लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

सिद्धान्त और प्रयोजन

एक महिला एक बार प्रवचन सुनकर आयी-“समस्त परिणमन स्वतंत्र होता है, कोई किसी का कर्त्ता नहीं है। बाह्य-सामग्री पुण्य के उदय से मिलती है।”
कथन की अपेक्षा और प्रयोजन को समझे बिना, वह घर पर लेटे हुए विचार करने लगी कि मैं उठकर काम क्यों करूँ ? थोड़ी देर बाद उसे भूख लगी। उसकी समझ में कुछ न आया। वह उन्हीं पण्डितजी के समीप पहुँची और बोली-
“मेरे घर का कुछ तो मेरे बिना किये हुआ नहीं। न चूल्हा जला और न भोजन बना।”
तब पण्डितजी ने कहा- “बेटी ! एक कार्य में अनेक कारण होते हैं। हमें योग्य पुरुषार्थ करना चाहिए। फिर कार्य हमारे विकल्प के अनुसार हो जाये, तब भी मिथ्या अहंकार नहीं करना चाहिए और न हो पाये तो भी आकुल होकर दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए।
हमें अपने कार्य के लिए भी दूसरों के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए, परन्तु भूमिकानुसार निमित्त-नैमेत्तिक सम्बन्ध को भी भलीप्रकार समझकर योग्य प्रवर्तन करना ही हितकर है।
’योग्यतानुसार कार्य होता है’ - ऐसा सांगोपांग बिना समझे, हमें प्रमादी या स्वच्छंद नहीं होना चाहिए और न अपनी इच्छानुसार परिणमन की आशा ही करनी चाहिए।
इच्छानुसार परिणमन तो हमारे पुण्योदय में सहज ही होता दिखाए देता है और प्रतिकूल परिणमन भी पाप के उदय में होता देखा ही जाता है ; इससे भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। विषय का सांगोपांग समझे बिना भ्रम नहीं मिटता और राग टूटे बिना विकल्प नहीं मिटते।”
उस स्त्री की समझ में कुछ-कुछ आया और उसने स्वाध्याय का नियम ही ले लिया और वस्तु के अनेकांतमयी स्वरूप को समझने लग गयी।

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