वर्गीय दादी के संस्कार थे। पिता को भी वह इन कार्यों से रोकने का प्रयत्न करता था, परन्तु उसकी चलती नहीं थी ; अतः वह अपनी शिक्षा पूरी करके सर्विस करना ही उचित समझकर, शान्तिपूर्ण जीवन चला रहा था।
समीर ने बची हुई सम्पत्ति को वहीखातों के अनुसार संभाला। जिनका देना था, दिया और शेष सम्पत्ति का एक परोपकार ट्रष्ट बना दिया। जिससे उसने अपनी ही दुकानों से एक में धर्मार्थ औषधालय तथा दूसरे में पुस्तकालय एवं वाचनालय खोल दिया और घर में धार्मिक पाठशाला संचालित करवाई।
सम्पदा जहाँ की वहाँ। अपने परिणामों के अनुसार उसका उपयोग होता है, इसलिए सत्य ही कहा है कि -
’ बच्चों को भी सम्पदा और सुविधाओं की अपेक्षा,अच्छे संस्कार देना अधिक आवश्यक है।'

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