लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

परिवर्तन

सेठ रामस्वरुप के पुत्र मनोहर ने एम.बी.ए. तक शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा पूर्ण हो ही पाई थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परिवार का भार सिर पर आ गया। पिताजी का जमा-जमाया हुआ व्यापार ही आगे बढ़ाने का निश्चय किया। समझा और जुट गया। व्यापार तो काफी फैल गया, परन्तु व्यस्तता बहुत हो गयी। शान्ति से भोजन करने तथा माता, पत्नी व बच्चों के लिए समय भी नहीं निकल पाता था।
एक दिन माँ ने कहा - “बेटा ! दस-पन्द्रह मिनट के लिए तो मेरे पास बैठ जाया करो।”
बेटा - “माँ !आपको तकलीफ ही क्या है ? दान, पुण्य के लिए कोई रोक नहीं है, धर्म-ध्यान करो। पड़ोस में बैठ आया करो। मंदिरजी में समय लगाओ। मुझसे समय की अपेक्षा मत रखो।”
ऐसा कहते हुए वह ऑफिस निकल गया।
माँ की आँखों से आँसू निकल पड़े, परन्तु धन की दौड़ में अन्धे होकर दौड़ने वाले उस युवक को वे आँसू कहाँ दिखे ?
एक दिन पत्नी ने कहा -“आज छुट्टी है, मुझे शहर के मंदिरों के दर्शन करा लाओ। कुछ बाजार से सामान भी लाना है।”
युवक - “गाड़ी ले जाओ। रुपये ले जाओ। मुझे समय नहीं है, एक मीटिंग में जाना है।”
पत्नी - “शादी क्या धन से हुई है। तुम्हें कभी समय भी है ? ऐसे धन का क्या करोगे ?”
एक दिन बच्चे बोले - “पिताजी आपका फोटो अख़बार और टी.वी. में दिखता रहता है, परन्तु आपके तो दर्शन भी दुर्लभ है। आज तो आप हमें प्रदर्शनी दिखा दीजिये।”
युवक - " ( हँसकर ) माँ और मित्रों के साथ चले जाओ। मुझे जाना है।"
पड़ोस में पड़ोसी के दादाजी का देहावसान हो गया, परन्तु उसे समय कहाँ जो संवेदना व्यक्त करने जाता ?
तृष्णावश वह शुष्क-सा होता गया। प्रेम, वात्सल्य और व्यवहार-शून्य जीवन कब तक चले। धीरे-धीरे टेंशन रहने लगा। नींद न आने से पर्याप्त विश्राम न मिलने और शान्तिपूर्वक सात्विक भोजन न हो पाने से एसीडिटी आदि रहने लगे। ब्लडप्रेशर आदि हो गये। डॉक्टरों ने भी व्यापार सीमित करने और दिनचर्या व्यवस्थित करने की सलाह दी।
भली होनहार से एक दिन माँ व पत्नी-बच्चों सहित तीर्थयात्रा के लिए गया हुआ था। वहाँ वंदना से लौटकर आते समय प्रवचन सुनने का सुयोग बन गया। गृहस्थ जीवन में भी शान्ति के लिए -
- परिग्रह का परिमाण कर ही लेना चाहिए।
- ज्ञानाभ्यास के बिना, कषायें घटना भी सम्भव नहीं है।
- सुख आत्मा में है , निवृत्ति है। भोगों से तो तृष्णा ही बढ़ती है।
- एक दिन समस्त चेतन-अचेतन परिग्रह छूटना निश्चित है। समय रहते चेत जाना चाहिए।
- अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-बल और प्रभुता से सम्पन्न भगवन्तों का जीवन ही आदर्श है।
- परद्रव्यों का स्वामित्व, कर्त्तव्य आदि मिथ्या है
- मिथ्यात्व और कषायों के मिटे बिना दुःख नहीं मिटता इत्यादि अमृत वचनों को सुनते हुए उनका रहस्य तो समझ में विशेष नहीं आया, शान्ति अवश्य मिली।
वंदना से शारीरिक थकान और प्रवचनों से मन को विश्रान्ति मिलने से खूब नींद आयी। प्रातः शीघ्र उठकर प्रवचन सुनने का उल्लास था। स्नानादि से निवृत्त हो वन्दना कर प्रवचन सुने। तीन दिन के कार्यक्रम में ही विचारधारा बदलने लगी।
माँ, पत्नी, बच्चों से क्षमा माँगते हुए, देवदर्शन, स्वाध्याय एवं व्यापार सीमित करने का नियम बनाया।
घर आये, एक समाधान और शान्ति लेकर। अब घर का वातावरण ही बदल गया था।
शीघ्र उठना, दर्शन-पूजन-स्वाध्याय, समय पर भोजन, परिवार के साथ-साथ भी भक्ति, पाठ, स्वाध्याय के साथ ही आत्मनिरीक्षण सहित सामायिक का अभ्यास।
सम्पदा को असार समझते हुए उसे पात्रदान एवं परोपकार में लगाने की योजना भी बनायी। निवृत्तिपूर्वक समाधि का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।
रोग, टेंशन आदि स्वयमेव दूर हो गये। सत्य ही कहा है -
जिनरुप ही देखने योग्य है।
जिनवचन ही सुनने योग्य है।
जिनभावना ही भाने योग्य है।

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