लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

क्षमा और चमत्कार

सेठ लखपतराय ने व्यापार के लिए अपने घनिष्ठ मित्र सुखदेव के पुत्र धनदेव को पाँच लाख रुपये दे दिये; जिससे धीरे -धीरे उसका व्यापार भी जम गया और पूँजी भी हो गयी, परन्तु धनदेव की नीयत रुपया लौटाने की नहीं हुई।
एक बार माँगते समय काफी कहा - सुनी हो गयी, तब से परस्पर आना-जाना और बोलना भी बन्द हो गया ; जबकि धनदेव का घर सेठ लखपतराय की दुकान से घर के रास्ते में ही पड़ता था।
लगभग दस वर्ष हो गये। सेठजी के मन में धन की हानि की अपेक्षा सम्बन्ध बिगड़ने और अन्तरंग में बैर की गाँठ पड़ जाने का दुःख अधिक था।
एक बार दशलक्षण पर्व पर उनका मन किसी सिद्धक्षेत्र पर जाने का हो गया, जिससे बारह दिन व्यापार एवं घरेलू उलझनों से निवृत्ति मिले और मन को कुछ शान्ति मिले।
‘जहाँ चाह है वहाँ राह मिलती है’ के अनुसार नगर के दूसरे साधर्मीजनों के साथ वे श्री सोनगिरजी पहुँचे। वहाँ वंदना,पूजनादि के साथ प्रवचन सुनने का लाभ भी मिल गया। प्रवचन तो वे कभी-कभी अपने नगर में भी सुनते थे, परन्तु वहाँ निवृति न होने से न तो मन एकाग्र होता था और न प्रवचन का मनन करने के लिए समय मिल पाता। यहाँ वे बाधाएँ नहीं थीं; अतः अच्छे दिन बीते, परिणाम भी भीगे। अन्त में क्षमावाणी के अवसर पर प्रवचन सुनते-सुनते ही भीतर-भीतर रोते से रहे। पश्चात्ताप हुआ - मैंने व्यर्थ ही अनित्य धन के चक्कर में अपने परिणाम मलिन किये।
प्रवचन के बाद श्रीयुत पंडितजी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे और बोले- " यद्धपि मुझे कषाय होने का दुःख तो हो रहा है, परन्तु अपनी भूल समझ में नहीं आ रही।"
पण्डितजी -
१. तुमने वस्तु के स्वतन्त्र परिणमन का विचार नहीं किया।
२. अपने कर्म के उदय का विचार नहीं किया।
३. कषायों से होने वाले दुःख और कर्मबन्ध का विचार नहीं किया।
४. धन और जीवन की असारता का विचार नहीं किया।
५. चेतन की अपेक्षा अचेतन धन को अधिक महत्त्व दिया
६. पुराणपुरषों की क्षमा, उदारता आदि का विचार नहीं किया।
सेठजी कुछ सोचने लगे।
पण्डितजी-“उस लड़के के प्रति समस्त दुर्भाव छोड़ो और मिष्ठान्न लेकर, उसके पास जाकर यही कहना कि बेटा! सारी गलती मेरी है, अब क्षमा करो।”
सेठ की समझ में आ गया। वे लौटकर सीधे धनदेव के घर पहुँचे। भोजन का समय था। धनदेव का लड़का द्वार खोलकर देखते हुए खुशी से बोलने लगा -“पापाजी पड़ोस वाले ताऊजी बाबा आए है।”
तब तक वे आँगन में पहुँच गए। मिष्ठान्न मेज पर रखकर बोले -“बेटा सारी गलती मेरी है, अब क्षमा करो।”
इतना कहकर धनदेव तिजोरी से पाँच लाख रुपये लेकर आया और सेठ को देने लगा; परन्तु सेठ ने इन्कार कर दिया और बोले - मैं तो क्षमावाणी मनाने आया हूँ, रुपए लेने नहीं।
धनदेव के अति आग्रह करने पर सेठ ने अपनी ओर से पाँच लाख रुपये मिलाकर एक परोपकार फण्ड बनाने की घोषणा कर दी।
धनदेव हर्ष विभोर होते हुए बोला -“पाँच लाख मेरे भी इसमें और मिला लें और एक स्थायी ट्रस्ट बनाकर उसमें अपने व्यापार से होने वाली आय का भी पाँच प्रतिशत निरन्तर देते रहेंगे, जिससे धार्मिक, नैतिक शिक्षा, असहाय-सहयोग, चिकित्सा सहयोग आदि कार्य होते रहेंगे।”
सेठजी ने प्रसन्न हो उसे गले से लगा लिया। सबने प्रसन्नता से भोजन किया। फिर तो वे धर्म कार्यों एवं लोकापकार के कार्यों में होड़पूर्वक वात्सल्य भाव से प्रवर्तन करने लगे। धनदेव को आज धन की सार्थकता समझ में आ गई थी। जिसने भी सुना और देखा, सहज भाव से धन्य-धन्य कह उठा।

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