द्रव्य और पर्याय के भिन्न प्रदेश

यहाँ आपने ज्ञान और राग का अर्थ

जीव द्रव्य और उसके आस्रव पर्याय लिया है और उससे द्रव्य पर्याय में प्रदेश भिन्नता भास रही है।

किन्तु 181-183 की टीका में जीव तत्व - और जीव के आस्रव तत्व की बात ही नहीं है।

यहाँ तो जीव को जाननक्रिया से लक्षित करा के ज्ञान स्वरूपी सिद्ध कर,

पुद्गल क्रोधादि को उसके क्रोधक्रिया से लक्षित करा कर,

जीव पुद्गल में वस्तु भिन्नता से प्रदेश भिन्नता सिद्ध कर उनमें आधार आधेय संबंध का निषेध किया जा रहा है।

जीव रागादि और पुद्गल रागादि ऐसे दों प्रकार के भावकर्म के अस्वीकार से कितनी ही गाथाओं का अर्थ विपरीत हो रहा है उसका यह एक दृष्टांत है।

जीव रागादि और पुद्गल रागादि की चर्चा भी फोरम पर हुई है।

गाथा 181-183 की टीका में द्रव्य-पर्याय के प्रदेश भिन्नता की बात नही मिल रही। लाल लाइन किये गए सभी वाक्य जाननक्रिया रूप पर्याय का ज्ञान स्वभाव से अभिन्नता ही बता रहे हैं। इतना ही नहीं… आधार-आधेय की अभिन्नता ही इस टीका की मुख्य बात है।

टीका के भावार्थ में भी स्पष्ट दिया है कि क्रोधादि भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म और ज्ञान में प्रदेश भिन्नता है क्योंकि वे सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम है।

प्रथम तो क्रोधादि को पुद्गल का परिणाम कहाँ है, जीव आस्रव नहीं। और अब वहां भी देखिये पुद्गल द्रव्य के परिणाम लिखकर पुद्गल द्रव्य से तो उन परिणाम को अभिन्न ही बताया जा रहा है। और उपयोग पर्याय चैतन्य का परिणाम है तो उसे चैतन्य से अभिन्न ही रखा है। अपने द्रव्य से उसके परिणाम को भिन्न नही किया। अन्य के परिणाम को जरूर भिन्न कहा है।

टीका में शुरू से ही द्रव्यपर्याय में प्रदेश भिन्नता की नहीं किन्तु दों वस्तु में प्रदेश भिन्नता और आधार आधेय भिन्नता की ही बात की जा रही है।

फिरभी जीव के रागादि-क्रोधादि और पुद्गल रागादि-क्रोधादि ऐसे दों भिन्न द्रव्य से दो प्रकार के भावकर्म के अस्वीकार के कारण ही, यह गाथा का अन्यथा अर्थ हो गया है।

बड़ा खेद यह है कि टीका का अर्थ इतना विपरीत हो गया कि टीका तो एक सत्ता में प्रदेश भिन्नता नही होती की बात कर रही है और वाचक को एक सत्तावाले द्रव्य पर्याय में प्रदेश अभिन्नता की जगह भिन्नता दिखाई दे रही है।

जीव के रागादि और पुद्गल के रागादि की इतनी स्पष्टता के बाद भी यदि पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पाएंगे तो अपने में शुद्ध सत्य धर्म कैसे प्रवर्तेगा?

संज्ञा संख्या आदि भेद तो हैं किंतु प्रदेश भिन्नता किसी भी अपेक्षा नहीं है।

नहीं। प्रयोजन के लिए सिद्धान्त को उलट पलट नही किया जाता। बस कुछ धर्म-गुण-पर्यायों को गौण किया जाता हैं। पर्याय से भिन्नता सांख्य आदि अन्यमत है जैनमत नहीं। टीका में स्पष्ट है कि प्रदेश भिन्नता वस्तु भिन्नता की सिद्धि करता है। द्रव्य पर्याय के बीच क्या वस्तु भिन्नता सम्भव है? नहीं।

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