विभाव जीव की पर्याय में ही होता है तो इसे पुद्गल का क्यों कहा ?
जब भी विकार होगा तब तब पुद्गल का लक्ष्य होगा, अतः जो जिसके लक्ष्य से हो, वह उसी का। इस अपेक्षा से उसे पुद्गल का कहा है।
विभाव की व्याप्ति कर्मोदय के साथ ही बैठती है, जीव के साथ नहीं, और कर्मोदय पौद्गलिक है, अतः विभाव को पुद्गल का कहा। ( जहां-जहां जीव , वहां-वहां विभाव ऐसा घटित नहीं होता; परन्तु जहां-जहां औेदयिक आदि वैभाविक भाव, वहां-वहां तदनुसार कर्मो की अवस्था पाई ही जाती है।)
यह कथन प्रयोजन विशेष की मुख्यता से किया गया है, अतः जिस अपेक्षा से विभाव को पुद्गल का कहा है, वही अपेक्षा ग्रहण करना योग्य है, सर्वथा ऐसा ही है- इस प्रकार का एकांत नहीं करना।
इसी कारण एक ही ग्रंथ में प्रयोजन अनुसार आचार्य देव कभी तो राग को पुद्गल का कहते हैं, कभी जीव का, कभी दोनों का और कभी ऐसा भी कहेंगे कि इस विभाव का तो कोई आश्रय ही नहीं है। अतः कथन के प्रयोजन पर ध्यान देना चाहिए।
@Sulabh bhaiya, bahot Sundar
विकारी भाव भी जीव के ही होते हैं क्या? जैसे ज्ञान दर्शन जीव का?
हां जी, उनकी उत्पत्ति जीव में ही होती है, पुद्गल और अचेतन में नहीं।
परन्तु वो ज्ञान दर्शन जैसे नहीं होते है। ज्ञान स्वभाव है और राग आदि विभाव है।
जिसके कारण, जो, होता है, उसे उसही का कहा जाता है।
जैसे - होता तो बेटा है, पर कहा पिता का जाता है; चलता तो देश है कहलाता प्रधानमंत्री/राजा का है; कषाय करते तो हम हैं पर कही किसी और की जाती है।
जैसे ये आपेक्षिक हैं, वैसे ही जीव की पर्याय में हुए विभाव को पुद्गल का कहना भी सम्यगेकान्त है।
यदि इसे नहीं मानें तो जीव दीनता/हीनता कभी नहीं छोड़ सकेगा।
और इसे अच्छे से न समझे तो फूलकर कुप्पा हो जाएगा।
Perfect explanation
यहाँ एक प्रश्न और उठना स्वाभाविक है कि क्या पुद्गल द्रव्य को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य के लक्ष्य से विकार उत्पन्न नहीं हो सकता?
यदि हो सकता है तो क्या उस अपेक्षा से विकार को उस respective द्रव्य का भी कहा जायेगा?
बाह्य निमित्त तो छहो ही द्रव्य हो सकते है, पर अंतरंग निमित्त पुदगल कर्म का उदय ही रहेगा।
इस अपेक्षा से भी विचार किया जाए तो विभावों को संपूर्णतया पुद्गल का नहीं कह सकते क्युकी अगर ऐसा हो तो जब जब कर्म का उदय होगा तब तब विकरी भाव होंगे,पर ऐसा नहीं होता।
जी बिल्कुल।
प्रश्न इसलिए उठा क्योंकि @Sulabh भैया ने निम्नलिखित पंक्ति में ‘लक्ष्य’ शब्द का प्रयोग किया। अतः चर्चा बहिरंग निमित्तों की ही है।
अन्य द्रव्यों के लक्ष्य से विकार किस प्रकार से हो सकते हैं?
@Sulabh भैया कोई टिप्पणी?
विचारने योग्य बिंदु है क्योंकि विभाव (विकल्प) तो स्व द्रव्य के गुण - भेद और पर्यायों के ऊपर लक्ष्य देने पर भी होता है।
यदि पर द्रव्य में एकत्व ममत्व बुद्धि संबंधी विकल्पों की बात करें, तब तो पुद्गल द्रव्य (शरीर) में ही वह होती है उस अपेक्षा से लक्ष्य की बात को समझा जा सकता है।
अभी अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है जो कि इस विषय पर चर्चा और विमर्श करने से आ सकता है।
विकारी पर्याय जीव और पुद्गल द्रव्य में ही संभव है, अन्य किसी द्रव्य में नहीं, इसलिये ये भी possible है ही
अन्य द्रव्यों के लक्ष्य से उत्पन्न होने पर भी इन विकारी भावों का स्वामी जीव या पुद्गल द्रव्य को ही कहा जाता हो, क्योंकि अन्य 4 द्रव्यों की तो विकारी पर्याय होती ही नहीं।
विकार के प्रायोजक -
पुद्गल द्रव्य - जिससे जीव एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व भाव करता रहा है; उसके सम्बन्ध में भाव्य-भावक सम्बन्ध बताकर विश्लेषण किया गया है। (Ref. - स. सा. 32 versus 36)
जीव से अन्य सभी 6 द्रव्य - जिससे जीव का ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध बताकर विश्लेषण किया गया है। (Ref. - स. सा. 31 versus 37)
पुद्गल द्रव्य को समयसार में 2 रूपों में प्रस्तुत किया गया है -
- जो हमें अपने आँखों से दिखता है, जिसे हम अपनी दुनिया समझते हैं।
- जो स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णात्मक मूर्तिक पदार्थ है।
केवल पुद्गल द्रव्य ही मति/श्रुत ज्ञान के विषय बन सकते है। बाकि ४ द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) केवलज्ञान के ही विषय बन सकते है, केवलियों द्वारा ही प्रमाणित है।
इसे और explain किया जा सकता है क्या? क्यों सिर्फ पुदगल ही विषय बन सकता है?
विभाव = द्रव्यकर्म के निमित्त से तथा नोकर्म के आश्रय से होने वाले परिणाम हैं , तथा ये (द्रव्य - नो कर्म ) दोनों ही पुद्गल की अवस्थाएं हैं ।
इसलिए इन विभाव भावों को पुद्गल का कहा है ।
◆ इनका अभाव होने पर मेरे ज्ञान-दर्शन स्वभाव का अभाव नही होता , इसलिए इनमे मेरा ज्ञान-दर्शन नही पाया जाता , अतः ये जड़ हैं,
◆ स्पर्श-रस-गंध-वर्ण रूप पुद्गल नही हैं , इसलिए जीव के कहे जातें हैं , तथा पूर्वोक्त अपेक्षा के कारण पुद्गल के ।
“राग आदि भावकर्म” समयसार जी में दो प्रकार के कहे हैं एक जीवगत और एक पुद्गलगत
राग आदि भावकर्म जीव का विकारी परिणाम है उसको समयसार में जीव का ही कहा है। और मोह कर्म के उदयरूप रागादी परिणाम है वह पुद्गल का है उसे पुद्गल का ही समयसार में कहा है।
जीव के राग आदि भावों को समयसार में पुद्गल नहीं कहा।
बहुत सुंदर बात सामने आई है।
इसमे मैं कुछ जोड़ना चाहूँगा, @Sayyam ji कृपया त्रुटियों से अवगत कराइयेगा।
समयसार में 87 से 95 गाथा का यह प्रकरण मुख्य है, अन्यत्र भी होगा लेकिन मैं उसकी अपेक्षा से बात करना चाहूंगा, उन गाथाओं के अंतर्गत यह विषय उभर कर आता है कि रागादि दो प्रकार के हैं, एक जीव , दूसरा अजीव।
मात्र जीव इसलिए नही कहा क्योंकि ( 50 - 55 ) पूर्व की गाथाओं में उन्हें पुद्गल का कहा था, और मात्र अजीव इसलिए नही कहा क्योंकि यदि वे अजीव ही हैं, तो इनका फल जीव क्यों भोगे? इसलिए वहां दोनो विवक्षाओं को सामने रख दिया।
ये बात हमे ध्यान में रहे इसलिए प्रस्तुत की।
यही निहितार्थ है, अति-उत्तम।
आपने सही कहा रागादि दो प्रकार के है। इसलिए, एक जीव के ही रागादि को एक विवक्षा से जीवके और दूसरी अपेक्षा से पुद्गल के नहीं कहे। जो जीव के है उसे जीव के कहे और जो पुद्गल के है उन्हें पुद्गल के कहे। गाथा 50-55 में आचार्यने निश्चय से पुद्गल के कहे। यदि वे जीव के हो और पुद्गल के कहे हो तो वह निश्चयनय नहीं व्यवहारनय हुआ।
50 से 55 गाथा में जो पुद्गल के लिखे हैं तो क्या वे सिर्फ कहे हैं? या वास्तव में हैं?
आप जीव और पुद्गल दोनों के मानते हो तो क्या बे दोनों के मिलाकर एक मानते हो या दोनों के अलग अलग मानते हो?