द्रव्य और पर्याय के भिन्न प्रदेश

वस्तु तो अखंड अभेद है, फिर “द्रव्य और पर्याय के प्रदेश भी भिन्न है” ऐसा किस अपेक्षा से कहते है ?

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सिद्धान्त और प्रयोजन - ये दो अलग अलग चीज है । इसके लिए एक कथा भी देख सकते है ।


समयसार में गाथा 181-83 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने ज्ञान और राग में प्रदेशों की भिन्नता की चर्चा की है । आपका प्रश्न शायद उसी के आधार से होगा । यदि कोई और प्रकरण से भी हो, फिर भी अभी दो बिन्दु पर विचार किया जा सकता है:

  1. जीव तत्त्व (द्रव्य) और आस्रव तत्त्व (पर्याय) - ये दो स्पष्ट रूप से भिन्न है । अतः द्रव्य और पर्याय को इस आधार पर भिन्न बताया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं ।

  2. रही बात प्रदेशों की भिन्नता की, सो कभी कभी अति खींचकर भी कुछ बातों का निषेध किया जाता है । वहाँ प्रयोजन ध्यान में रखना चाहिए । जिसे राग और ज्ञान में कोई अंतर ही नहीं लगता, जिसप्रकार ज्ञान को अपना मानता है, उसीप्रकार राग को भी अपना ही मानता है, भेद नहीं करता, तो उसे समझाते हुए कभी अध्यात्म में ऐसे भी कहा जा सकता है कि ‘राग और ज्ञान अथवा द्रव्य और पर्याय के प्रदेश भिन्न भिन्न है’ । सो सर्वथा ऐसा नहीं समझना चाहिए, प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए उसका अर्थ किया जाएगा ।

जैसा कि पण्डित टोडरमल जी लिखते है:

जैसे किसीको अति शीतांग रोग हो, उसके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषधियाँ कही हैं; उन औषधियोंको जिसके दाह हो व तुच्छ शीत हो वह ग्रहण करे तो दुःख ही पायेगा। इसीप्रकार किसीके किसी कार्यकी अति मुख्यता हो उसके अर्थ उसके निषेधका अति खींचकर उपदेश दिया हो; उसे जिसके उस कार्यकी मुख्यता न हो व थोड़ी मुख्यता हो वह ग्रहण करे तो बुरा ही होगा।

- मोक्षमार्गप्रकाशक, आठवाँ अधिकार, अनुयोगों में दिखाई देनेवाले परस्पर विरोध का निराकरण, p. 299

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आपने जो बताया वह तो समझ आया, पर यहाँ एक और प्रश्न खड़ा होता है -
यहाँ प्रयोजन के लिए इतना खींचा कि पूरा सिद्धांत ही उलट-पलट हो गया ( I mean प्रदेश भी अलग-अलग है कहना तो सिद्धांत उलट पलट करने जैसा ही है) । छमा करे, यहाँ बस अपनी मंद बुद्धि से कहते है, आचार्य कि कोई बात गलत नहीं ऐसा मुझे निश्चय है |


अब यदि इस प्रकार से कोई माने, for example lets consider 3 scenarios -

Case1: वनमाला को लक्ष्मण जी पसंद थे, पर वे उन्हें नहीं मिल पाए, तब वनमाला ने suicide करने का निर्णय किया
Case2: on the other hand, बसंतसुंदरी को युधिष्ठिर जी पसंद थे, पर वे उन्हें नहीं मिल पाए, तब बसंतसुंदरी राजमहल छोड़कर, एक आश्रम में जाकर निदान पूर्वक तप करने लगी कि 'अगले जन्म में युधिष्ठिर ही मेरे पति होये' |
Case3: One more case - चर्या, नयनसुन्दरी आदि 11 कन्याओ का विवाह युधिष्ठिर से होना निश्चित हुआ था, परन्तु जब उन्हें खबर मिली के युधिष्ठिर मर गए है, तो उन 11 कन्याओ ने कुवारी, सुंदरी होने पर भी, आर्यका के व्रत अंगीकार करना स्वीकार किया, जबकि उनकी युधिष्ठिर से सगाई भी नहीं हुई थी, मात्र रिश्ता तय हुआ था, बाद में जब पता चला की युधिष्ठिर अभी जिन्दा है तब भी उन ११ कन्याओ को अपने दीक्षा लेने का खेद नहीं हुआ अर्थात उन्होंने सभी पुरुष का स्वार्थ तजा

अब किसी में यदि उन 11 कन्याओ जैसे व्रत स्वीकार करने कि सामर्थ न हो और वह वनमाला के जैसे suicide भी नहीं करना चाहता हो तो क्या जो बसंतसुंदरी ने किया वह ठीक था ? क्योंकि जब पता चला की युधिष्ठिर अभी जिन्दा है और जब युधिष्ठिर को पता चला की बसंतसुंदरी उनके लिए तप करती है तो उनका मिलन हुआ और बसंतसुंदरी का निदान /तप करना सफल हुआ

In short I’m asking - “कि यदि अनाचार से बचने के लिए, निदान किया जाए तो क्या वह भी प्रयोजन कहलायेगा?”

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  1. प्रयोजन और सिद्धान्तों का क्षेत्र अलग है । माँ दूध में पानी मिलाएं तो समझदारी और दूध बेचनेवाला यदि करे तो चोरी । अब यहाँ कैसे कहे कि प्रयोजन ने सिद्धान्त ही बदल दिया?

  2. पोषण और कथन में अंतर है । For more on this, pl go through this thread.


It is difficult to comment on either of the three cases. All the stories carry a particular message and were written, more or less, for that particular purpose. Mere narration of how the events took place could be a secondary thing but not a priority.


क्या इसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी बात को, प्रयोजन का बहाना बनाकर, उलट पलट किया जा सकता है ?

→ यदि प्रयोजन सच्चा है तो सिद्धांतों पर कोई आँच नहीं आती ।


तुम कहो सो सही, हम कहें वो गलत -:thinking:

Can’t put it better than what is already said by पण्डित टोडरमल जी -

यहाँ कोई तर्क करे कि जैसे नानाप्रकारके कथन जिनमतमें कहे हैं वैसे अन्यमतमें भी कथन पाये जाते हैं। सो अपने मतके कथनका तो तुमने जिस-तिसप्रकार स्थापन किया और अन्यमतमें ऐसे कथनको तुम दोष लगाते हो? यह तो तुम्हें राग-द्वेष है?

समाधानः – कथन तो नानाप्रकारके हों और एक ही प्रयोजनका पोषण करें तो कोई दोष नहीं, परन्तु कहीं किसी प्रयोजनका और कहीं किसी प्रयोजनका पोषण करें तो दोष ही है। अब, जिनमतमें तो एक रागादि मिटानेका प्रयोजन है; इसलिये कहीं बहुत रागादि छुड़ाकर थोड़े रागादि करानेके प्रयोजनका पोषण किया है, कहीं सर्व रागादि मिटानेके प्रयोजनका पोषण किया है; परन्तु रागादि बढ़ानेका प्रयोजन कहीं नहीं है, इसलिये जिनमतका सर्व कथन निर्दोष है। और अन्यमतमें कहीं रागादि मिटानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं, कहीं रागादि बढ़ानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं; इसीप्रकार अन्य भी प्रयोजनकी विरुद्धता सहित कथन करते हैं, इसलिये अन्यमतका कथन सदोष है। लोकमें भी एक प्रयोजनका पोषण करनेवाले नाना कथन कहे उसे प्रामाणिक कहा जाता है और अन्य-अन्य प्रयोजनका पोषण करनेवाली बात करे उसे बावला कहते हैं।

- मोक्षमार्ग प्रकाशक, आठवाँ अधिकार, pp. 302-03


The answer to this question can be derived from the lines underlined in the above quote.

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द्रव्य और पर्याय का स्वरूप ०१

द्रव्य एवं पर्याय का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है। द्रव्य एवं पर्याय का क्या रहस्य है - यह समझने जैसा है क्योंकि जीव जबतक द्रव्य-पर्याय में भेदाभेद कैसा है ? यह नही जान लेता तबतक सच्चा श्रद्धान नही होता। यहाँ द्रव्य-पर्याय सम्बन्धी कुछ विशेष बिंदुओं पर प्रकाश डालते है। अगर हम सम्पूर्ण ग्रन्थसमुद्र को देखे तो ज्ञानप्रधान एवं दृष्टिप्रधान ऐसे दो कथन मिलते है। जैसे कि जीव एकमात्र ज्ञायकभाव है , ज्ञान-दर्शन-चारित्र से भी रहित है - यह दृष्टिप्रधान कथन है। जबकि जीव सुख , ज्ञान , दर्शन , वीर्य , चारित्र इत्यादि अनन्त गुणों का एक पिंड है यह ज्ञानप्रधान कथन है। ज्ञानप्रधान एवं दृष्टिप्रधान कथन में भेद समझना आवश्यक है। दृष्टि के समय तो जीव स्वयं को समस्त पर्यायों से रहित ही जानता है लेकिन तब भी जैसे दीपक का जलना एवं प्रकाश का होना साथ में होता , ऐसे ही सम्यग्दर्शन के होते ही सम्यग्ज्ञान प्रगटता है। उस सम्यग्ज्ञान रूप प्रमाणज्ञान के बल से जीव पदार्थ का निश्चय-व्यवहार के संतुलन से निर्णय करता है। अब हमारी यहाँ चर्चा का जो विषय है , वह द्रव्य एवं पर्याय पर केंद्रित है। इनमें भेदाभेदपना विचारने से पहले इनके स्वरूप को ही थोड़ा विस्तार से देखते है। मोक्षशास्त्र जी मे कहतें है कि जो गुण और पर्यायों से संयुक्त हो वह द्रव्य है। अब यहाँ जो कथन है वह ज्ञानप्रधान है क्योंकि दृष्टिप्रधान कथन से तो द्रव्य में पर्याय से भेदपना कहा है। तथा अगर हम द्रव्य को और सूक्ष्मता से देखे तो द्रव्य में अनन्त गुण है और प्रत्येक गुण की त्रिकाल की मिलाकर अनन्त पर्याये होती है। यह गुण ही द्रव्य की अचल संपदा है तथा यह ही द्रव्य का आधार है। यदि द्रव्य में से गुणों का अभाव हो जाये तो द्रव्य में कुछ बचेगा ही नही। अथवा कहें तो द्रव्य ही नही बचेगा। अब कोई कहता है कि गुणों का कार्य किसप्रकार होता है ? तो यहां कहतें है कि गुणों का जो परिणमन अथवा उनका जो कार्य अथवा उनका जो विकार , वह पर्याय है। तथा श्री प्रवचनसार जी की गाथा ८० की टीका एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा जी में भी पर्याय का विशेष वर्णन आया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा जी में आचार्य भगवान कहतें है कि एक अवस्था का बदलकर दूसरी अवस्था का द्रव्य में प्रगटना ही पर्याय है। जैसे स्वर्ण रूप कुंडल को स्वर्णकार कड़े का रूप प्रदान कर देता है। तब यहां कुंडल रूप अवस्था का व्यय एवं कड़े रूप अवस्था का उत्पाद द्रव्य में हुआ है। पर्याय का प्रतिसमय उत्पाद एवं व्यय ही द्रव्य में होता रहता है। हर समय एक नई अवस्था द्रव्य में प्रगटती है तथा इस पर्याय की पलटन से ही गुणों का परिणमन होता है। तथा इस एक पर्याय का काल कितना होता है ? एक समय। यह एक समय ही कितना सूक्ष्म है तथा एक सेकंड मात्र में द्रव्य में प्रतिसमय का काल लिए हुए कितनी पर्याय उत्पन्न एवं नष्ट भी हो जाती है , उसका अंदाज़ा इस वर्णन से लगाया जा सकता है – विज्ञान के अनुसार एक सेकंड में एक अरब नैनोसेकंड होते है तथा एक नैनोसेकंड में एक हजार पीकोसेकंड होते है। तथा एक आवली जिसमें जघन्य युक्तासंख्यात समय होते है , और वह आवली एक पीकोसेकंड से भी कुछ कम है। तब यहाँ एक सेकंड में कितने समय होते है एवं एक सेकंड में ही द्रव्य में कितनी पर्याये पलट जाती है , इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इसलिए विशेष यह है कि द्रव्य में यद्यपि कोई फर्क न पड़ रहा हो जैसे की सोने का कुंडल दस वर्ष तक भी कुंडल रूप अवस्था मे हो लेकिन परिणमन तो उसमें निरंतर चल ही रहा है। गुण भी द्रव्य में तबतक ही अपना स्थायित्व बनाए हुए है , जबतक वह परिणम रहे है। अगर उनका परिणमन रुका तो नाही वह गुण बचेंगे न द्रव्य।

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यहाँ आपने ज्ञान और राग का अर्थ

जीव द्रव्य और उसके आस्रव पर्याय लिया है और उससे द्रव्य पर्याय में प्रदेश भिन्नता भास रही है।

किन्तु 181-183 की टीका में जीव तत्व - और जीव के आस्रव तत्व की बात ही नहीं है।

यहाँ तो जीव को जाननक्रिया से लक्षित करा के ज्ञान स्वरूपी सिद्ध कर,

पुद्गल क्रोधादि को उसके क्रोधक्रिया से लक्षित करा कर,

जीव पुद्गल में वस्तु भिन्नता से प्रदेश भिन्नता सिद्ध कर उनमें आधार आधेय संबंध का निषेध किया जा रहा है।

जीव रागादि और पुद्गल रागादि ऐसे दों प्रकार के भावकर्म के अस्वीकार से कितनी ही गाथाओं का अर्थ विपरीत हो रहा है उसका यह एक दृष्टांत है।

जीव रागादि और पुद्गल रागादि की चर्चा भी फोरम पर हुई है।

गाथा 181-183 की टीका में द्रव्य-पर्याय के प्रदेश भिन्नता की बात नही मिल रही। लाल लाइन किये गए सभी वाक्य जाननक्रिया रूप पर्याय का ज्ञान स्वभाव से अभिन्नता ही बता रहे हैं। इतना ही नहीं… आधार-आधेय की अभिन्नता ही इस टीका की मुख्य बात है।

टीका के भावार्थ में भी स्पष्ट दिया है कि क्रोधादि भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म और ज्ञान में प्रदेश भिन्नता है क्योंकि वे सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम है।

प्रथम तो क्रोधादि को पुद्गल का परिणाम कहाँ है, जीव आस्रव नहीं। और अब वहां भी देखिये पुद्गल द्रव्य के परिणाम लिखकर पुद्गल द्रव्य से तो उन परिणाम को अभिन्न ही बताया जा रहा है। और उपयोग पर्याय चैतन्य का परिणाम है तो उसे चैतन्य से अभिन्न ही रखा है। अपने द्रव्य से उसके परिणाम को भिन्न नही किया। अन्य के परिणाम को जरूर भिन्न कहा है।

टीका में शुरू से ही द्रव्यपर्याय में प्रदेश भिन्नता की नहीं किन्तु दों वस्तु में प्रदेश भिन्नता और आधार आधेय भिन्नता की ही बात की जा रही है।

फिरभी जीव के रागादि-क्रोधादि और पुद्गल रागादि-क्रोधादि ऐसे दों भिन्न द्रव्य से दो प्रकार के भावकर्म के अस्वीकार के कारण ही, यह गाथा का अन्यथा अर्थ हो गया है।

बड़ा खेद यह है कि टीका का अर्थ इतना विपरीत हो गया कि टीका तो एक सत्ता में प्रदेश भिन्नता नही होती की बात कर रही है और वाचक को एक सत्तावाले द्रव्य पर्याय में प्रदेश अभिन्नता की जगह भिन्नता दिखाई दे रही है।

जीव के रागादि और पुद्गल के रागादि की इतनी स्पष्टता के बाद भी यदि पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पाएंगे तो अपने में शुद्ध सत्य धर्म कैसे प्रवर्तेगा?

संज्ञा संख्या आदि भेद तो हैं किंतु प्रदेश भिन्नता किसी भी अपेक्षा नहीं है।

नहीं। प्रयोजन के लिए सिद्धान्त को उलट पलट नही किया जाता। बस कुछ धर्म-गुण-पर्यायों को गौण किया जाता हैं। पर्याय से भिन्नता सांख्य आदि अन्यमत है जैनमत नहीं। टीका में स्पष्ट है कि प्रदेश भिन्नता वस्तु भिन्नता की सिद्धि करता है। द्रव्य पर्याय के बीच क्या वस्तु भिन्नता सम्भव है? नहीं।

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जानन क्रिया कर्माश्रित नहीं है। क्रोधादि क्रिया कर्माश्रित हैं।
अतः क्रोध भाव के होते हुए भी जानन क्रिया का कार्य चलता रहता है, किन्तु अन्यथोपपत्ति नहीं है।

द्रव्यकर्म और आत्मा में प्रदेश भेद है क्योंकि द्रव्य भेद है। जीव और भावकर्म में, भव्य जीवों की अपेक्षा, काल भेद है। जीव और उसकी प्रकट शुद्ध अवस्था में भावभेद है।

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आपकी बात सही हैं कि द्रव्यकर्म और आत्मा में प्रदेश भेद है क्योंकि द्रव्य भेद है।

उसी न्याय से द्रव्य और पर्याय में द्रव्य/वस्तुभेद नहीं इसलिए प्रदेश भेद नहीं।

इसीलिए गाथा 181-183 में जिन क्रोधादि के प्रदेश भिन्न बताए है वे जीव के क्रोधादि नहीं पुद्गल के है। यह गाथा द्रव्य-पर्याय के प्रदेश भिन्नता की सिद्धि नहीं करती।

आपने जो जीव क्रोधादि क्रिया को कर्माश्रित कहा वह तो कर्म सापेक्ष नय (व्यवहारनय) से हैं। वास्तव में जीव क्रोधादि भी स्व का भवन होने से स्व-भाव है। स्व भवन होने पर भी वे हेयरूप है। प्रवचनसार की गाथा में यह बात है।

एवं पंचास्तिकाय गाथा 62 में भी औदयिक आदि भाव जीव में षट्कारक से बताये हैं।

द्रव्य क्षेत्र काल भाव भेदरूप चतुष्टय दों द्रव्यों में होता है। द्रव्य - पर्याय में नहीं। आधार प्रवचनसार गाथा 96।

जो ‘द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य’ - ऐसा कालभेद है, वह चतुष्टय वाला काल नहीं किन्तु सद्भूत व्यवहारनय से संज्ञा संख्या लक्षण भेद में लक्षण भेद के अंतर्गत आता है।

जीव और उसकी शुद्ध अवस्था में भेद देखना व्यवहार है। निश्चय उन्हें अभेद देखता हैं।

I couldn’t get the intention behind this reply.

Oh i hope you didn’t misunderstand the reply. Thanks for asking to clarify.

The intention was

  1. To appreciate

To appreciate that you brought the न्याय of प्रदेशभेद. That प्रदेशभेद 2 द्रव्यों के बीच होता है।

  1. Also you mentioned about कालभेद and भावभेद between द्रव्य and its पर्याय। With reference of pravachansaar gatha 96, I wanted to put forward the point that like प्रदेशभेद, द्रव्य-पर्याय के बीच द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव चतुष्टय में से कोई भेद नहीं। The भेद you mentioned between द्रव्य and पर्याय falls under लक्षणभेद।

Hope this makes my message clear.

जीव और भाव कर्म में काल भेद से मेरा तात्पर्य था कि स्वभाव पर्याय रूप और विभाव पर्याय रूप परिणमित होने में काल भेद है; यथा क्षायोपशमिक पर्याय रूप और क्षायिक पर्याय रूप परिणमित होने में काल भेद।

We’re going to square one with this. This is where we started.

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I would request to hold it here. As Jineshji has requested me to have a private discussion on it. So i m not writing the reply here. And once he agrees, he shall put the point forward is what he had said. We have already had some good discussions. Which is still on going. So please wait for me and jineshji to end our discussion before we post here.

I also request to provide shastra adhar not someone’s speech. As i already see errors in it but to talk about someone’s speech on public forum would be demeaning. So i am refraining.

I request Rajatji to open niyamsaar gatha 40. It talks about pradesh bandh and not dravya paryay pradeshbhinnta. Please do read it independent of interpretations you have heard. You will sure find सुंदरता in acharya’s interpretation. Also please search for many dravya paryay pradesh bhinn gathas in samaysaar as mentioned in the video. And share the list here. It will help all.

मतलब आपके उत्तर में आपने जीव शब्द प्रयोग स्वभाव पर्याय के लिए किया था? द्रव्य के लिए नहीं। एक पर्याय और अन्य पर्याय में काल भेद है। सहमत हूँ।

I guess @jain9rajat ji deleted the video. Not a problem.

I have posted my views on below link. Please do read it.

Read more at: तादात्म्यसम्बन्ध- मोक्षमार्गप्रकाशक - #18 by panna

गुरुदेवश्री के प्रवचनों में से अंश - परमात्म प्रकाश भाग 2, प्रवचन क्रमांक 32, गाथा 52, प्रवचन pdf का पृष्ठ 30 -

मुमुक्षु: (समयसार की) ग्यारहवीं गाथा में भूतार्थ का आश्रय तो आता है।
पूज्य गुरुदेवश्री: भूतार्थ का आश्रय (करे तो) सम्यग्दृष्टि होता है, परन्तु इसका अर्थ यह कि स्वसन्मुख हुआ, उसने आश्रय लिया - ऐसा कहने में आता है। अरे! ऐसी बात है। भाषा ऐसी आती है। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो त्रिकाल भगवान पूर्णानन्द का नाथ प्रभु का आश्रय करे तो सम्यग्दर्शन हो। यह तीर्थंकर केवली परमात्मा का आश्रय करे, तो भी समकित नहीं होता। इस पर्याय का आश्रय करे तो भी समकित नहीं होता। ऐसी बातें, बापू! यह पर्याय ऐसे झुकी, इसलिए आश्रय किया- ऐसा कहा जाता है। आहाहा! यह कहने की क्या अपेक्षा है - यह जानना चाहिए न?

मुमुक्षु: पर्याय तन्मय रहकर जानती है या अतन्मय रहकर?
पूज्य गुरुदेव श्री: अतन्मय रहकर जानती है। तन्मय होकर जानती है (ऐसा जो कहा वह तो) इस ओर झुकी है इतना। इस ओर झुकी है। इस अपेक्षा से वह (तन्मय) कहलाती है। राग में तन्मय थी तो ऐसे तन्मय (थी)। राग में झुकी थी, वह ऐसे (स्वरूप की ओर) झुकी इसलिए तन्मय कहलाती है। बाकी पर्याय, पर्याय में रहकर द्रव्य को जानती है। द्रव्य और पर्याय तीन काल - तीन लोक में एक नहीं होते।

मुमुक्षु: अखण्ड एक सत् लें तो?
पूज्य गुरुदेवश्री: अखण्ड एक सत् लें तो भी पर्याय, पर्याय में और द्रव्य, द्रव्य में है।

मुमुक्षु: पर्याय और द्रव्य में प्रदेशभेद हैं?
पूज्य गुरुदेवश्री: प्रदेशभेद है।

मुमुक्षु: सर्वथा है?
पूज्य गुरुदेव श्री: सर्वथा है। पर्याय और द्रव्य में प्रदेशभेद सर्वथा है।

मुमुक्षु: एक अखण्ड सत् है।
पूज्य गुरुदेवश्री: वह अखण्ड सत् बाद में। यह तो पर्याय का विषय अखण्ड सत् है। ऐसी बात है। यह तो जिनेश्वर केवली तीन लोक के नाथ जिनेश्वर भगवान साक्षात् विराजते हैं। आज दिव्यध्वनि का दिन है। तुमने कल कहा था, कोई (सूक्ष्म बात) आवे। वह आवे तो आवे। आहाहा!
भगवान ऐसा कहते हैं कि पर्याय को सर्वव्यापक कहना अर्थात् लोकालोक को जानती है, इस अपेक्षा से व्यापक कहना। परन्तु पर्याय उस लोकालोक के क्षेत्र में पसर जाती है (- ऐसा नहीं है)। वेदान्त कहते हैं, ऐसा नहीं है। समझ में आया? आहाहा! पर्याय की मर्यादा, यद्यपि द्रव्य का क्षेत्र है, वह ही उसका क्षेत्र है, परन्तु उस क्षेत्र का अंश है, वह भिन्न है। जितने में पर्याय है, वह क्षेत्र भिन्न है; जितने में ध्रुव है, वह क्षेत्र भिन्न है। दो धर्म ही हैं, दो वस्तु है - धर्म और धर्मी दो वस्तु है।
यह तो आप्तमीमांसा में कहा है- धर्म और धर्मी दो निरपेक्ष वस्तु है। धर्मी है, इसलिए पर्याय है - धर्म है - ऐसा नहीं है और धर्म है, इसलिए धर्मी है - ऐसा नहीं है।

यहाँ पर कि किस अपेक्षा से बात है उसी का निर्णय करना पड़ेगा -

अपेक्षा के अनुसार वर्णन में भिन्नता है:

  • द्रव्य नित्य, पर्याय क्षणिक इसलिए द्रव्य, पर्याय में पूर्णतः प्रदेश भेद (2 भिन्न वस्तु की संज्ञा देतें है)
  • पर्याय में संवर की उत्पत्ति - लेकिन उसी क्षण, पर्याय में वीतरागता और राग दोनों विद्यमान है - इसलिए संवर की चर्चा करते वक़्त ज्ञान और राग के प्रदेश भिन्न – यहाँ पर पर्याय में द्रव्य स्वभाव की अपेक्षा है। पर्याय का जितना अंश स्वभाव से कथानचित अभिन्न है (ज्ञान) वह और द्रव्य का प्रदेश एक, और बचा हुआ अ-स्वाभाविक अंश द्रव्य से भिन्न।
  • प्रमाण अपेक्षा से तो द्रव्य-ज्ञान-राग तीनों ही एक प्रदेश है - ऊपर गुरुदेव ने भी वही कहा है।

द्रव्यकर्म और आत्मा में प्रदेश भेद है क्योंकि द्रव्य भेद है। जीव और भावकर्म में, भव्य जीवों की अपेक्षा, काल भेद है। जीव और उसकी प्रकट शुद्ध अवस्था में भावभेद है।

इसतरह प्रमाण का विषय एक हुआ एक-अनेक नही। भेदाभेद नही।

अब यदि यह कहे कि

प्रमाण अपेक्षा से तो द्रव्य-ज्ञान-राग तीनों ही एक-अनेक प्रदेश है।

तो एक प्रदेश द्रव्यार्थिक नय और अनेक प्रदेश पर्यायार्थिक नय हुआ। फिर तो पूर्वोक्त प्रदेश भेद की चर्चा है वह सब पर्यायार्थिक नय का विषय हुआ।

और यदि आपके प्रस्तुत वाक्य पर कायम रहे तो

प्रमाण से द्रव्य-ज्ञान-राग तीनों ही एक प्रदेश है और द्रव्यार्थिक नय/निश्चय से भिन्न प्रदेशी है, तो पर्यायार्थिक नय/व्यवहार से कैसे है?

यह जो द्रव्य-ज्ञान पर्याय के प्रदेश एक अभिन्न लिखा है वह क्या है? प्रमाण है? - द्रव्यार्थिक/निश्चय है या पर्यायार्थिक/ व्यवहार?

क्योंकि

ये जो लिखा है वह यदि द्रव्यार्थिक नय से है तो ज्ञान भी पर्याय है तो उसे द्रव्य से पूर्णतः भिन्न ही जानाना होगा। और जो पूर्णतः भिन्न है उस पर्याय को ही किस नय से

द्रव्य से अभिन्न कहते है?

जो जो अपेक्षा से आपने लिखा जे वह कौनसा कौनसा नय बनता है यह कृपया स्पष्ट करें।

यह कुछ ऐसा लिखा है कि

  1. किसी नय से द्रव्य पर्याय भिन्न इसलिए ज्ञान पर्याय द्रव्य से पूर्णतः भिन्न।
  2. फिर उसी किसी नय से राग पर्याय भिन्न और जो ज्ञान पर्याय पूर्णतः भिन्न थी वह अब कथनचित अभिन्न।

किन्तु क्या नय का कथन कथंचित होता है? या पूर्णतः?
आपका एक कथन एक नय से पूर्णतः का और उसी या अन्य किसी नय से कथंचित का है। फिर प्रमाण से क्या होगा कथंचित एक अनेक या पूर्णतः भिन्न और कथंचित अभिन्न-एक? ऐसा भी प्रमाण होता है क्या?

या आपसे यह गलती से स्ववचन विरोध हो गया है?

आप जो भी नय बताएंगे कृपया आचार्य लिखित नयचक्र से दीजियेगा। और यदि आगम आध्यत्म के नय भिन्न है तो किसी आचार्य ने अध्यात्म का भिन्न नयचक्र बनाया है? और क्या नय भी आगम आध्यत्म के अलग हो सकते है क्या? If so it will definitely create chaos.

और रही बात

तो जब तक सिद्धान्त नही समझेंगे, तब तक गुरुदेवने जो कहा है वह कैसे ग्रहण करना वह समझना कठिन ही है।

वस्तु को द्रव्य से भेदाभेद देखना (धर्म-धर्मी), प्रदेश से भेदाभेद देखना (प्रदेश-प्रदेशी), काल से भेदाभेद देखना (पर्याय-पर्यायी), भाव से भेदाभेद देखना (गुण-गुणी) यह तो शास्त्रों में मिलता है।

किंतु जैसे पर्यायी(द्रव्य)-पर्याय में प्रदेश (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में से मात्र क्षेत्र) भिन्नता दिखाते है वैसे ही क्या पर्यायी(द्रव्य)-पर्याय में धर्म या गुण भिन्नता है?

या फिर पर्यायी (द्रव्य) में गुण और धर्म है और पर्याय में गुण धर्म नहीं है? क्योंकि गुण और धर्म नित्य होते है।

यदि ऐसा है तो गुण धर्म की तरह प्रदेश भी केवल पर्यायी (द्रव्य) के हो पर्याय के नही। क्योंकि वस्तु शाश्वत होने से उसके प्रदेश भी शाश्वत नित्य ही होते है अनित्य नही।

और यदि पर्यायी (द्रव्य)-पर्याय में प्रदेश भिन्नता है तो गुण एवं धर्म भिन्नता भी हो। और वे भी प्रदेश की तरह क्षणिक होने चाहिए।

प्रथम तो संज्ञा देते है - यह भाषा व्यवहार की है निश्चय द्रव्यार्थिक नय की नहीं।

और

पर्यायी (द्रव्य)-पर्याय के नित्य-अनित्य लक्षण भिन्नता से यदि पर्यायी-पर्याय के प्रदेश में नित्य-अनित्य का लक्षण है तो गुण और धर्म में भी नित्य-अनित्यता हो।

पर्यायी(द्रव्य) - पर्याय में प्रदेश भिन्नता लेंगे तो ऐसे अनेक combination होंगे। सब की अपेक्षा शास्त्र में दिखानी होगी। सावधान होना है यहाँ।

वस्तु द्रव्य क्षेत्र काल भाव से भेदाभेद है। इसलिए वस्तु के क्षेत्र को भेदाभेद देखना है। और वस्तु का द्रव्य स्वभाव नित्य पर्याय स्वभाव अनित्य देखना है। प्रदेश का नही।

प्रदेशी - द्रव्य , प्रदेश - पर्याय ऐसा जरूर है। किंतु प्रदेशी द्रव्य के प्रदेश दो प्रकार एक द्रव्य प्रदेश एक पर्याय प्रदेश ऐसा भेद नहीं। द्रव्य तो प्रदेशी है।

आपने जो लिखा है उससे तो पर्याय भी प्रदेशी बन रही है। क्योंकि द्रव्य के असंख्यात प्रदेशों का वह द्रव्य प्रदेशी, पर्याय के असंख्यात प्रदेशों का कौन प्रदेशी? पर्याय को प्रदेशी कहेंगे या वह प्रदेशी भी और एक द्रव्य है?

पर्याय के प्रदेशों के समूहरूप द्रव्य?

और द्रव्य के जो असंख्यात प्रदेश है वे पर्याय है या… ?

कितने द्रव्य है? प्रमाण का द्रव्य, द्रव्यार्थिक नय का द्रव्य, अब पर्याय के असंख्यात प्रदेशों के समूह रूप द्रव्य? समूहरूप अभेद करना तो द्रव्यार्थिक नय हुआ ना? तो वह भी एक द्रव्य हुआ ना?

और कितने प्रश्न करें? जहाँ स्व वचन विरोध है वहाँ अनेक प्रश्न उठते है। जिनके उत्तर नही। या अनेकों तर्क (कुतर्क) से अपेक्षा बना बना कर स्याद्वाद का दुरुपयोग करते रहेंगे? या स्व वचन विरोध को तजेंगे?

गाथा 181 में जिस राग के प्रदेश भिन्नता की बात है वह पुद्गल राग है यह स्वीकार नही होने से कितनी अपेक्षाएं जो शास्त्रों में नही वह भी स्वीकार है। जैसे कि प्रमाण का द्रव्य अपने प्रदेश से अभेद और द्रव्यार्थिक का द्रव्य अपने ही प्रदेशो में कुछ (ज्ञान)प्रदेश से अभिन्न और कुछ(राग) प्रदेश से भिन्न।

क्षेत्र का छोटा सा छोटा भाग प्रदेश है और उसमें ज्ञान राग दोनों है। अब उस अविभाजित प्रदेश के ज्ञान और राग प्रदेश पूर्णतः भिन्न दिखा रहे हो। फिर वह अविभाजित कैसे? और जब प्रदेश ही भिन्न है तो अनेकांत कैसे? एक प्रदेश में एक ही हुआ। या तो ज्ञान या राग।

मेरा ऊपर वाला response बहुत जल्दी में लिखा गया - उससे confusion होगा ही। उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।

उपरोक्त अंश में गुरुदेव ने परम शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से कथन किया है — जहाँ पर्याय का पूरा अभाव है, पर्याय को दूसरी वस्तु की तरह ही गिना है। नियमसार गाथा ५० में सब भावों को (जिसमें भावकर्म भी समाहित है, शुद्ध पर्याय भी समाहित है) “परद्रव्य” कहा है - जिससे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भिन्नता आ जाती है। यह शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा का कथन है; जहाँ द्रव्य-पर्याय के क्षेत्र सर्वथा भिन्न है। अब द्रव्य/पर्याय भिन्न “द्रव्य” तो है नहीं, फिर भी उन्हें “परद्रव्य” कहा है।

आगे गुरुदेव ने जो कहा - “पर्याय की मर्यादा, यद्यपि द्रव्य का क्षेत्र है, वह ही उसका क्षेत्र है, परन्तु उस क्षेत्र का अंश है, वह भिन्न है। जितने में पर्याय है, वह क्षेत्र भिन्न है; जितने में ध्रुव है, वह क्षेत्र भिन्न है।” — यहाँ प्रमाण का कथन किया क्योंकि उन्होंने भेदाभेद किया है। (मेरे पहले message में प्रमाण से सभी को एक लिया, ना कि एकानेक — वह त्रुटि बतलाने के लिए धन्यवाद)

आगे संवर अधिकार (१८१-१८३) में जो “उपयोग में उपयोग” लेकर जानक्रिया और राग के प्रदेशभेद कहा है, वह एकदेश शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा से लिया है।

आगे गुरुदेव प्रमाण की व्याख्या करते है - प्रदेश एक होने पर भी भिन्न है। इसमें भिन्न गिनने में आया है, यह गौर करने लायक है क्योंकि इससे प्रतीत होता है कि प्रदेश भिन्नता न होते हुए भी प्रदेश भिन्न कहा है। अत्यंत भेदज्ञान कराने हेतु।

आगे जाननक्रिया (पर्याय का शुद्ध अंश) और आत्मा को एक कहा, और उसे राग से जुदा किया, तो वहां एकदेश शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा जाननक्रिया-आत्मा एक वस्तु और राग दूसरी वस्तु। यहाँ पर “वस्तु” आप “द्रव्य” से लेंगे?

संक्षिप्त में - गुरुदेव के प्रवचनों से यह स्पष्ट है कि गाथा 181 में वे राग को केवल पुद्गलकर्म ही नहीं, भावकर्म भी लेते है – पद्गल राग के तो भिन्न प्रदेश है ही उसमें तो कोई संदेह नहीं। यहाँ भावकर्म के भिन्न प्रदेश ना होते हुए, उसे भिन्न प्रदेश गिन रहे है - अर्थात् परद्रव्य न होते हुए भी परद्रव्य की ही तरह गिन रहे है। भेद्ज्ञान कराने हेतु।