लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

संतोष और विवेक

सुमेर, असहाय, वृद्ध एवं शरीर से रोगी था। उसका एक पैर बस दुर्घटना में कट गया, फिर भी वह अपने घर में कभी बाहर चबूतरे पर बैठा हुआ भजन गाता और मोहल्ले वाले लोगों के कुछ काम करता रहता। महिलायें अपने छोटे बच्चों को उसके समीप छोड़ जाती। वह उन्हें खिलाता रहता तथा उन्हें अच्छी बातें सुनाता रहता। अपने भाग्य पर संतोष रखता हुआ, भगवद् भक्ति में चित्त को लगाये रखता।
परिवार में कोई नहीं था, पूरा मोहल्ला ही उसका परिवार था। भोजन भी कभी बना लेता। प्रायः महिलाएं अपने घर से बचा हुआ भोजन सहज ही दे जाती।
एक बार सुमेर को बहुत तेज ज्वर आया। उसने विचार किया कि अब अन्तिम समय है। धर्मार्थ औषधालय के वैद्यजी एवं मंत्री जी को बुलाया और भी अनेक लोग आ गये। उसने अपना घर औषधालय के लिए दान में लिख दिया। निःशल्य होकर, सबसे क्षमाभाव करके, शान्त-भावोंपूर्वक देहादि से भिन्न,निजात्मा एवं परमात्मा का विचार करते हुए देह छोड़ दी ।

बाद में उसके घर का जीर्णोद्धार करने के लिए जब नींव खोदी, तब उसमें स्वर्ण,चांदी के आभूषण,सिक्के आदि बहुत धन एक घड़े में भरा हुआ मिला।
एक व्यक्ति ने कहा- " देखो! अपने घर में ही इतना धन होने पर भी व्यर्थ परेशान रहा।"

दूसरा स्वाध्याय भाई बोला-" बाह्य सम्पदा तो पुण्योदय बिना नहीं मिलती परन्तु वह अपने संतोष, परोपकार एवं भक्ति की भावना से ऐसी स्थिति में भी कितना प्रसन्न रहा और कैसे शान्त परिणामों से देह छोड़ी। सत्य ही कहा है कि सुख के लिए सम्पदा नहीं,विवेक और संतोष चाहिए।"
उसी समय एक तत्त्वाभ्यासी महिला ने कहा,-"अरे! ऐसे ही अपने घर में अर्थात् आत्मा में अनन्त गुणों का भण्डार भरा है। ज्ञान और आनंद का सागर लहरा रहा है, परन्तु उसे देखे बिना हम भी तो भोगों के भिखारी हो रहे हैं। हमें भी अपना ज्ञान और सुख अपने में ही देखना श्रेयस्कर है।"
विवेकी ट्रस्टियों ने उसके धन का एक अलग से फण्ड बना कर उसकी स्मृति में प्रतिवर्ष एक नैतिक एवं एक चिकित्सा शिविर लगाने की घोषणा कर ही दी।
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