लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

सत्यनिष्ठा

एक गरिमा नाम की बालिका, लौकिक शिक्षा के साथ ही धार्मिक पाठशाला में, नैतिक संस्कार भी ग्रहण कर रही थी। अब वह कक्षा ८ में आ गयी थी, उसकी समझ में आने लगा था कि मात्र पूजा-पाठ ही धर्म नहीं है। धर्म तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप है। मोह और क्षोभ से रहित साम्यभाव (समता -परिणाम) ही दुःखों को दूर कर, परम सुख को देने वाला परमार्थ धर्म है।
अहिंसा ही परम धर्म है। जिसका आधार सत्य है। अचौर्य ,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तो अहिंसा की प्राप्ति के लिए ही हैं।
वैसे भी किसी कार्य में सफलता हेतु सम्यक् अभिप्राय, सूक्ष्म उपयोग और व्यवस्थित चर्या, परमावश्यक है।
एक दिन सत्य की महिमा को सुनते हुए, उसने अपने जीवन में अहिंसामय सत्य बोलने का नियम ही ले लिया। अनेक प्रसंगों में उसने अपने नियम का भलीप्रकार निर्वाह किया।
एक बार उसके घर में डाकू आ गये। लूटने के बाद सरदार बोला- "किसी के पास यदि कुछ धन हो तो शीघ्र दे दें। तब उसने आगे बढ़कर कहा - “मेरी गुल्लक में रूपये हैं। इन्हें भी लेते जायें।” डाकू सरदार उसकी सत्यनिष्ठा से अत्यन्त प्रभावित हुआ। कुछ देर सोचता रहा फिर बोला - “बेटी !अब हमें इस घर से कुछ भी नहीं ले जाना है, अपना समस्त धन सँभालो। आज से हम डकैती का भी त्याग करते हैं। तुम हमें कुछ अच्छी पुस्तकें अवश्य दे दो, जिससे हमारा जीवन नैतिक और शान्तिमय बन जावे।”
उसने लड़की एवं उसकी माँ के पैर छुए। लड़की ने उन्हें मिष्ठान्न खिलाया और राखी बाँधते हुए कहा -“समस्त नारियों को माता, बहिन और पुत्री समान समझना और उनके शील की रक्षा में सहयोगी बने रहना।”
डाकुओं ने उस घड़ी को धन्य मानते हुए, हर्षपूर्ण अश्रुओं से विदा ली।

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