लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

सादा भोजन

एक थे ब्रह्मचारी ज्ञानेन्द्रजी। आत्मार्थ की भावना से भरा हुआ था जिनका हृदय। ज्ञान -ध्यान के अभ्यास में प्रयत्न -पूर्वक लगे रहते थे। बाहरी प्रपंचो से कोसों दूर, एक ग्राम से २ कि.मी.दूर एकान्त में स्थित एक तीर्थ क्षेत्र पर सामान्य कमरे में रहते थे। श्रावक लोग खाद्य -सामग्री दे जाते और वे अपना भोजन स्वयं बनाकर खाते।
क्षेत्र की स्वच्छता,स्वाध्याय आदि का तो ध्यान रखते, परन्तु विकास की अन्य योजनाओं से अत्यन्त निस्पृह रहते। किसी बड़े कार्यक्रम के समय तो वे प्रायः अन्यत्र चले जाते थे।
एक दिन एक श्रावक मालपुआ आदि मिष्ठान्न लाया। उन्होंने अस्वीकार कर दिया। विशेष आग्रह करने पर, शिक्षा देने के अभिप्राय से एक मालपुआ वहीं दीवाल पर लगे दर्पण पर रगड़ दिया, जिससे उसमें धुँधला (अस्पष्ट ) दिखने लगा। फिर उन्होंने एक सूखी रोटी उस पर रगड़ दी, जिससे वह फिर चमकने लगा। तब वे बोले -"भाई! इसीप्रकार गरिष्ट मिष्टान्न आदि हमारे उपयोग को मलिन करते हैं और साधना में बाधक होते हैं। "
अतः हमें स्वाद पर दृष्टि न रखते हुए, संयम के अनुकूल सादा भोजन करना ही हितकर है। वह सहज और सस्ता होने से, उपलब्ध भी सहजता से हो जाता है। उसके बनने में आरम्भ भी कम होता है, समय भी कम लगता है और सादगी-पूर्ण जीवन के लिए कमाना भी कम पड़ता है, अतः गृहस्थ को भी सात्विक भोजन ही करना चाहिए, जिससे हमारे परिणाम भी शान्त रहें और हम निराकुलता से धर्मध्यान भी कर सकें।
उन भाई को सादा भोजन एवं सादे जीवन की शिक्षा सहज ही समझ में आ गयी।

3 Likes