द्रव्य और पर्याय के भिन्न प्रदेश

I also request to provide shastra adhar not someone’s speech. As i already see errors in it but to talk about someone’s speech on public forum would be demeaning. So i am refraining.

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आपके त्रुटि सुधार के प्रयास की अनुमोदना करती हूं। किन्तु आचार्य लिखित नयचक्र से सुधार होता तो त्रुटि रहित सुधार होता।

मैंने निवेदन भी किया था।

Thanks for requesting the same.

मोक्षमार्ग प्रकाशक में आचार्यकल्प टोडरमल जी निश्चय व्यवहार का लक्षण बताते हुए लिखते है कि

“जिनमार्गविषै कहीं तौ निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौं तौ ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ, ‘ऐसे है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है।”

अब आप कहते है कि

और ये सब व्यवहार से नही

अर्थात टोडरमल जी द्वारा दिया व्यवहार के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष है। क्योंकि आपके द्वारा प्रस्तूत परमशुद्ध निश्चय से भी ‘(द्रव्यपर्याय में प्रदेश भिन्न)ऐसे है नाहीं, निमित्तादि (निमित्त आदि में आदि में यहां भेदज्ञान हेतु है) अपेक्षा (कहा गया है, गिना गया है) उपचार किया है’।

टोडरमलजी के नय के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष? अरर… कृपया अब तो अपनी वात कहने में सावधान हो जाइए। चर्चा में आचार्य कृत नयचक्र का आश्रय लीजिए।

मैंने पहेले भी लिखा है, फिर लिखती हूँ कि जब तक नयसिद्धान्त नहीं समझेंगे तब तक गुरुदेव के कथन को कैसे ग्रहण करना वह समझना कठिन ही है।

आपने लिखा कि

यह बताइए कि

द्रव्य/पर्याय भिन्न “द्रव्य” तो है नहीं,

यह कथन किस नय का है?

नयचक्र से ऐसा नय दिखा दीजिए जहाँ शुद्ध निश्चय से द्रव्य पर्याय के सर्वथा प्रदेश भिन्न लिखे हो।

और जिनमें सर्वथा भिन्नता हो उसको असद्धभुत व्यवहार नय के अलावा भी किसी और नय से अभिन्न एक द्रव्य बताया जाए।

क्योंकि आपने लिखा है वह कथन तो असद्भूत नय के लक्षणवाला है।

और क्या असद्भूत व्यवहार और शुद्धनिश्चय के एकसाथ से प्रमाण बनता है? क्योंकि आपने तो सुधार कर उसी को प्रमाण कहा है।

आपने लिखा कि

अर्थात पर्याय का क्षेत्र और द्रव्य का क्षेत्र एक है। तो फिर उस क्षेत्र का अंश जो भिन्न है वह अंश क्या है?

शास्त्र ने क्षेत्र के अंश को तो प्रदेश कहते है। उस प्रदेश को पर्याय भी कहते है। और प्रदेशरूपी पर्याय अर्थात अंश क्षेत्ररूपी द्रव्य अर्थात अंशी के होते है।

किन्तु आपके कथन अनुसार क्षेत्र (द्रव्य) और उसके (पर्याय)अंश में क्षेत्र/प्रदेश भिन्नता है। उतना ही नहीं, चतुष्टय भिन्नता भी है।

उस क्षेत्र के ही अंश को अंशी/क्षेत्र से क्षेत्र अपेक्षा अभिन्न तो निश्चयनय हुआ। अब आप इस निश्चय को भेदज्ञान हेतु से अयथार्थ बता रहे हो। क्योंकि आप के अनुसार

(क्षेत्र या उसका अंश? ऊपर आपने द्रव्यपर्याय एक क्षेत्र और मात्र अंश भिन्न लिखा है।)

अर्थात क्षेत्र के उस अंश का उस अंशी क्षेत्र से क्षेत्र/प्रदेश अपेक्षा से सर्वथा भिन्नता है। grammatically also it’s wrong. Forget about siddhant.

किसी भी नय से द्रव्य पर्याय में प्रदेश भिन्नता नहीं यहीं यथार्थ है।


अब बात करते है नियमसार गाथा 50 की। तो शायद यह भी आपने बहुत जल्दी में लिख दिया होगा। शास्त्र खोलने का समय नहीं मिला होगा। कृपया मेरा उत्तर शास्त्र खोलकर पढियेगा।

गाथा 50 में कुन्दकुंद आचार्य ने “सब भाव” नहीं किन्तु “पूर्वोक्त सब भाव” लिखा है।

अब पूर्व के गाथा में देखे तो गाथा 49 में तो कोई भाव लिए नही। और गाथा 48 के भाव तो सिद्ध में भी है तो वे परभाव कैसे हो? अशरीर अविनाशी आदि भाव परद्रव्य कैसे हो? वे तो स्वयं शरीर आदि परद्रव्य के निषेधात्मक है।

गाथा 47 में भी आठ गुणों से अलंकृत कहा है। रहित तो जन्म जरा मरण से है।

अब आती है गाथा 45 तो उनमें दिए हुए सभी भाव जरूर परद्रव्य है और परस्वभाव है। गाथा 46 तो गाथा 45 के भावों का निषेधरूप है।

इसतरह गाथा 50 में लिखे पूर्वोक्त सभी भाव गाथा 45 के संदर्भ में है।

यदि और आगे देखे तो गाथा 43-44 में जिन जिन भावों का निषेध है वे कोई भी परभाव नहीं और ना ही वहाँ शुद्धभाव के निषेधरूप कुछ लिखा है।

और गाथा 39 से 42 तक तो सभी पुद्गल के भाव ही है। क्योंकि वे सभी स्थान शब्द के साथ है। और 39की टीका में मानअपमान के संदर्भ से स्पष्ट है कि स्थान का अर्थ कर्म है।

गाथा 41 में भी क्षायिक आदि भाव का नहीं उनके स्थान का निषेध है।

गाथा 38 में जीवादि बाह्य तत्त्व का निषेध है अर्थात अपने अलावा अन्य जीव और कर्म के तत्त्व। स्वयं के जीवादि अन्तरतत्त्व का निषेध नहीं।

इसतरह गाथाओं में तो कही भी जीव के पर्याय या शुद्ध पर्याय को परद्रव्य नही कहा। और इसतरह चतुष्टय भिन्न भी सिद्ध नहीं हुआ।

अब यदि टीका से देखे तब भी गाथा 50 की टीका में सबभाव के अर्थ में स्पष्ट लिखा है “विभावगुणपर्याय” और वे भी कौनसे? जो पूर्व में व्यवहार से जीव के कहे है।

पूर्व में जिसे व्यवहारनय के कथन से कहे विभावगुणपर्याय है उनको ही परद्रव्य कहा है।

अब प्रश्न है कि पूर्व में व्यवहारनय के कथन से कौनसे विभावगुणपर्याय कहे?

पूर्व टीका 49 में भी फिर उससे पूर्व की बात है। “पूर्व में जो कहे विभावपर्याय” ऐसा लिखा है, किन्तु वहाँ clue भी दिया है की कोनसे विभावपर्याय? जिनका प्रतिपादन “विद्यमान नहीं हैं” ऐसे किया है।

तो हमें “विद्यमान नही है” ऐसा प्रतिपादन किया हो वे विभावगुणपर्याय लेने है जो व्यवहार से विद्यमान है।

उसी टीका में चारभाव को आचार्य ने तो व्यवहारनय से नही लिखा। व्यवहारनय की बात पूरी करने के बाद चारभाव की बात की है। ब्रेकेट में व्यवहारनय लिखा है किंतु आचार्य ने नही लिखा। वास्तव में देखे तो टीका में वह अशुद्धनय से है और उनकी विद्यमानता लिखी है। उनका प्रतिपादन “विद्यमान नही” ऐसे नही किया।

आपको एक और बात ध्यान दिलाना चाहती हूं।पद्मप्रभमलधारीदेव ने गाथा 15 में विभावपर्याय शब्द द्वारा व्यंजनपर्याय ही लिया है। अर्थपर्याय नहीं। उसे और क्षयिकभाव की शुद्धपरिणती को स्वभाव पर्याय ली है। और गाथा 11-12 में विभावगुण शब्द द्वारा मतिज्ञान आदि 4 और कुमति 3 लिए है। उसमें भी टीका 10 में केवलविभाव शब्द से मात्र कुमति आदि 3 को कहा है। और टीका 11-12 में विभावगुण में सुमति आदि के कारण विभावगुणों को शुद्धाशुद्ध कहा है। और सबसे महत्वपूर्ण बात केवलज्ञान को विभावगुण में नहीं लिया।

अब जब केवलज्ञान को गाथा 9 स्वभावज्ञान अर्थात स्वभावगुण में लिया है और गाथा 15 में क्षायिकभावपरिणति को स्वभावपर्याय लिया है तो गाथा 50 में उसी क्षायिकभाव के अर्थ में केवलज्ञान को विभावगुण रूप कैसे ले सकते है? यह स्पष्ट स्व वचन विरोध हुआ।

उसी तरह टीका 49 में शुद्धनय से शुद्धगुणपर्याय द्वारा सिद्ध समान बताया तो टीका 50 में सभी भाव के अर्थ में क्षायिकभाव को लेकर शुद्धगुणपर्याय से भिन्न कैसे कह सकते है?

अपनी नयों की परिभाषा की गलती सुधारने के बदले क्यो हम आचार्य के कथनों में स्ववचन विरोध खड़ा कर रहे है? हमारी गलतियों को न सुधारते हुए यदि उसी को दोहराते जाएंगे तो हम पूरे समाज को उससे प्रभावित कर रहे है।

और अजीव अधिकार में अजीव के भी विभावगुणपर्याय दिखाए है। इसतरह विभावगुणपर्याय शब्द से मात्र जीव के ही है ऐसा जल्दबाजी में ग्रहण न करे। जो पुद्गल के विभावगुणपर्याय है उसे व्यवहार से जीव के कहे जाते है और गाथा 45में उन पुद्गल के ही विभावगुणपर्याय लिए है जिसे गाथा 50 में पूर्वोक्त सभी भाव कहकर परद्रव्य कहा है।

गाथा 47 की टीका में तो सिद्धो को केवलज्ञानादि युक्त और संसारी को सिद्ध समान एवं सम्यक्त्वादी 8 गुण रहित नही सहित बताया है। उसे टीका में कही भी विभाव रूप वर्णित नही किया। और निश्चय कथन है व्यवहार कथन भी नहीं।

45-46 टीका में शुरू में ही स्पष्ट समस्त पौद्गलिक विकारसमुह लिखा है। यह विकार ही पुद्गल के विभावगुणपर्याय है। आगे विजातीयविभावव्यंजनपर्याय भी लिखा है। और कर्म अपेक्षा से व्यवहार से जीव के भी इस गाथा में कहे है जिसका निषेध करने का टीका 49 में कहा है।

अब सोचते है कि क्या क्षायिकभाव को परद्रव्य कहा है?

तो टीका 38 देखिये। वहाँ चारभाव भिन्न नहीं, मात्र उन भावों से अगोचर कहा है। और जिन विभावगुणपर्याय रहित का कहा है वे तो द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मरूप उपाधि जनित है। गाथा 107 की टीका भी देख लीजिए। वहाँ भी स्पष्ट लिखा है कि मतिज्ञानादिक वे विभावगुण है और नरनारक़ादि व्यंजनपर्याय वहीं विभावपर्याय है। इसतरह ना तो केवलज्ञान को विभावगुण में लिया है और ना ही अर्थपर्याय को। और स्वभावगुण पर्याय संयुक्त लिखा है।

और आप देखियेगा टीकाकार ने चारभाव के लिए सभी जगह न विभावगुण न विभावपर्याय शब्द लिखा है। उन्होंने चारभाव को विभावस्वभाव लिखा है। और 41 कि टीका में उस क्षयिकभाव के भेद में केवलज्ञान लिया है और उस केवलज्ञान को विभाव गुण नहीं गाथा 9 में स्वभाव गुण में लिया है।
गाथा 13 में भी चारभाव से परिणामिक भाव रूप कारण स्वभाव को अगोचर लिखा है भिन्न नहीं। गाथा 110 आदि में भी अगोचर लिखा है। और गाथा 13 में भी कार्यद्रष्टि क्षायिक है उसको स्वभाव लिया है विभाव नही।

अब प्रश्न है ये विभावगुणपर्याय कौनसी? तो गाथा 39 से उसी का वर्णन चल रहा है। यहाँ सभी को स्थान शब्द से जोड़ा गया है और टीका में स्थान का अर्थ कर्म किया है। 39 कि टीका में शुभ अशुभ परिणति का अभाव दिखाया किन्तु उसके कारण कर्म की अविद्यमानता दिखाई है। शुभ अशुभ परिणति का अभाव दिखया किन्तु शुद्ध परिणीति का तो अभाव नही दिखाया। क्षायिक आदि विभावस्वभावस्थान का विस्तार यहां टीका 39 में किया नहीं किन्तु टीका 41 में तो विभावस्वभाव का विस्तृत वर्णन है। अब ध्यान से देखिये वहाँ चारभावका वर्णन किया किन्तु उनकी भिन्नता एक बार भी नहीं लिखी। जब कि गाथा उन भावों के स्थान की ही है। और गाथा में उन चारभाव की नहीं उनके स्थान की ही भिन्नता की है।

गाथा 40 में भी विभिन्न स्थानों की ही बात है। स्थान शब्द से कर्म ग्रहण होता है जो कि पुद्गल होने से परद्रव्य ही है।

इसतरह गाथा 50 में जो पूर्व सभीभाव लिखा है वे गाथा 45 के है जो कि पुद्गल के ही है। गाथा 27-28 देखियेगा। वहां पुद्गल के भी विभावगुणपर्याय दिखाए है। उनका गाथा 50 में निषेध है क्योंकि वे परभाव परद्रव्य है।

टीका 48 में निर्मल के संदर्भ में क्षयोपशमादिक का अभाव दिया है वह किसी पर्याय का अभाव नहीं मात्र कर्मउपाधि निर्पेक्षदृष्टि से शुद्धजीवास्थिकाय का वर्णन है। कर्मउपाधि निरपेक्ष नय से जीव के भाव क्षायिक आदि स्वरूप नहीं दिखते इसलिए वहाँ उनका अभाव दर्शाया है पर्यायों की भिन्नता नहीं। और प्रदेश भिन्नता भी नहीं। और चतुष्टय भिन्नता भी नहीं।




इस विषय को स्पष्टता मिल जाये इस आशय से
बहुत सुंदर विवरण किया है।

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यह किसके द्वारा लिखा गया है? लेखनी देखते हुए तो किसी आचार्य का नहीं लगता क्योंकि इसमें नय की स्पष्टता नहीं है।

किसने लिखा है यह महत्व बिल्कुल भी नही है नाही ऐसा कभी होना चाहिए।

कई पुराने मुनिराजों आचार्यों के ग्रंथ मिल जाएंगे जिसमे कुछ आमनायो को पुष्ट किया हुआ है और टोडरमलजी जैसे विद्वानों ने खण्डन किया है।
मूल बात वीतरागता कहाँ पुष्ट हो रही है यह पकड़ में आनी चाहिए ।राग द्वेष पुष्ट हो रहा हो यह ख्याल में आना चाहिए ।
यदि यहां पर राग द्वेष कहि भी पुष्टि हो रही हो ऐसा लगे तो निःसंकोच बता सकते है।

नय का स्पष्टीकरण कोई आचार्य या विद्वान गाथा नीचे लिखे और नही भी लिखे यह तो पढ़ने वालों को समझना होता है।

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लेख के शुरू में ही लिखा है कि रागादि विकारीभावों के संबंध में जिनागम में चार विवक्षाए उपलब्ध है। तो जितनी विवक्षा उतने नय होंगे या एक ही नय से सभी विवक्षाए होगी?

निश्चय से जो जीव के रागादि है वह पुद्गल के नहीं और निश्चय से ही जीव के रागादि पुद्गल के?

चर्चा में आधार दे तो शास्त्र और लेखक का नाम दे यह बहुत महत्वपूर्ण है।

जीव के ज्ञान ओर जीव की ही पर्याय मे ही पैदा होने वाले राग के प्रदेशो की भिन्नता यानी पर्याय जो आत्मा के सर्व प्रदेशो मे व्याप्त हे लेकिन प्रत्येक प्रदेश के पूरे क्षैत्र मे नही प्रदेश के अंशभाग मे ही व्याप्ती हे ईसी को पर्याय उपर उपर तैरती हे ऐसा है क्या?

एक प्रदेश दो प्रदेश असंख्य प्रदेश यह सब क्षेत्र का ही माप है। उतना ही पूरा क्षेत्र है। इसलिए प्रत्येक प्रदेश कहिए या पूरा क्षेत्र एक भी बात हुई।
इसलिए यह वाक्य

बनता नही।

यदि प्रदेश का क्षेत्र ऐसा कहेंगे तो
प्रदेश का पूरा क्षेत्र कितना?

प्रदेश अविभागी होता है। उसके अंश नही होते। प्रदेश एक अविभागप्रतिच्छेद है।

जब हम कहे कि
“वह गुणस्थान में ऊपर ऊपर चढ़ते गए” तो क्या वास्तव में गुणस्थान नामक कोई सीडी है जिसे वे चढ़ रहे थे? वहाँ ऊपर ऊपर कोई प्रदेश स्थान से नही, उसी तरह “रागादिपर्याय स्वभाव से ऊपर” कहने में ऊपर शब्द का अर्थ प्रदेश से नही है।

आज हम जीवन के 35वे साल में प्रवेश कर रहे है। यहां 35 वा साल कोई स्थान है? फिर भी प्रवेश शब्द है। ऐसे ही प्रवेश शब्द का अर्थ है जब कहते है कि रागादि स्वभाव में प्रवेश नही करती।

ऊपर और प्रवेश शब्द से प्रदेशो की कल्पना न करें।