जीव की पर्याय में हुए विभाव को पुद्गल का क्यों कहा?

और

इन दोनों के अंतर को किस प्रकार समझा जाए? दोनों में क्या क्या ग्रहण किया जाएगा?

इसके द्वारा ही यह बात भी स्पष्ट हो पाएगी-

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क्या हम ऐसा कह सकते है की गाथा ५०-५५ में रागादि को अजीव तत्व कहकर पदगल कह दिया है? पूरे जीव-अजीव अधिकार में जीव तत्व और अजीव तत्व की अपेक्षा से बात करी है।

तो जीव तत्व की अपेक्षा से रागादि अजीव है (या फिर पदगल है)। जीव द्रव्य की अपेक्षा से रागादि जीव के ही है यद्यपि विभाव भाव है।

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रागादि चेतन की सभी अवस्था मे व्याप्त नहीं होने से अचेतन जड़ है कहना ठीक है। परंतु 50-55 में तो पुद्गल रागादि की ही बात है। 29 बार बिना वाक्य रचना बदले पुद्गलद्रव्य के परिणाममय कहा है। रागादि में उन्होंने वाक्य रचना बदली नहीं है।

जीव अजीव अधिकार के शुरुआत में ही लिखा है की जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते है। वहां तत्व शब्द नहीं द्रव्य शब्द लिखा है। वैसे जब दो तत्व की बात आती है तब तत्व और द्रव्य एक ही हुआ। क्योंकि दोनों जीव और अजीव सामान्य है। जब विशेष- आश्रवादि के साथ बात करते है तब तत्व का अर्थ अलग होता है। पांडे राजमल जी ने और जयसेन स्वामी ने 39 गाथा से अजीव अधिकार माना है। यहां मुख्यता से अजीव की भिन्नता का ही वर्णन है।
और पूरे अधिकार में कर्म, कर्म विपाक और नोकर्म कि बातें बार बार मिलती है।

डॉ भारिल्ल जी ने परमभावप्रकाशक नयचक्र में इसका नयों के आधार पर बहुत ही सुंदर विवरण दिया है:

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यह बात व्यवहारनय से तो ठीक है की पुद्गलकर्म के उदय से उत्पन्न हुए होने के कारण निमित की अपेक्षा जीव के रागादि को पुद्गल कह दिया जाए। क्योंकि व्यवहार नय निमित कारण को कर्ता मानता है। और एक द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य में मिलाता है।

परंतु क्या गाथा 50-55 में व्यवहार नय का उपयोग है या निश्चय? यह हमें समझना है।

आचार्य ने वर्ण से बात शुरू की गुणस्थान तक। वर्ण आदि से संस्थान तक तो हम सभी निश्चयनय से वे जीव से भिन्न है मानते ही है। अब आचार्यने तो निश्चयनय से लिखना शुरू किया और वहीं वाक्यरचना कायम रखते हुए गुणस्थान तक सबको पुद्गलमय लिखा है। जब निश्चय से बात की है, और रागादि को जीवगत और पुद्गलगत तो शास्त्रो में कहा भी है- तो इस गाथा में पुद्गलमय रागादि समझ ने में कोई दोष नहीं आ रहा। जीव के समझने में दोष आ रहा है क्योंकि उन्हें निश्चय से पुद्गल नहीं कह सकते। व्यवहार से ही पुद्गल कह सकते है।

रागादि पुद्गल में तो दिखते नहीं क्योंकि पुद्गल कर्म के उदय हमें कहाँ दिख रहे है? उन उदय का नाम ही तो पुद्गलगत रागादि है। जी यह जरूर है कि जीव के रागादि पुद्गल में नहीं दिखते। और पुद्गल के रागादिरूप उदय को तो केवली पुद्गल में ही देख रहे हैं।

जीव के रागादि निश्चय से जीव के, और व्यवहार से पुद्गल के। यह तो मान्य है। पर आचार्य ने जिस नय से लिखा उस नय से उस गाथा का अर्थ हो।

जब निश्चय से अपने रागादि को “स्वभाव नहीं - विभाव है” ऐसे हेय बुद्धि से देखकर अपना प्रयोजन साध सकते है, तो अपने रागादि को अभुतार्थ व्यवहार नय से पुद्गल के देखने का कोई प्रयोजन नहीं दिखता। और इसीलिए इस गाथा के अर्थ को व्यवहारनय के आलंबन से समझने की जरूर भी नहीं दिखती।

गाथा के अर्थ करने में आगे पीछे की गाथाएं उपयोगी होती है। गाथा 56 में स्पष्ट कहा है कि वर्णादि से गुणस्थान तक व्यवहार से जीव के है। यह सद्भूत या असद्भूत व्यवहार होगा?

इसे टीकाकार आचार्यने स्पष्ट भी किया कि ‘व्यवहार दूसरे के भाव को दूसरे का कहता है।’ फिर यह तो असद्भूत व्यवहार ही हुआ।

अब असद्भूत व्यवहार से जीव के अपने ही रागादि को जीव का ही तो नहीं कह सकते वह तो अशुद्ध निश्चय या सद्भूत व्यवहार हुआ। तो यह स्पष्ट होता है कि पुद्गल के वर्णादि रागादि गुणस्थान को जीव का कहना असद्भूत व्यवहार है जो गाथा 56 में है।

यहां जीव के रागादि की तो बात ही नहीं। बल्कि पुद्गल के रागादि की बात स्पष्ट हो रही है। पुद्गल के रागादि को जीव का कहना व्यवहार- उस व्यवहार की बात है।

फिर 57 में इन भावों का जीव के साथ संबध क्षीर नीर के उदाहरण से अवगाहरूप संबंध स्वीकारा है पर तादात्म्य संबध नहीं स्वीकारा। एक क्षेत्र अवगाहन संबध तो दो द्रव्यों का होता है ना। दो तत्वों के लिए तो वह अवगाहन संबंध की चर्चा नहीं होती।

58-60 में फिरसे “मार्ग लुटता है” का असद्भूत व्यवहार का ही दृश्टान्त देकर सिर्फ संस्थान तक ही नहीं पर कुंदकुंदआचार्य ने आदि शब्द जोड़ कर गुणस्थान तक कि बात की है। और अमृतचंद्र आचार्य फिरसे आदि शब्द का विस्तार करने का श्रम ले रहे हैं।

अब 62 में तो स्पष्ट कह रहे है कि अगर तू उसे जीव के मानता है तो फिर तो जीव अजीव का भेद तू कैसे करेगा? और वर्णादि सभी भावो का पुद्गल के साथ तदात्मकता कहा है। भावों का तदात्म्यता अपने द्रव्य से ही होगा अन्य द्रव्यों से तो नहीं।

कलश में भी कई आधार मिलते है पर कलश 39 का एक सुंदर वाक्य ही यहां दे रहे है।

“अहो ज्ञानीजनो! ये वर्णादि से गुणस्थानपर्यंत भाव है उन समस्त को एक पुद्गल की ही रचना जानो; इसलिए यह भाव पुद्गल ही हों, आत्मा न हों।”

अब इसके बाद भी जीव के रागादि आश्रव को पुद्गल निमित अपेक्षा पुद्गलमय मानने का मन में आग्रह हो रहा हो तो एक प्रश्न यह है कि 14वे गुणस्थान में आश्रव नहीं होते तो उसे पुद्गलमय किस अपेक्षा कहेंगे?

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तो आप कह रहे है कि पूरे जीव अजीव अधिकार में अजीव को केवल पदगल से जोड़ा है, जीव के रागादि भावों से नहीं?

आप गहन रुचि रखतें हैं, एतदर्थ धन्यवाद।
इन विषयों में चिंतन-मनन-अध्ययन तीनों की आवश्यकता है, आप इस विषय को और पढ़ें और उसके बाद हमें पुनः निष्कर्ष पर लाकर खड़ा करें।

समयसार में नयों का प्रयोग नामक बहुत सुंदर व्याख्यान माला है, आप अवश्य सुनें।

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हमारे पूर्व उत्तर, जिसका अधिकतर भाग तो शास्त्र वचन ही थे, उसका अभिप्राय आप समझ रहे है, यह जानकर प्रसन्नता हुई।

एक गहन रुचिधारी ही, अन्य के रुचि के गहनपने का अनुमान कर सकता है, जो कि आपने किया। आभार। उत्तर देने के कार्य से गहन अभ्यास का स्वादभी हमने चखा। स्वयं स्वतंत्र मुलशास्त्र पढ़ने में अनोखा आनंद आता है।

आपने जो विडिओ लिंक भेजी वह हमने सुना। अनेक शंकाए हुई हमें उस पर। परंतु यह पब्लिक फोरम है। आपने व्यक्ति विशेष का सुनने/पढ़ने का सुझाव किया पर हम उस पर यहां टिप्पणी नहीं कर सकते। कभी आपसे व्यक्तिगत चर्चा होगी तो उस विडिओ पर हमारे विचार जरूर बताएंगे।

आचार्यदेव ने निश्चय से और व्यवहार से वर्णन किया। और हम पर उपकार कर स्वयं निश्चय व्यवहार के अर्थ के लिए गाथा लिखी है जिससे अनेक प्रकार के अर्थ हमें ढूंढने न पड़े। आचार्य ने जिस प्रकार का अर्थ किया है उसी प्रकार हमें भी करने की आवश्यकता है।

39-43 गाथा में पर को आत्मा कहनेवाले को अज्ञानी कहा है।

44 गाथा में कुंदकुन्द देवने पुद्गलकर्म के उदय से निष्पन कहा उसे अमृतचंद्र आचार्य ने पुद्गलमय स्पस्ट कहा। निमित अपेक्षा उन्होंने बताई नहीं।

आगे गाथाओ में व्यवहार समझाने (नम्बर आप स्वयं शास्त्र से देख ले) राजा-सेना, जल-दूध, रास्ता-राहगीर, म्यान-तलवार, घी-घड़ा यह सभी दो द्रव्यों के उदाहरण ही दिए है। एक द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के निमितकारण से “निश्चय से” उसका कहने का कोई उदाहरण नहीं दिया। व्यवहार से पुद्गलकर्म के भाव को जीव का कहने का “व्यवहार” जरूर कहा है। जीव-पुद्गल दो द्रव्य, उसमें अध्यवसान विगेरे सब को निश्चय से पुद्गल, जीव से भिन्न बताया है।

उपचार करे सो व्यवहार- यथार्थ सो निश्चय। फिर जीव के विकारी पर्यायो को पुद्गल कहना तो निमित की मुख्यता से उपचार हुआ फिर वह निश्चय/परमार्थ कैसे? क्यों हम कुछ अलग खोजना चाह रहे है?

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श्री पन्ना जी,

बहुत विचार पहले भी हुआ है, अधिक नहीं कहूँगा। आप अध्यात्म को आगम के मुखौटे से देख रहे हैं इसलिए आपको इतनी दिक्कत हो रही है।

समयसार गाथा 44/45 की जयसेनाचार्य की टीका में अध्यवसान आदि को शुद्धनिश्चय नय से पुद्गल का कहा है। और उसके ही आगे अध्यवसान आदि को अशुद्धनिश्चय नय से जीव का कहा है। फिर उसको समझाते हुए कहा कि आगे के निश्चय नय के लिए पीछे का व्यवहार होता है।

जब परमशुद्ध निश्चय नय से आत्मा को शुद्ध कह दिया गया है तो अशुद्ध-दशा को बताने वाला नय व्यवहार ह्यो जाता है।

अन्त में इतना कहूँगा कि जिस निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध में अन्वय-व्यतिरेक घटित हो जाता है, तो वह निश्चय बन जाता है। जब वही सम्बन्ध औपचारिक हो जाता है तो वह व्यवहार - इस formula को अध्यवसान के साथ कर्मोदय/पर-द्रव्य पर लगाएँ एवं और फिर जीव पर लगाएँ।

क्या जहाँ-जहाँ जीव है, वहाँ-वहाँ अध्यवसान है? और क्या जहाँ-जहाँ कर्मोदय है, वहाँ-वहाँ अध्यवसान नहीं है?

कृपया विचार करें। मैंने अपनी छोटी-सी बुद्धि से यही समझा है। बाकी जैसा आचार्य कुन्दकुन्द कहेंगे वैसा मान लूँगा।

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तात्तपर्यवृत्ती में भी आचार्य जयसेन ने जीव के विभावि परिणाम और पुद्गल दोनो को लिया है। देखिए ५०-५५ की टीका के अंतिम paragraphs (अंत में ५५-६० लिखा है, उसे गौण कर दें, वो ५०-५५ है)। उनमें से महत्वपूर्ण अंश underline कर दिए है।

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बहुत ही मार्मिक चर्चा है, खूब आनंद आया इसे सुनकर।

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आपने शास्त्र आधार दिया उससे हम प्रसन्न है। हमने जयसेन आचार्य की टीका भी पढ़ी है। पर प्रथम हम यह निर्णय करना चाह रहे है कि कुंदकुंदआचार्य ओर अमृतचंद्र आचार्य ने क्या कहा है।

क्या आप कुंदकुंददेव व अमृतचंद्र आचार्य का कोई प्रमाण दे सकते है जो “जीव के रागादि को निश्चय से पुद्गल” कहता हो? या आप हमसे यह बात पर सहमत है कि कुंदकुंददेव व अमृतचंद्र आचार्यने तो निश्चय से पुद्गल के रागादि को ही अजीव कहा है। जीव के रागादि को पुद्गल नहीं कहा।

यदि आप इससे सहमत हो तो बताइएगा। फिर हम जयसेन आचार्य की बात भी स्पष्ट करेंगे। ना नहीं है।


कुछ बाते संयमजी के मैसेज के प्रतिउतर में कहना चाहते है।

आप हमारी बात को आगम बता रहे हो, जो निराधार है, क्योंकि हमने तो कुंदकुंददेव और अमृतचंद्र आचार्य के ही कथनों को प्रस्तुत किया था, जो पूरा ही अध्यात्म है।

शायद ढूढने पर भी आपको उसमे “जीव की पर्याय को निश्चय से पुद्गल” कहने वाला कोई कथन नहीं मिल पाया होगा, इसीलिए उत्तर में आचार्य कुंदकुंद और अमृतचंद्र का आधार देने में आपको दिक्कत आई। क्या ऐसा है?

इन आचार्यों द्वारा कथित “अजीव अध्यवसानादि भाव” आपको पुद्गल स्वीकार नहीं हो रहा, इसलिए “जीव के अध्यवसान को ही निश्चय से पुद्गल कहा है” इस मान्यता का पोषण करने के लिए जयसेनाचार्य की टीका को देखना पड़ा होगा।

या तो यह भी हुआ होगा कि आपको अमृतचंद्र आचार्य और जयसेन आचार्य के कथन में विरोध दिख रहा है। एक पुद्गल का कह रहा है एक जीव का - क्या ऐसा आपको लगता हैं?

जब आप आचार्य कुंदकुंद और अमृतचंद्र देव के शुद्ध अध्यात्म को समझ पाओगे तभी आप जयसेनाचार्य की टीका का अर्थ समझ पाओगे।

जयसेनाचार्य की टीका शुद्ध अध्यात्म नहीं है, अध्यात्म और आगम मिश्रित है और इसतरह अमृतचंद्र आचार्य को समझे बिना आपकी दृष्टि भी शुद्ध अध्यात्म नहीं हो पा रही है।

निमित्त नैमित्तिक संबंध पर जोर, जोर ही नहीं, नैमित्तिक को निमित्त का ही कार्य मानना, यह आगम दृष्टि है अर्थात् व्यवहार दृष्टि से ही संभव है। आपके उत्तर में यही जोर है। दो द्रव्यों के एकत्व करने वाली व्यवहार दृष्टि को ही आपने परमार्थभूत अध्यात्म मान लिया है। वही इस चर्चा का जन्म स्थान है।

आपने कहा “निमित-नैमित्तिक संबंध से अन्वय-व्यतिरेक घटित होने से निश्चय बन जाता है” कृपया इसका आत्मख्याति से आधार दें।

आगम ग्रंथों में निमित्त नैमित्तिक संबंध का अन्वय व्यतिरेक घटाया जाता है, परंतु अध्यात्म ग्रंथ में उसको व्यवहार कहते हैं।

कृपया इसतरह घटा के देखे - जब जब अध्यवसान होते हैं, तब तब बंध होता है - ऐसे निमित नैमित्तिक संबंध में अन्वय व्यतिरेक घटित होता है तो आपके अनुसार अर्थ यह हुआ कि निश्चय से वह कर्मबंध का कर्ता पुद्गल को नहीं, जीव को ही मानना चाहिए।

क्या पुद्गल के भाव का जीव कर्ता - ऐसा निश्चय समयसार में है? गाथा 56 में तो उसे व्यवहार कहा है। समयसार में इस प्रकार “एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कर्ता मानना अज्ञान है” ऐसा दिया है।

क्या शास्त्र में अजीव मिथ्यात्व आदि भाव नहीं कहे? उन्हें पुद्गल के मानने में क्या दोष आ रहे हैं वह जरूर बताएं। अब तक के उत्तर में यह किसी ने नहीं बताया।

आगम निमित की मुख्यता से कहता है इसलिए व्यवहार है। उसी कथन को “निमित्त की ही मुख्यता से अध्यात्म में निश्चय कहना” यह आप जैसे तर्कशाली युवा को कैसे बैठती है?

आपकी अंतिम लाइन का अनुकरण कर कुंदकुंददेव की बात मान लेना चाहिए।

जीव के रागादि को हेय कहने से प्रयोजन सिद्धि होती है, प्रयोजन के लिए उसे ‘निश्चय से पुद्गल’ नहीं कहना पड़ता। वह तो कर्ता-कर्म का विपरीत ज्ञान हो गया। सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में जो जीव के परिणाम का कर्ता कर्मोदय मानता है उसे सांख्यमति कहा है। आप तो उससे भी आगे उसे सिर्फ कर्ता ही नहीं, उसे पद्गलवस्तु ही मान रहे हो।

आपके विचार पढ़कर बहुत गदगद हो रहा हूँ। फिर भी निम्न बिन्दुओं पर विचार करना अपेक्षित है।

मैंने ऐसा कहाँ लिखा?

कोई दोष नहीं है, सही है।

ऐसा भी कहाँ कहा है?

नहीं हुआ! क्योंकि ज्ञानादि स्वभाव की दृष्टि से अध्यवसान आदि को निश्चय से पुद्गल का कहा है।

यहाँ जीव के अध्यवसान का कर्ता कर्मोदय को कहा है, जीव के ज्ञानादि का कर्ता कर्मोदय नहीं है।

Blockquote

'समयसार में जीव अजीव अधिकार में वर्णादि रागादि गुणस्थान जीव के नहीं, पुद्गल परिणाम ‘हैं’ ऐसा लिखा है और आप लिखते हो कि पुद्गल परिणाम ‘कहा’ है।

मात्र ‘है और कहा’ का अंतर आ रहा है।

जब आपका जवाब आएगा कि “हां, जीव के नहीं, पुद्गल परिणाम हैं” तो हम समझ लेंगे कि आपने आचार्य देव की बात मान ली।

Blockquote

आपने लिखा है कि “जीव के अध्यवसान का कर्ता कर्मोदय को कहा है और ज्ञान आदि का कर्ता कर्मोदय नहीं है।” परंतु गाथा 109 से 112 की टीका के अंत में लिखा है

“गुण (गुणस्थान) तो पुद्गलद्रव्य ही हैं, इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्म का पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है।”

और 50 से 55 गाथा में तो

“संयमलब्धिस्थान और गुणस्थान भी पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं” लिखा है।

आप कहते हो कि अध्यवसान का ही कर्ता कर्मोदय को कहा है परंतु यहां तो "13-14वे गुणस्थान मैं तो अध्यवसान हैं नहीं, इनको भी पुद्गलकर्म का कर्ता और पुद्गलद्रव्य ही लिखा है।

सौ कैसे?

दृष्टि की अपेक्षा से ‘है’। त्रिकाली (अध्यात्म) ध्रुव की दृष्टि करेंगे तो अध्यवसानादि पुद्गल ही है। प्रमाण की अपेक्षा से अध्यवसानदी जीव ही है।

यहाँ पर नय लगाना ही पड़ेगा वरना एकांत हो जाएगा, पूर्ण मिथ्यात्व हो जाएगा। यद्यपि आचार्य कुंदकुंद ने ५०-५५ में निश्चय-व्यवहार नय explicit नहीं बताया है (और वह आचार्य जयसेन ने टीका में बता दिया है जो मैंने उपरोक्त post में attach किया) लेकिन हमें नय लेना ही पड़ेगा की स्वभाव की दृष्टि से जीव के अध्यवसानादि भाव पुद्गल ही है, जीव नहीं। जीव-प्रमाण की दृष्टि से ये भाव जीव ही है, पुद्गल नहीं।

जब आचार्य ने ऐसा लिखा की ये गुणस्थान भाव पुद्गलद्रव्य ‘है’ वो वापस से स्वभाव/त्रिकाल की दृष्टि से कहा गया है की भाई! अगर तुम्हारी दृष्टि स्वभाव पर हो तो ये गुणस्थान/रागादि भाव तुम्हारे में हो ही नहीं! तुम्हारी दृष्टि पुद्गल पर है इसलिए तुम्हारे ये भाव है, और इसलिए इन सब का कर्ता पुद्गल है। त्रिकाली जीव नहीं। इसलिए तुम ऐसा मानना छोड़ो की मैं इतना सब ‘कर्ता’ हूँ और स्वभाव में जाओ।

आत्मख्याती में भी स्पष्ट लिखा है की रागादि भाव ‘अनुभूति’ से भिन्न है।

अब आप गाथा १६४-१६५ (आस्त्रव अधिकार की पहली २ गाथायें) देखिए। यहाँ पर (गाथार्थ की बात कर रहें है, टीका की नहीं) आचार्य कुंद्कुंद ने स्वयं लिखा है जीव में उत्पन्न होने वाले आस्त्रव परिणाम जीव के ‘ही’ है। इसलिए अगर हम ऐसा कहें की ५०-५५ में तो वे पुद्गल के ‘है’ और १६४-१६५ में जीव के ‘है’ तो फिर पूर्वापर दोष आ जाएगा। इसलिए जहां जिस अपेक्षा जैसा कथन है वैसे ही लीजिए। ५०-५५ में दृष्टि प्रधान कथन है (शुद्धनिश्चय नय) और १६४-१६५ में प्रमाण कथन है (अशुद्धनिश्चय नय)।

मोक्ष मार्ग प्रकाशक
निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि का प्रकरण- page no. 196-197

नय के कथन प्रयोजनपरक (किसी विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए) होते है। प्रमाण के कथन वस्तुस्थिति दर्शाते हैं।

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प्रथम दिन से हम मोक्षमार्ग प्रकाशक के इस आधार का इंतजार कर रहे थे। “जीव के रागादि को निमित की मुख्यता से पुद्गलमय कहा है।” का यह एकमात्र सबसे बड़ा आधार है।

Though इसमें पंडितजी ने “निश्चयनय से” नहीं लिखा। (जी कलश 37 जरूर लिखा है। और साथ में उभयाभासी प्रकरण में निमित मुख्यता से किये कथन को व्यवहार भी कहा है।)

आप जैसे विद्वान से यह आधार सर्व प्रथम आने की उम्मीद थी।

यह लाकर आप ने बहुत अच्छा किया। इस वाक्य में solution लाने की योग्यता थी।

पण्डितजी के प्रति पूर्ण आदर और उनके इस वाक्य को जानते हुए भी, हमने “जो पुद्गलमय कहे है वह पुद्गल के है” के पक्ष में मूल गाथा व टीका प्रस्तुत की है। क्योंकि हम चाहते थे की जब मोक्षमार्ग प्रकाशक का आधार आए और आप चर्चा में secure feel करो, तब पक्ष-विपक्ष का रोल टूटने पर हम आपसे निवेदन कर सकते है कि अब आप फिरसे एक बार हमारे उतर / गाथा टीका के मूल शब्द पढ़ना।

Hopefully it will bring to you, a new light and take you to root cause of … “कहा है” को “निश्चयनय” कहने से उत्त्पन हो रही विपरीत मान्यताएं जो हमारे आध्यत्मिक जैनशासन में घर कर गई है।

प्रयोजन से नय उपयोग जरूर होता है पर व्यवहारनय, निश्चय बन जाता नहीं। वस्तुस्थिति से विपरीत ना निश्चयनय होता है, और ना सद्भूत व्यवहार नय। एक निमित अपेक्षित असद्भूत व्यवहार ही ‘वस्तु स्थिति से विपरीत होता है।’ और उसी असद्भूतनय को यहां ‘निश्चयनय’ कहने की कोशिश हो रही है और कई लोग उसे वस्तुस्थिति तक ले जाते है। - अब पक्ष-विपक्ष न देख कर इसपर विचार जरूर करना।

आपने solution mark किया है इसलिए अब हम रजतजी को जो विरोध और एकांत का दोष दिख रहा है उसका समाधान नहीं दे रहे। (आप permission दे तो उतर दे सकते है।)

एक बात जरूर कहेंगे, की 50-55 में जिसे पुद्गलमय कहा है वह 'पुद्गल के रागादि नहीं हो सकते" इसका कोई आधार आया नहीं। और नाही हमारे गुणस्थान संबंधी प्रश्नो का उतर आया।

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कहा है, तभी तो श्रद्धान हुआ है। मैं तो इस पक्ष का हूँ - जब तक ऐसा नहीं माना तब तक श्रद्धा का बीज भी अंकुरित नहीं हुआ।

बाकी मुझे नहीं लगता कि आपके और मेरे विचारों में कोई अन्तर है, भाषागत प्रस्तुतिकरणों को मैं दोष नहीं समझता।

आप भाषागत गम्भीरताओं के सम्बन्ध में हमें कुछ कहना चाहते हैं, कृपया खुलकर सीधे-सीधे बिन्दुवार अपनी बात कहें।