परिणामों का फल
एक नये श्रोता राजेश ने एक विद्वान विवेकजी से विनम्र होकर पूछा -"स्थूल रूप से मनुष्य को स्वर्ग और नरक कैसे मिलता है ?"विद्वान -"तुम अपनी जिह्वा और मन के अनुसार चलोगे अर्थात तामसिक भोजन या स्वच्छन्दतापूर्वक भोजन करोगे अर्थात चाहे जब (दिन-रात ), चाहे जहाँ ,चाहे जैसे (खड़े हुए या चलते-फिरते जूता आदि पहने ), चाहे जैसा (भक्ष्य या अभक्ष्य )खाओगे या पियोगे तथा कषायों के वशीभूत होकर हिंसा ,चोरी ,कुशील, परिग्रह आदि पापमय वचन बोलोगे अथवा मन में विपरीत या बुरे विचार भी करोगे तो यहीं तुम्हें नरक जैसे कष्ट होंगे और आगे नरक या तिर्यंच दुर्गति में जाओगे।
तथा यदि योग्य सात्त्विक भोजन ,अच्छे भावों पूर्वक करोगे , वाणी से हित-मित-प्रिय धर्ममय ,सत्य वचन बोलोगे , अपने ह्रदय में अच्छे और सच्चे विचार रखोगे, तो तुम्हारी चेष्टायें भी सहज ही उत्तम होंगी। जीवन शांतिमय एवं प्रशंसनीय होगा और आगे भी स्वर्ग या मनुष्यरूप सदगति में जाओगे।
नरक और तिर्यंचगति अशुभभावों का फल है। मनुष्य और देवगति शुभभावों का फल है।
मुक्ति तो रत्नत्रयमय वीतराग भावों का फल है ; अतः ऐसा उत्तम अवसर पाकर, हमें वीतरागता के लिए, रागादि भावों से न्यारे, निज शुद्धात्मा की उपासना करनी चाहिए। स्वर्गादिक तो कृषि में अनाज के साथ होने वाले भूसे के समान, स्वयमेव मिल जाते हैं। परन्तु इनकी वांछा करना कदापि उचित नहीं। "