संयम की दृढ़ता
पिता विरक्त हो साधु हो गये, पुत्र भी ब्रह्मचर्य व्रत ले संघ में रहने लगा। एक दिन गर्मी अधिक थी, विहार करते हुए पिता ने पुत्र की व्याकुलता को समझा और मोह वश कह दिया- हम लोग आगे मिलेंगे, तुम धीरे-धीरे आ जाना। पुत्र नदी के समीप अकेला रह गया। उसका मन पानी पीने का हुआ, परन्तु तुरन्त उसने विचार किया- भले ही स्थूल रूप से कोई नहीं देख रहा, परन्तु सर्वज्ञ के ज्ञान से तो कुछ भी छिपना सम्भव नहीं है और शरीर के मोहवश मैं अपना संयम क्यों छोड़ू। वह शांत चित्त हो बैठ कर तत्त्वविचार पूर्वक तृषा परिषह जीतता रहा, परन्तु आयु का उसी समय अन्त आने से उसकी देह छूट गयी और संयम की दृढ़ता एवं शान्त परिणामों से स्वर्ग में देव हुआ।
तत्काल अवधिज्ञान से समस्त प्रसंग समझकर, वह उसी पुत्र का वेश बनाकर संघ में आया। उसने अन्य साधुओं को नमस्कार किया, परन्तु पिता को नहीं। वह बोला- " साधु होकर आपको ऐसा मोह एवं छल करना उचित नहीं था। मैंने अपना नियम नहीं छोड़ा और देह छोड़कर स्वर्ग में देव हुआ। हे गुरुवर! आप भी प्रायश्चित्त करें।"
पिता ने भी प्रायश्चित्त किया और साधना में सचेत हो, तल्लीन हो गये।