आदर्श माँ
एक स्त्री के एक लड़का था। पति का देहावसान हो चुका था। लड़के को शिक्षा के साथ ईमानदारी,सेवा व विनय,परोपकार आदि के संस्कार देने का प्रयत्न किया। लड़के ने भी लगनपूर्वक शिक्षा पूर्ण की और नौकरी खोजने लगा।
एक मित्र के पिताजी ने सहयोग किया। नौकरी तो मिल गयी,परन्तु बड़ी रिश्वत देनी पड़ी। लड़का उलझन में पड़ गया। उसने माँ को कुछ न बताया और नौकरी करने लगा और समझौता करते हुए उस रकम को चुकाने के लिए स्वयं भी रिश्वत लेने लगा।
धीरे-धीरे वह बड़ा अधिकारी बन गया। रकम तो चुक गयी,परन्तु उसकी रिश्वत की आदत ही बन गयी। विवाह हो गया हो गया। अपनी पत्नी,बच्चों के साथ बाहर ही रहना होता था। भय के कारण माँ के पास आना भी कम ही होता था।
माँ को किसी प्रसंगवश उसकी रिश्वत लेने की आदत मालूम हो ही गयी। उसने समझाने का प्रयत्न भी किया। उसके द्वारा भेजी जाने वाली सहयोग राशि भी लेने से इन्कार कर दिया।
पुत्र अन्तरंग में कभी-कभी दुःखी भी होता,परन्तु रिश्वत के त्याग का साहस नहीं कर पता था।
वृद्धा माँ बीमार हुई। पड़ोस के लोग उसे अस्पताल ले गये। पुत्र को खबर दी गयी। वह भी आ गया। डॉक्टर ने खून के लिए कहा। पुत्र आगे आया, परन्तु वृद्धा ने पूरी शक्ति से कह दिया-“डॉक्टर मुझे मर जाने दो, मुझे भ्रष्ट अधिकारी का खून नहीं चाहिए। अब मुझे चिकित्सा की भी आवश्यकता नहीं है। घर ले चलो। साधर्मीजनों के सानिध्य में सल्लेखना करुँगी।”
पुत्र का हृदय बदल गया। आँखो से आँसू बह रहे थे। माँ के चरण पकड़ते हुए रिश्वत न लेने की प्रतिज्ञा की। माँ को घर लाया। छुट्टियाँ लेकर माँ की सेवा की। साधर्मीजनों ने सम्बोधा और अत्यन्त उल्लासपूर्वक देह से भिन्न आत्मा का ध्यान करती हुई वह माँ, देह को छोड़ स्वर्गवासी हुई।
लड़के ने माँ की स्मृति में एक ट्रस्ट बनाया और उसके द्वारा वह आगे बढ़ता ही रहा। असमर्थों का सहयोग तो उस ट्रस्ट का प्रमुख कार्य था। उसे अपने बचपन के दिन एवं माँ का चेहरा सदैव याद रहता था।