द्रव्य और पर्याय के भिन्न प्रदेश

सिद्धान्त और प्रयोजन - ये दो अलग अलग चीज है । इसके लिए एक कथा भी देख सकते है ।


समयसार में गाथा 181-83 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने ज्ञान और राग में प्रदेशों की भिन्नता की चर्चा की है । आपका प्रश्न शायद उसी के आधार से होगा । यदि कोई और प्रकरण से भी हो, फिर भी अभी दो बिन्दु पर विचार किया जा सकता है:

  1. जीव तत्त्व (द्रव्य) और आस्रव तत्त्व (पर्याय) - ये दो स्पष्ट रूप से भिन्न है । अतः द्रव्य और पर्याय को इस आधार पर भिन्न बताया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं ।

  2. रही बात प्रदेशों की भिन्नता की, सो कभी कभी अति खींचकर भी कुछ बातों का निषेध किया जाता है । वहाँ प्रयोजन ध्यान में रखना चाहिए । जिसे राग और ज्ञान में कोई अंतर ही नहीं लगता, जिसप्रकार ज्ञान को अपना मानता है, उसीप्रकार राग को भी अपना ही मानता है, भेद नहीं करता, तो उसे समझाते हुए कभी अध्यात्म में ऐसे भी कहा जा सकता है कि ‘राग और ज्ञान अथवा द्रव्य और पर्याय के प्रदेश भिन्न भिन्न है’ । सो सर्वथा ऐसा नहीं समझना चाहिए, प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए उसका अर्थ किया जाएगा ।

जैसा कि पण्डित टोडरमल जी लिखते है:

जैसे किसीको अति शीतांग रोग हो, उसके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषधियाँ कही हैं; उन औषधियोंको जिसके दाह हो व तुच्छ शीत हो वह ग्रहण करे तो दुःख ही पायेगा। इसीप्रकार किसीके किसी कार्यकी अति मुख्यता हो उसके अर्थ उसके निषेधका अति खींचकर उपदेश दिया हो; उसे जिसके उस कार्यकी मुख्यता न हो व थोड़ी मुख्यता हो वह ग्रहण करे तो बुरा ही होगा।

- मोक्षमार्गप्रकाशक, आठवाँ अधिकार, अनुयोगों में दिखाई देनेवाले परस्पर विरोध का निराकरण, p. 299

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