लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

स्वाध्याय

एक था उत्कर्ष नाम का श्रावक। भगवान जिनेन्द्र की दर्शन- भक्ति के साथ ही वह ज्ञानीजनों की संगति एवं स्वाध्याय विशेष रूचि पूर्वक करता था। उसने गुरुजनों से भी सुना था और स्वयं भी पढ़ा और समझा था कि सादगी और संतोष से मात्र अवसर ही मिलता है, सही दिशा तो स्वाध्याय से ही मिलती है।
इसी प्रकार भक्ति एवं पूजा के माध्यम से, भक्त भगवान से अपनी ही कहता है। भगवान का स्वरूप एवं उपदेश तो स्वाध्याय के माध्यम से समझा जाता है। जैसे वैद्य से केवल अपनी ही कहते रहने से, रोग मुक्त नहीं हुआ जा सकता। स्वस्थ होने के लिए वैद्य के अभिप्राय को समझना अनिवार्य है। वैसे ही स्वाध्याय के द्वारा भक्ति सार्थक होती है।
प्रतिकूल प्रसंगों में समाधान तो स्वाध्याय से ही होता है। स्वाध्याय ही हमें अनुकूलताओं में भी फंसने नहीं देता।
मुक्ति मार्ग के साथ- साथ समस्त लोक व्यवहार भी हमें जिनवाणी के अभ्यास से ज्ञात होता है।
गुरुओं के समागम का वास्तविक लाभ भी हमें स्वयं के स्वाध्याय से ही मिल पाता है, अन्यथा कथन की अपेक्षा और प्रयोजन न समझें तो कभी-कभी हम भ्रमित भी हो जाते हैं।
मिथ्या चित्रकारों और स्वानुभव का भी मुख्य उपाय स्वाध्याय ही समस्त तपों का आधार होने से परम तप कहा है।
ध्येय और साध्य के सम्यग्ज्ञान बिना यथार्थ धर्मध्यान भी नहीं होता है। मात्र मंदकषाय होने से कुछ स्थूल शान्ति-सी लगती है, वह भी क्षणिक एवं काल्पनिक है। इसके अतिरिक्त साधक का बाह्य उपलब्धियों, ख्याति आदि में उलझ जाना सम्भव है।
इस प्रकार वह स्वाध्याय के बहुत से लाभ बताते हुए, अन्य पात्र जीवों को स्वाध्याय की प्ररेणा करता। पुस्तकें और शास्त्र देता एवं विद्वानों का समागम कराता। जिनमन्दिर में दैनिक स्वाध्याय पाठशाला, गोष्ठियां एवं ज्ञान- वैराग्यवर्धक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराता रहता। इस प्रकार समाज में उत्साह पूर्ण वातावरण बना हुआ था। अन्य भद्रपरिणामी जीव भी स्वाध्याय का लाभ लेते।
अनेक लोकोपकारी कार्यों का भी समय- समय आयोजन होता रहता था। कभी आध्यात्मिक शिक्षण शिविर, कभी नैतिक शिक्षण शिविर कभी स्वास्थ्य शिक्षण शिविर, कभी असहायों की विभिन्न प्रकार से सहायता हेतु शिविर वहां होते ही रहते थे।
एक शुभ अवसर पर उसे वैराग्यमय विचार आया कि ये जगत तो ऐसे चलता रहेगा। अब तो पूर्णतः निवृत्ति लेकर आत्मकल्याण करना चाहिए। ये सब भले ही प्रशस्त कार्य है, परन्तु इनमें उपयोग तो बहिर्मुखी एवं स्थूल होता ही है।
व्यापारादि से तो बहुत पहले ही निवृत्त हो चुका था; अतः उसने मुनिदीक्षा की भावना भाई और वह सामायिक और ध्यान के माध्यम से अपनी समतामयी साधना का अभ्यास बढ़ाने में लग गया; अतः उसकी निद्रा भी अल्प रह गयी थी। भोजनादि भी एकबार, मौन और विरक्तता सहित, अनाहारी स्वभाव के लक्ष्य पूर्वक और अनाहारी दशा की भावना सहित होता था।
अंतरंग वैराग्य के ज्वार को कौन रोके? भव्यजीवों ने तो अनुमोदना ही की। अब वे मुनिराज गुणभद्र जी निर्दोष चर्या का यथाशक्ति पालन करते। पहले से ही शुद्ध भोजन करने वाले श्रावक के यहां अनुद्दिष्ट भोजन करते, कोलाहल पूर्ण शहरों से दूर रहते । आरम्भपूर्ण कार्यों की प्ररेणा तो दूर, अनुमोदना भी नहीं करते।
प्राय: मौन साधना। कभी भव्यों के भाग्य से कुछ उपदेश हो जाते। संघ के ब्रह्मचारी भाइयों की विशेष प्ररेणा एवं सहयोग से कुछ लिखा जाये, वह भी स्वयं को अकर्ता ज्ञाता स्वरूप ही अनुभवते हुए, स्वान्त:सुखाय अथवा निज भावना निमित्त। कौन आया, कौन गया, किसने नमस्कार किया, स्तुति की अथवा किसने कुछ कह दिया- इनसे कोई प्रयोजन नहीं। मान-अपमान में समता। मात्र आत्मार्थ में सावधान। जो देखता धन्य हो जाता। जीवन के अन्तिम समय में योग्यरीति से समाधि कर अपना तो कल्याण किया ही, धर्म की भी मंगलमयी प्रभावना करते हुए, हमारे लिए आदर्श छोड़ गये।
कोटिश: नमन! उनके पावन एवं तरण-तारण चरणों में।

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