लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

संयुक्त परिवार

एक था बाईस वर्ष का युवक स्वराज। उसका संयुक्त परिवार था। अनुशासन, प्रेम,शील और संस्कृति की मर्यादाओं में सुरक्षित एवं प्रतिष्ठित। युवक के दो बड़े भाई व एक बहिन भी थी। सबका विवाह हो गया था। उनके बच्चे भी थे। एक वर्ष पूर्व स्वराज का भी विवाह एक पढ़ी-लिखी कन्या दामिनी से हो गया था।
उसे छोटा होने से व्यापार में अधिक समय देना पड़ता और दामिनी को गृहकार्य एवं वृद्ध माता-पिता की सेवा में; अतः मौज-मस्ती के लिए समय ही नहीं मिलता और आधुनिक जिन्स आदि पहनने, होटल ,सिनेमा या बाजार घूमने ,काम के समय टी.वी. आदि देखने पर प्रतिबन्ध था। वह मंदिर भी सास या जेठानी के साथ जाती। भोजन भी महिलाएँ अलग करतीं और पुरुष अलग, पहिले कर लेते।
सुविधानुसार स्वाध्याय आदि में भी पहुँचना आवश्यक था। घरेलू कार्यों से दूर, छात्रावास में पढ़ने वाली दामिनी इस वातावरण को अपनी स्वच्छन्दता के लिए बाधक समझती और भीतर-भीतर दुःखी रहती हुई, पति को न्यारे रहने के लिए दबाव डालती। पति भी धन और यौवन के मद में ऐसा ही विचार कर रहा था।
बुद्धि भी भवितव्य के अनुसार हो जाती है, सहायक भी मिल जाते है। इस नियम के अनुसार, उसने इस सम्बन्ध में स्वाध्याय गोष्ठी में प्रवचन करने वाले सदैव गम्भीर और प्रसन्न मुद्रायुक्त प्रौढ़ पंडितजी को एक पत्र लिखकर दिशा-निर्देश माँगा।
पत्र पढ़कर पंडितजी गम्भीर हो गये और उन्होंने पत्र द्वारा ही उसको सम्बोधन किया। संयुक्त परिवार में शील, संस्कृति एवं सम्पत्ति की सुरक्षा रहती है। विनय, सेवा ,वात्स्लय के संस्कार रहते है। लोक-व्यवहार में सुविधा रहती है। सन्तान के जन्म एवं पालन-पोषण में बड़े लोगों के अनुभवों का लाभ मिलता है। विपत्ति के समय में असहायपना नहीं लगता। समाज में प्रतिष्ठा रहती है। दुर्व्यसनों से बचे रहते है, इत्यादि अनेक लाभ है।
एकाकी परिवार में गृहस्थी के अनुभव न होने से कदम-कदम पर गलतियाँ होती है। सन्तान के जन्म एवं पालन-पोषण में अनेक कठिनाइयाँ आती है। बुद्धि स्वार्थी हो जाती है। बड़ो का अनुशासन न रहने से विनय ,वात्सलय ,उदारता आदि गुण नहीं रह पाते ,मात्र मोहवश संकीर्ण विचारों में घुटते रहते है। पुण्य के उदय में तो कुछ होश नहीं रहता ,परन्तु पाप के उदय में किं कर्त्तव्य हो भटकता फिरता है।
भौतिक सुख-सुविधाओं में रहने से अमर्यादित भोग ,खान-पान व वेशभूषाएँ अन्तर की दुर्वासनाओं को उत्तेजित करती रहती है। पति व्यापार में व्यस्त ,बच्चे स्कूल में और पत्नी अकेली घर में होने से ,शील-हरण और चोरी आदि घटनाएँ ,नौकरों व अन्य लोगों के द्वारा होती हुई सुनी-पढ़ी जाती है। रोगादि के समय परिवार वाले ही काम आते है।
अलग रहने पर कहीं भी जाना हो तब घर का ताला लगाकर जाना पड़ता है। बच्चों की समस्या भी बनी रहती है। उन्हें दादा-दादी ,ताऊ,चाचा आदि का दुलार भी नहीं मिल पाता इत्यादि अनेक हानियाँ है।
अनेक पत्रोत्तरों के माध्यम से इन बिन्दुओं पर जब विचार विमर्श हुआ तब अनेक तथ्य स्पष्ट हुए और पत्रोत्तरों को जब स्वराज के साथ-साथ उसकी पत्नी दामिनी एवं परिवारीजनों ने पढ़ा तब उनकी आँखे खुली और एक संयुक्त बैठक में एक-दूसरे की पीड़ाओं को समझते हुए सुधार भी किया और भविष्य की व्यवस्थित रुपरेखा बनाते हुए संयुक्त ही रहने का पक्का मन बना लिया।
परिवारजनों ने उन पत्रों को पण्डितजी से व्यवस्थित और विस्तृत करवा कर उनका प्रकाशन भी कराया। जिससे कर्तृत्त्व के अहंकार ,स्वच्छन्द भोगवृत्ति एवं संकीर्ण विचारों से टूटते हुए परिवारों की भी रक्षा हो सके। भारतीय संस्कृति के ह्रास ,प्रेम-विवाह ,पति-पत्नी के सम्बन्ध-विच्छेद,अनेक प्रकार के दुराचरण,अराजकता, असुरक्षा, बच्चों के उत्पीड़न,वृद्धों की योग्य सेवा-समाधि न होने, रोगों की वृद्धि आदि अनेक समस्याओं का प्रमुख कारण एकाकी परिवार भी है।
निवृत्तिमार्ग में जो संघ का महत्त्व है, वही गृहस्थ जीवन में संयुक्त परिवार का समझना चाहिए और सदैव ध्यान रखना चाहिए कि संघ में शक्ति भी है और सुरक्षा भी।

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