जीव की पर्याय में हुए विभाव को पुद्गल का क्यों कहा?

जैसे निर्मलता स्फटिक की वैसा ही जीव स्वभाव देख
स्फटिक के आगे कोई फूल रख दे तो उसमें जो फूलके निम्मित्त से फूल का रंग झलकता है वो उपादान तो स्फटिक का है परंतु निम्मित की मुख्यता से स्वभाव ग्रहण हेतु संयोगी भाव को उस निमित्त का बता दिया उसी समय स्वभाव शुद्ध ही है और पर्याय में खुद के ही उपादान से रंग भी है
विभाव को सर्वथा पुदग़ल का नहि कहा जा सकता
स्वभाव ग्रहण की प्रयोजन सिद्धि के हेतु, विभाव में ज्ञान नहि इस अपेक्षा से और विभाव संयोगी भाव है इस अपेक्षा से पुदग़लमय कहा।
विभाव को सर्वथा पुदग़ल का कहे तो जीव पर्याय से भी सर्वथा शुद्ध होना चाहिए और सर्वथा जीव का कहे तो स्वभाव बन जाए।
विभाव जीव की पर्याय में जीव के क्षणिक उपादान से उत्पन्न हुआ क्षणिक संयोगी भाव है।

आपका कहना है कि

50-55 में जीव के रागादि को “निमित की मुख्यता” से पुद्गल ‘कहा’ है। ‘निमित मुख्यता से’ और ‘कहा’ इन शब्दो से यह उपचार कथन हुआ।

यदि आप उसे व्यवहार कथन कहो तो आपमें और हम में कोई अंतर नहिं।

यदि आप ‘जीव के रागादि’ को निश्चय कथन/परमार्थ से निमित अपेक्षा लगाकर ‘पुद्गल के है’ कहते हो तो हम से अंतर है।

क्योंकी निमित अपेक्षा के कथन को निश्चयनय व परमार्थ नहीं गीना जाता।

उपचार से कहने में हमें कोई विरोध नहीं। और यही अर्थ प्रचलित भी है। उस प्रचलित अर्थ में निश्चय/परमार्थ कहने का दोष आ गया था। वह हम दिखा रहे है। यह सिर्फ भाषाकीय भूल नहीं। नय के परिभाषा की भूल है।

दूसरा, हम यह भी चाहते है कि आप नीचे दिए पॉइंट पर विचार करे। जो प्रचलित नहीं पर सोचने लायक जरूर है। अप्रचलित होने से तुरंत स्वीकार ना होने से कृपया अस्वीकार न करे।

जब कोई बात उपचार से कहे तो “पुद्गल के कहे है” ऐसी वाक्य रचना बनती है। “पुद्गल के है” यह वाक्य रचना नहीं बनती। आचार्य ने “पुद्गल के है” लिखा है और असद्भूत व्यवहार का दृश्टान्त दिया है। इसलिए वह “जीव के रागादि को पुद्गल कहा है” ऐसा नहीं, परंतु “पुद्गल के रागादि को ही पुद्गल है” ऐसा लिखा है। जिसके आधार हमने पूर्व के उत्तरो में दिया है। आप एकबार मूल शास्त्र से भी जरूर पढ़ें।

आत्मानुभव के प्रयोजन के लिए ‘जीव के रागादि’ से स्वभाव विभाव का भेदज्ञान कर “जीव के रागादि” को गौण किया जाता है, उसे “पुद्गल द्रव्य के परिणाम” रूप निश्चय से देखने की जरूर नहीं है।

श्रद्धा उसे अपने ही विभावरूप मान हेय कर देखती है। श्रद्धा उसे पुद्गल नहीं देखती। यदि श्रद्धा उसे पुद्गल देखेगी तो मिथ्या होगी क्योंकि श्रद्धा में नय अपेक्षा नहीं होते। जो जिसका भाव है उसको उसी का श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है और भाव किसीका है, माने किसीका वह मिथ्यादर्शन है।

अनुभूति के काल में तो दोनों (जीव व पुद्गलगत) रागादि नहीं दिखते परंतु दोनों रागादि अनुभूति से बाहर होने से एक ही द्रव्य के नहीं हो जाते। जो जीव के है उसे ज्ञान/श्रद्धा जीव के ही मानते है परंतु हेयरूप। जो पुद्गल के है उसे पुद्गल के ही मानते है, भिन्न द्रव्यरूप।

अनुभूति से बाहर है उसे गाथा में पुद्गलमय लिखा है तो वह पुद्गल के रागादि की बात है।

फिर भी प्रचलित अर्थ जो की “व्यवहार से जीव के रागादि को पुद्गलमय कहता है” उससे भी हमें आपत्ति नहीं। बस, वह अर्थ निश्चयनय से नहीं है। उसे निश्चयरूप देखने के कारण ही आज अध्यात्म जगत में बहुत सी गलत्ति घर कर गई है।

‘निमित अपेक्षा’ कथन को ‘निश्चयनय’ कहना और फिर जीव के रागादि को पुद्गलमय कहने में दोष है।

जीव अजीव अधिकार है तो गाथा तो पुद्गल के रागादि की ही भिन्नता सिद्ध कर रही है। उसमें जीव के रागादि की बात हम ला रहे है। जो आस्रव अधिकार का हेतु है।

आ. पन्नाजी,

मैं आपकी बात से सहमत हो सकता हूँ कृपया निम्न प्रश्नों के उत्तर दें -

  1. निमित्त की अपेक्षा से किया गया कथन निश्चय नय का विषय नहीं हो सकता? (अशुद्ध निश्चय नय से रागादि जीव के हैं - ऐसा अनेक नयचक्रों में कहा है, क्या रागादि कभी भी परद्रव्य के बिना हो सकते हैं?)

  2. कृपया जीव राग और पुद्गल राग का अर्थ बताएँ।

  3. कहा है और है में कहने वाले के अभिप्राय से अन्तर पड़ता है न कि वस्तुस्थिति से - इसमें दोष क्या है?

  4. यदि मात्र पुद्गल से रागादि से भेदज्ञान कराया जा रहा है तो जीव रागादि को कहाँ डालेंगे जीवाजीव अधिकार के अनुसार?

  5. जब जीव और अजीव राग/अध्यवसान का भेद ही कर्ता-कर्म अधिकार में किया है तो यहाँ उस भेद को लाने के पीछे आपका क्या अभिप्राय है?

धन्यवाद!

आप निश्चय नय को साक्षात शुद्ध निश्चय नय और परमशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से देख रहे है तो सही है परंतु अशुद निश्चय नय की अपेक्षा से आप नही कह सकते।

भेद को अभेद रूप कहना भी निश्चय नय की अपेक्षा है।

जीव के रागादि, अशुद्ध निश्चय/सद्भूत व्यवहार एवं असद्भूत व्यवहार, दोनों का विषय बन सकता है।

यदि कोई पुरुष, जीव रागादि को “यह कौनसा द्रव्य है?” की अपेक्षा देखें तो वह जीव द्रव्य है, इस दृस्टि को अशुद्ध निश्चय कहेंगें क्योंकि उपादान की मुख्यता से “जीव के रागादि हैं” ऐसा ‘जानेगा/मानेगा’।

अब यदि वही पुरुष उस रागादि को पुद्गल निमित अपेक्षा देखेगा तो उसे वह निमित अपेक्षा पुद्गल के “कहेगा”। वह कहेगा तब तक तो असदभूत व्यवहारनय है पर यदि पुद्गल मानेगा तो मिथ्यात्व है।

“निमित अपेक्षा” से कहना निश्चयनय नहीं होता, क्योंकि वह अ+सद्भूत है। निश्चय यथार्थ कथन करता है।

वस्तु जैसी है वैसा जानना निश्चयनय है। वस्तुस्थिति से अन्यथा परद्रव्य-निमित की मुख्यता से उपचार कर “कहना” व्यवहार है। वस्तुस्थिति से अन्यथा निमित का कार्य “मानना” मिथ्यात्व है।

[quote=“Sayyam, post:44, topic:3350”]
निमित्त की अपेक्षा से किया गया कथन निश्चय नय का विषय नहीं हो सकता? (अशुद्ध निश्चय नय से रागादि जीव के हैं - ऐसा अनेक नयचक्रों में कहा है, क्या रागादि कभी भी परद्रव्य के बिना हो सकते हैं?)

रागादि, अशुद्ध निश्चयनय का विषय तो बनता है, परंतु निमित अपेक्षा से नहीं।

समयसार गाथा 50-55 में निमित अपेक्षा कथन नहीं, इसलिए निश्चयनय है। गाथा 56 से व्यवहार-निश्चय का स्वरूप देखें। पंचास्तिकाय गाथा 62 में दिया है कि “निश्चय से” जीव के औदायिकादि (रागादिभाव) अपने षट्कारक से होते हैं परद्रव्य से नहीं होते।

“बिना निमित नहीं होते” देखना भी निमित अपेक्षा होने से व्यवहार हुआ।

जीव के चारित्र गुण की विभाव अवस्था जीवराग है, और चारित्रमोहकर्म की रागरूप प्रकृतिओं का उदय अजीवराग है ।

मोक्षमार्ग प्रकाशक में दिया है कि निश्चय का अर्थ " सत्यार्थ ऐसे ही है" और व्यवहार का अर्थ “ऐसे है नहीं, निमितादि की अपेक्षा उपचार किया है”।

असद्भूत का अर्थ उपचाररूप - “कहा है” वचन को यदि यथार्थ (निश्चय) मानने का अभिप्राय है तो वह वस्तुस्थिति से विपरीत होने से बड़ा दोष है। अशुद्ध निश्चय के “है” कथन से जीव को वर्तमान अवस्थारुप माने तो वस्तुस्थिति से यथार्थ है।

गाथा 6 की टीका में जीव के ‘शुभाशुभ भावों’ को और गाथा 32 की टीका में “अपना आत्मा भाव्य(मोह)” और मोह कर्म के उदय भावक को ज्ञायकभाव- ज्ञानस्वभाव से भिन्न दिखाया है। (एक द्रव्य में स्वभाव-विभाव का भेदज्ञान जैनधर्म की विशेषता है।) इसतरह गाथा 32 में दोनों रागादि की बात है।

अजीव अधिकार में अजीव के द्रव्य-गुण-पर्याय सभी को अजीव में दिखा के, जीव से भिन्न दिखाता है। अजीव से एकत्व ममत्व छुड़ाता है।
कर्ता कर्म अधिकार में जीव के भावों का कर्ता जीव और पुद्गल के भावों का कर्ता पुद्गल दिखाके दोनों के अपने अपने कर्ता-कर्म दिखाकर, जीव पुद्गल के बीच कर्ता-कर्म का निषेध करके कर्तृत्वबुद्धि छुड़ाई है।


संयमभाई, आपने हमें आदरणीय शब्द से संबोधन किया, उसमें भरा आपका वात्सल्य हमारे हृदय को छू गया और मन प्रसन्न भी हुआ। तथापि साधर्मी से कोई विशेष प्रकार के आदर प्राप्त करने की हमारी भूमिका नहीं है। आप संबोधन बिना हमें पन्नाजी लिख सकते है। यदि संबोधन लिखना ही चाहो तो विनती है कि धर्मवत्सल जैसा कोई हमारी स्थिति अनुरूप संबोधन का प्रयोग करें।

हम सभी आचार्य से सहमत होना चाहते है। :slight_smile:

आचार्य तो कहते है अभेद में भेद करना व्यवहार है। आप कहते हो भेद को अभेदरूप “कहना” निश्चय है… नहीं वह व्यवहार है।
अब हम अधिक क्या कहें? ये “कहना” शब्द पर हम बहुत पहेले ही लिख चुके हैं।

कृपया एक वार, आचार्य ने गाथा 56 में स्पस्ट नय समझाये हैं, वह आचार्य के पास से सीधा समझें, फिर आप ही समझ जाओगे कि निश्चय के अनेक भेदो में उलझने की जरूरत नहीं

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अशुद्ध निश्चयनय का काम ही ये है भेद को अभेद रूप कहना इसीलिए तो अशुद्ध कहा

आ. पन्ना जी,

मुझे ऐसा लगता है कि आप शब्दों पर वज़न इतना दे रहे हैं कि आप अभिप्रायों से कहीं च्युत तो नहीं हो रहे स्वयं जाँच लें; क्योंकि ये चर्चा का कोई ओर-छोर मुझे नज़र नहीं आता।

साथ ही जीव राग को अपना कहने पर आस्रवों से भेदविज्ञान कैसे होगा - ये मेरी समझ से बाहर है।

साथ ही रागादि को अशुद्ध निश्चय से जीव और शुद्धनिश्चय से पुद्गल का अनेक स्थानों पर उल्लेख इसही जीवाजीव अधिकार में कहा है - उसके पीछे क्या अभिप्राय है?

और आपको जानकर खुशी होगी कि मैं अपने शब्दों को बहुत सोच समझकर ही चुनता हूँ, और ग़लती होने पर/मानने पर पुनर्विचार भी करता ही हूँ।

आप आगे गाथा भी पढ़ लेते। भेद को अभेद कहने से अशुद्ध नहीं कहा, उपाधि से अशुद्ध परंतु उस समय तन्मय (भेद नहीं अभेद) है इसलिए निश्चय कहलाया।

अब सोचिए तन्मयता से मतिज्ञानीजीव (अभेद) और उपचार से एकइन्द्रीयजीव (यह भी अभेद हुआ) में क्या अंतर है? वहीं निश्चय व्यवहार का अंतर है। मानना-कहना का यहीं अंतर है।

जीव को मतिज्ञानी “मानना” मिथ्यात्व नहीं। परंतु एकइन्द्रीय “मानना” मिथ्यात्व।

हां जीव को मतिज्ञानी ‘मात्र’ मानना अज्ञानता जरूर है। और जीव को एकइन्द्रीय “मात्र कहना” अज्ञान नहीं।

अशुद्धनिश्चय का विषय गुण-गुणी ऐसा “भेद” नहीं “अभेद” दर्शाता है से हमने ना नहीं किया था, परंतु वह अभेद कोई कहनामात्र/उपचार नहीं। तन्मय है उस समय यह वस्तुस्थिति यथार्थ है। नयज्ञानधारी को विवेक जरूर है की यह स्वभाव नहीं। परंतु विभावरूप परिणमित मैं ही हूँ। कोई अन्य नहीं। और यह मेरा विभावरूप परिणमन कहने मात्र नहीं, वर्तमान की वास्तविकता है।

इसी तरह सोच के देखे की क्या जीव के रागादि को पुद्गल कहने में (निश्चय)वास्तविकता/यथार्थपना है? या व्यवहार/उपचारमात्र है?

जब बात सूक्ष्म होती जाती है और यदि उपयोग स्थुल रखे तो वह बात शब्द भेद जितना ही लगता है। अभिप्राय पकड़ में नहीं आते। जैसे “सक्कर मीठी है और सक्कर में मिठास है” लोगो को दोनों एक ही बात लगती है। परंतु आचार्य उसमें वस्तुस्थिति के अभिप्राय का भेद देखते है।

भाई, शब्द में अटकना और सूक्ष्मता से देखना - भिन्न होता है, यह हम जानते है।

जहाँ जहाँ रागादि को पुद्गल कहा है वह जीव के रागादि को शुद्धनिश्चय से पुद्गल कहा है यह कुंदकुंददेव या अमृतचंद्र आचार्य ने कहां कहां दिया है वह बताईये।

यह प्रश्न हम पहेले भी कर चुके है। उत्तर तभी भी नहीं आया। गुणस्थान के प्रश्नों का उत्तर भी नहीं आया। हमने आपके सारे प्रश्नों का उत्तर दिया परन्तु आप हमारे कई प्रश्नों के उत्तर देने भूल जाते हो।

मुझे लगा कि आपको इसका उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि जहाँ जहाँ णिच्छयेण या णिच्छयणयस्स लिखा है, वहाँ वहाँ यही अर्थ है। जैसे - गाथा 56।

साथ ही क्या आपको भेद-विज्ञान जो कि सम्पूर्ण जिनागम में मुक्ति की नींव है - व्यवहार नय का विषय लगता है?

क्या आत्मा और आस्रवों में भेद मानना व्यवहार नय का विषय है?

मुझे तो अब ऐसा लगने लगा है शक्कर खट्टी है।

मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि का ठप्पा आभिप्रायिक है, वचनिक नहीं - यह अनेक बार लिख चुका हूँ लेकिन आप कहीं अटके हुए हैं।

मेरा यह अन्तिम सन्देशा है - आप प्रारम्भ से ही लड़ने को उतारू थे और मैं समझा कि मुझे आपसे कुछ सीखने को मिलेगा।

साथ ही आपके अनेक प्रश्नों को नज़रंदाज़ इसलिए किया क्योंकि मैं भड़कने-भड़काने में विश्वास नहीं करता।

मैं क्षमावाणी तक का ईंतज़ार नहीं कर सकता, एतदर्थ मैं आपसे कहे शब्दों और रखे अभिप्रायों के लिए हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ।

जयदु जिणिंंदो।

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उत्तम क्षमा संयमभाई🙏

The biggest disadvantage of virtual conversation is we have to assume the tone and intention of the person. It can surely lead to misunderstanding. Unfortunately that played its role in our conversation as well.

Before I bring an end to this conversation from my side as well, I want to say 2 things.

  1. I wanted to convey that we have assumed that its जीव के रागादि, and bring various नय to justify how it can be called pudgal. However, i wanted everyone to read मूल गाथा and टीका again assuming it पुद्गल रागादि, and try to see if that assumption fits in. Or do we come across contradictions between गाथा/टीका in believing that its पुद्गल रागादि। I was also looking for supportive evidence of कुंदकुंददेव and अमृतचंद्र आचार्य that गाथा-टीका is talking about जीव के रागादि and not पुद्गल रागादि। Which neither i found, nor any of you could provide. It was unfortunate, that we couldnt do that jointly.

  2. I want to really appreciate the persons who thought about this forum, its design, the ones who executed the idea… its an awesome work. I cound have never thought about possibility of such a beautifully designed forum. Lot of thinking has gone into its idea and design. And lots of efforts in creating it. A very big congratulations and thank you for the same.

I sincerely wish that it become the best tool in fullfilling the need for सत्संग। Where even a very common yet अभ्यासी साधर्मी securely can put a point for a brainstorming.

Thanking everyone for participation and your affection.

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Jai Jinendra,

I have been going through this post and very much interested to understand it better.
Sharing the below video which clearly explains on the topic.

मोक्षमार्ग प्रकाशक (रागादि जीव के या पुदगल के ?)

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जय जिनेन्द्र। Read your post today.

If you indeed are interested in understanding it better than may I suggest you to open मोक्षमार्ग प्रकाशक page 196? Please read what पंडितजी has written about जीव के रागादि from स्वभाव अपेक्षा and from निमित मुख्यता। Has he given two अपेक्षा or one? And if two than whats the difference/purpose?

Secondly, read समयसार जीव अजीव अधिकार… and check if its निश्चयनय कथन or व्यवहार कथन? If your decision is its व्यवहार कथन than its ok to call जीव के रागादि as पुद्गल। However, i find it निश्चय कथन।

If your decision too is, it’s निश्चय कथन, than place पुद्गल रागादि everytime you read रागादि in जीव अजीव अधिकार and see if you get stuck in interpreting any गाथा, टीका or कलश? Or is it going smooth without any contradictions?

If you do this, please share your experience with me.

I know everyone is saying “its जीव के रागादि called as पुद्गल for a प्रयोजन” …i am looking for शास्त्र base support that it cant be पुद्गल रागादि and has to be जीव रागादि… lets brainstorm!

After listening to video you shared i have quite a few questions but asking a core one at the moment… ज्ञानावरणीय आदि पुद्गलकर्म अवस्था पुद्गल के रस, वर्ण आदि किस गुण की अवस्था है?

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Jai Jinendra,

Pannaji, thanks for your reply.
I read the Shastras mostly through soft copy in computer and generally they are not having the right page numbers which we refer to.
Before replying to your questions, let me just say that I don’t know Sanskrit/Prakrit languages and read the summary/explanations given after each Sloka to understand what is being said.
Below are my comments on your quotes:

"If you indeed are interested in understanding it better than may I suggest you to open मोक्षमार्ग प्रकाशक page 196? Please read what पंडितजी has written about जीव के रागादि from स्वभाव अपेक्षा and from निमित मुख्यता। Has he given two अपेक्षा or one? And if two than whats the difference/purpose?"
Panditji has given two viewpoints here. Difference is when we are looking at Raag from Swabhav view or Karma nimitta view. Purpose of these two views is to achieve right understanding about the raag/dwesh and how its exhibited, etc. By knowing that it is Jeev’s vibhav parinam, we should make efforts to reduce them. This is the purpose of knowing all the viewpoints.

"Secondly, read समयसार जीव अजीव अधिकार… and check if its निश्चयनय कथन or व्यवहार कथन? If your decision is its व्यवहार कथन than its ok to call जीव के रागादि as पुद्गल। However, i find it निश्चय कथन।
If your decision too is, it’s निश्चय कथन, than place पुद्गल रागादि everytime you read रागादि in जीव अजीव अधिकार and see if you get stuck in interpreting any गाथा, टीका or कलश? Or is it going smooth without any contradictions?"

Here, I think its Nischay nay only. The raag/dwesh parinam are said to be different due to the fact that it is occurring with pudgal as nimitta. Again, it is mentioned that the swabhav of Jeev is Veetarag. So from this swabhav viewpoint, in belief we know that raag/dwesh are not my true nature and are vibhav parinam.
I think that we can’t take literal meaning of गाथा as it is each time and need to understand the author’s view behind that. So if we try and understand the view-point of each गाथा, then the meaning becomes clear and there is no contradiction. To be honest, I did’nt really understand Samayasar at first time. After reading Moksha Marg Prakashak only, I had better understanding of Nischay/Vyavahaar, Seven Tattvas, etc.

"I know everyone is saying “its जीव के रागादि called as पुद्गल for a प्रयोजन” …i am looking for शास्त्र base support that it cant be पुद्गल रागादि and has to be जीव रागादि… lets brainstorm!"
For this explanation, we can refer to Moksha Marg Prakashak as it gives details about the same. Apart from this, I have’nt read any other shastra which explains about why Jeev’s raag is termed pudgal. If you come across any other shastra, please let me know.

"ज्ञानावरणीय आदि पुद्गलकर्म अवस्था पुद्गल के रस, वर्ण आदि किस गुण की अवस्था है?"
As we know, there are more than 20 types of Pudgal vargana explained in shastras.
Karman vargana is one of them. These karman vargana get converted into 8 types of karmas due to nimitta of Jeev bhavas.
Based on this, I can say by inference that the Jnanavarniya, etc pudgal karmas which are bound to Jeev are not a specific paryay of pudgal guna like ras/gandha/varna. But it is paryay of Pudgal as a whole. Each karma parmanu has different modifications of each of its attributes like ras/gandha/varna at each samay.

Pandit Todarmalji has said in Moksha marg prakashak that what we know is more, what we can convey through words is less because words convey one viewpoint at a time.
The explanations here are based on my understanding.
Apologies if anything is said wrongly against Jinaagam.

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I am pleased, appreciate and thank you for responding to my post not selectively but entirely.

As can be seen Panditji has clearly stated that from स्वभाव अपेक्षा जीव रागादि is seen as परभाव (विभाव) not पुद्गल। its seen as पुद्गल only from निमित अपेक्षा।

Thus for स्वभाव प्राप्ति प्रयोजन, जीव रागादि को निश्चय से परभाव देखने से काम हो सकता है। Only if we want to see from निमित दृस्टि / व्यवहार दृस्टि we may see it as पुद्गल. Please note that its not essential to see it from व्यवहार निमित दृस्टि for स्वभाव प्राप्ति प्रयोजन। Think well about it.

Now since you have agreed that समयसार has used निश्चय नय। Following that i had also requested you to try place पुद्गल रागादि for रागादि in जीव अजीव अधिकार and read. Becoz Nischay will not say one thing as other. (Be it जीव as पुद्गल or पुद्गल as जीव).

I strongly believe our आचार्य has the capacity to express his अभिप्राय clearly in his words. His words are congruent with his अभिप्राय, lets be open to accept his words. If we can put his अभिप्राय in word clearly, why cant and wont he? Even todays researcher choose their words clearly, you think आचार्य wont? Discussion can’t happen, atleast i cant, if someone put incongruency in his words and अभिप्राय.

I know its a very well know phenomena to see it as जीव रागादि. But just for once, break through that and see it as pudgal. Atleast see if any गाथा-टीका-कलश contradicts eachother if we assume it as पुद्गल रागादि? Surprising no one even wants to try and disprove it. Why?

Since समयसार गाथा-कलश-टीका’s Hindi/Gujarati translation is quite apt its fine if you do not know sanskrit.

If you try the given suggestion, than discussion can go further.

Or else like everyone else, one may continue to believe it as जीव रागादि is called as पुद्गल and ignore the fact that even Panditji said that “निमित कथन is व्यवहार नय” while मूल गाथा is in निश्चय नय।

My question about ज्ञानावरणीय कर्म was just to bring parallels that रागादि too may not appear as पर्याय of any specific known गुण of पुद्गल but it doesnt mean it cant be पुद्गल. (Its केवलीगम्य like ज्ञानावरणीय)

This point was given as an argument against रागादि being पुद्गल in the video you shared, which doesnt hold valid.

Thanking you!

Jai Jinendra,

Pannaji, Below are my comments.

"Now since you have agreed that समयसार has used निश्चय नय। Following that i had also requested you to try place पुद्गल रागादि for रागादि in जीव अजीव अधिकार and read. Becoz Nischay will not say one thing as other. (Be it जीव as पुद्गल or पुद्गल as जीव).

I strongly believe our आचार्य has the capacity to express his अभिप्राय clearly in his words. His words are congruent with his अभिप्राय, lets be open to accept his words. If we can put his अभिप्राय in word clearly, why cant and wont he? Even todays researcher choose their words clearly, you think आचार्य wont? Discussion can’t happen, atleast i cant, if someone put incongruency in his words and अभिप्राय.

I know its a very well know phenomena to see it as जीव रागादि. But just for once, break through that and see it as pudgal. Atleast see if any गाथा-टीका-कलश contradicts eachother if we assume it as पुद्गल रागादि? Surprising no one even wants to try and disprove it. Why?"

I too believe that all the Acharya Shri Kundkund has chosen the most apt words to write the Samayasar and other shastras. Whatever tattvas he wanted to convey was done well, no doubts. As he is not available directly, we have to read and interpret the slokas and understand based on our limited knowledge.

As we know each of Asrava, Bandha, Samvara and Nirjara tattvas have two types - Bhava & Dravya. Here if you see Dravyaasrava, it refers to the pudgal karmas.
Bhavaasrava refers to the Raag/Dwesh of Jeev which leads to Dravyaasrava.
So, it can be said that due to rise of Charitra Mohaniya karma, Raag/Dwesh bhav happened in Jeev. This is said from Nischay naya, since Vibhav parinam of Jeev is not seen in the absense of karmas.

Thats how I understand this. Will further read and share any गाथा in Samayasar if I get.

"My question about ज्ञानावरणीय कर्म was just to bring parallels that रागादि too may not appear as पर्याय of any specific known गुण of पुद्गल but it doesnt mean it cant be पुद्गल. (Its केवलीगम्य like ज्ञानावरणीय)

This point was given as an argument against रागादि being पुद्गल in the video you shared, which doesnt hold valid."
The video I shared was from a specific chapter in Moksha marg prakashak referring to the misconceptions of Nischayaabasi Jeevas. What I understood from it is that, Bhav रागादि is definitely the vibhav parinam of Jeev and we should believe it so. Then only we will make efforts to become Veetaragi.
If we totally believe that the vibhav paryay of Jeev is only based on pudgal and Jeev is not the responsible party, then what is left to be done in terms of Moksha purusharth other than keep on thinking that “I am shuddha, buddha”, etc.
In the video, Panditji Sanjeev is saying the same thing that we should understand the multiple viewpoints so that Samyag darshan can be attained and Purusharth can be done.

The explanations here are based on my understanding.
Apologies if anything is said wrongly against Jinaagam.

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Sampathji,

I believe you have read my earlier post. Yet if any confusion, i wish to clearify that i am not in denial of जीव रागादि। Infact i have mentioned earlier and stating again that समयसार has explained 2 types of रागादि - जीवगत and पुद्गलगत। Of which, अजीव अधिकार talks about पुद्गल रागादि and not जीवरागादि। आस्रव अधिकार explains जीव रागादि।

About video, I was just cross checking validity/invalidity of the argument given in it that रागादि cant be पुद्गल coz its not पर्याय of any known गुण of pudgal. Your reply about ज्ञानावरणीय helped in invaliding it.

You may re-read my previous posts to understand my point. I shall now comment only if someone brings a point for or against it being पुद्गल रागादि।

Glad to know your respect for Acharya’s words, and happy to converse with you.

Jai Jinendra🙏

गोम्मटसार कर्मकाण्ड विवेचिका; गाथा- 6, page- 24, प्रश्न- 17
(ब्र. कल्पना दीदी जी, सागर)

प्रश्न १७ : रागादि विकारी भावों के संबंध में जिनागम में कितनी विवक्षाएँ उपलब्ध हैं? प्रमाण देते हुए उनके कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : रागादि विकारी भावों के संबंध में जिनागम में मुख्यतया चार विवक्षाएँ उपलब्ध होती हैं—१. रागादि भाव, जीव के हैं; २. रागादि भाव, पुद्गल के हैं ३. रागादि भाव, जीव- पुद्गल- दोनों के हैं; ४. रागादि भाव, जीव-पुद्गल दोनों के नहीं हैं।
चार-अनुयोगों मय जिनागम में ये चारों विवक्षाएं यत्र-तत्र उपलब्ध हैं। आचार्य कुन्दकुन्द कृत समय पाहुड/समयसार तथा इसकी टीकाओं में भी प्रकरणानुसार ये चारों विवक्षाएँ उपलब्ध होती हैं। टीकाओं, कलशों-सहित गाथा १०२, १२५, १४०, ३७१ आदि में रागादि भाव, जीव के सिद्ध किए गए हैं। गाथा ३९ से ६८, १०९ से ११५ आदि में, इनकी टीकाओं में तथा गाथा १४, ७३, ९२, ९३ आदि की टीकाओं में इन्हें पुद्गल का सिद्ध किया गया है। ८७, ८८, १६४, १६५ इत्यादि गाथाओं-टीकाओं द्वारा इन्हें जीव और पुद्गल-दोनों का सिद्ध किया गया है। अज्ञान के कारण मात्र क्षणवर्ती पर्याय में उत्पन्न होने के कारण वास्तव में ये नित्य सत्ता-सम्पन्न जीव और पुद्गल दोनों के ही नहीं हैं—इसे ३६६ से ३७१ पर्यंत गाथाओं की टीका आदि में स्पष्ट किया गया है।
जैसे—लोक में एक ही पुत्र का परिचय चार प्रकार से दिया जा सकता है; उसीप्रकार रागादि भावों का समझना चाहिए। पुत्र अपने ननिहाल में माता का, पिता के यहाँ पिता का, दोनों के संयोग से उत्पन्न हुआ होने के कारण दोनों का कहलाता है। इतना होने पर भी यदि वह दोनों की अवज्ञा करने लगे, कृतघ्नी हो जाए तो दोनों ही कहने लगते हैं कि यह मेरा नहीं है; इसीप्रकार रागादि भाव जीव में उत्पन्न होने के कारण जीव के; पुद्गल के साथ घनिष्ठतम निमित्त नैमित्तिक संबंध, अन्वय-व्यतिरेक संबंध तथा स्वभावगत समानता के कारण पुद्गल के (एतदर्थ इसी गोम्मटसार कर्मकाण्ड की ११वीं गाथा का स्पष्टीकरण पृ.४० पर देखिए) तथा दोनों के निमित्त-नैमित्तिक संबंध से उत्पन्न होने के कारण जीव-पुद्गल—दोनों के ही कहलाते हैं। इतना होने पर भी जीव को वे सुखद नहीं होने के कारण तथा पुद्गल को उनका फल नहीं मिलने के कारण और दोनों के ही स्वाभाविक भाव नहीं होने के कारण, वे दोनों के ही नहीं हैं—यह कहा जाता है। आचार्यों ने इन चारों विवक्षाओं का औचित्य भी सहेतुक स्पष्ट किया है। जो इसप्रकार है -
प्रथम विवक्षा का औचित्य सिद्ध करते हुए वे लिखते हैं कि यदि इन्हें दृढ़ता से जीव का स्वीकार नहीं किया जाए ; इन्हें मैं ही करता हूँ, इन रूप मैं स्वयं ही परिणमित हुआ हूँ, इन्हें बनाए रखने या नष्ट करने का दायित्व मेरा है, इनमें पर का कुछ भी हस्तक्षेप नहीं है—जब तक ऐसा स्वीकार नहीं करता है, तब तक इन्हें नष्ट कर पाना संभव नहीं है। इस संदर्भ में समयसार कलश २२१ में आचार्य अमृतचंद्रदेव तो यहाँ तक लिखते हैं कि -
“राग-जन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्य-मेव कलयन्ति ये तु ते।
उत्तरन्ति नहि मोह-वाहिनीं, शुद्ध- बोध - विधुरान्ध- बुद्धय: ॥
राग की उत्पत्ति में जो पर-द्रव्य की ही निमित्तता को स्वीकार करते हैं, शुद्ध- बोध से रहित अंध- बुद्धिवाले वे, मोह- नदी को पार नहीं कर सकते हैं।"

वस्तु-स्वरूप की अपेक्षा विचार करने पर भी रागादि भाव, जीव के चारित्र आदि गुणों के विकृत परिणमन हैं। निष्कर्ष यह है कि अपनी विकृति स्वीकार कर उसे नष्ट करने की दिशा में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देने के लिए रागादि भावों को जीव का कहा गया है।
द्वितीय विवक्षा का कारण यह है कि रागादि भाव, जीव के स्वाभाविक भाव नहीं हैं; पौद्गलिक कर्म के उदय में होने वाले औदयिक भाव हैं। इनका निमित्त कारण, पुद्गल है। उसके संसर्ग से उत्पन्न होने के कारण ये उसके ही हैं। इन रागादि के नष्ट होते ही तत्संबंधी पौद्गलिक कर्म नियम से नष्ट हो जाते हैं; परन्तु इनके नाश का जीव की सत्ता पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। यह इनसे पूर्णतया अप्रभावित ही रहती है। इन्हें अपना मानना ही संसार का कारण है।
वस्तु-स्वरूप की अपेक्षा विचार करने पर भी रागादि भावकर्म, वास्तव में पौद्गलिक कर्ममय हैं। उनकी फलदान क्षमता ही भावकर्म है। निष्कर्ष यह है कि जो जिस निमित्त से हुआ है, उसे उसका ही मानकर, उनसे सतत भेद-विज्ञान करते हुए स्वरूप-स्थिर रहने की प्रेरणा देने के लिए रागादि भावों को पुद्गल का कहा गया है।
तृतीय विवक्षा का कारण यह है कि ये दोनों के परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध से उत्पन्न होते हैं। यदि जीव स्वरूप -स्थिर हो, परोन्मुखी आवृत्ति वाला नहीं हो, तो ये उत्पन्न नहीं होते हैं; इसी प्रकार तत्संबंधी पूर्व बद्ध कर्म के उदय/उदीरणा के विना भी ये उत्पन्न नहीं होते हैं; इनके निमित्त-विना कर्म-बंध भी नहीं होता है। जीव की परोन्मुखी वृत्ति और कर्मोदय—इनका निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने पर ही ये उत्पन्न होते हैं। जीव की स्वरूप - स्थिरता-सम्पन्न दशा होने पर, कर्मोदय नहीं होने से ये उत्पन्न नहीं होने के कारण ; द्रव्य कर्म और भाव कर्म का निमित्त नैमित्तिक संबंध होने से इन्हें दोनों को कहा गया है। वस्तु-स्वरूप की अपेक्षा विचार करने पर भी प्रत्येक कार्य स्वभाव, पुरुषार्थ, काललब्धि, भवितव्य, निमित्त रूप अंतरंग बहिरंग-दोनों कारणों की संनिधि में होने के कारण वह दोनों का कहा जाता है; अतः रागादि भावों को भी जीव-पुद्गल-दोनों का कहा गया है। निष्कर्ष यह है कि जीव इन्हें अपने स्वभावमय नहीं मान ले इसलिए पुद्गल का तथा पुद्गल का मानकर उन्हें नष्ट करने के लिए पुद्गल की ओर ही नहीं देखता रहे इसलिए जीव का कहकर आचार्य देव; स्वोन्मुखी पुरुषार्थ जागृत करने की प्रेरणा देने के लिए रागादि भावों को दोनों को कहते हैं।
चतुर्थ विवक्षा का कारण यह है कि रागादि का स्वभाव दोनों से ही नहीं मिलता है। यदि ये जीव के हों तो जीव के समान ज्ञानानंदमय शाश्वत, स्व-सापेक्ष होना चाहिए तथा पुद्गल के हों तो चिद् विकार रूप रागादि, पुद्गल की पर्याय तथा उसके ही भोग्य होना चाहिए। ये दोनों ही तथ्य रागादि में घटित नहीं होते हैं; अत: ये दोनों को ही नहीं हैं। ज्ञानमय क्षणिक, परोन्मुखी वृत्ति से क्षणिक कर्मोदय का निमित्त पाकर तत्समय की अपनी योग्यता से पर्याय में प्रगट हो जाते हैं। जीव तथा पुद्गल दोनों ही अनादि-अनंत द्रव्य, उनसे पूर्णतया अप्रभावित ही रहते हैं; दोनों ही नहीं हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत्ता-सम्पन्न वस्तु-स्वरूप से विचार करने पर उत्पाद-व्यय भी अपने-अपने समय के अहेतुक सत् होने से वे अन्य किसी के नहीं हैं, स्वयं के ही हैं; अत: रागादि भाव भी स्वयं, स्वयं के ही हैं; जीव और पुद्गल दोनों के ही नहीं हैं। निष्कर्ष यह है कि सम्पूर्ण पर और पर्याय मात्र से दृष्टि हटाकर अपनी ज्ञानानन्दमय, भगवती शाश्वत सत्ता में संतुष्ट रहने की प्रेरणा देने के लिए आचार्य देव यह कहते हैं कि रागादि भाव, जीव और पुद्गल दोनों के ही नहीं हैं।
इसप्रकार रागादि भावों को नष्ट करने का/वीतरागता प्रगट करने का उपाय बताने के लिए आचार्यों ने प्रसंगानुसार रागादि के संबंध में मुख्य रूप से चार प्रकार के कथन किए हैं।

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प्रश्न 18 भी मूल से ही पठनीय है, उसका एक अंश यहाँ प्रस्तुत करते हैं-
एव-मयं कर्म-कृतै- र्भावै - रसमाहितोऽपि युक्त इव।
प्रतिभाति बालिशानां, प्रतिभा: स एव खलु भवबीजम्।।

-पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, १४।।
इन सभी कर्म-कृत भावों से असमाहित/पृथक् होने पर भी अज्ञानी को समाहित के समान/अपने से अभिन्न के समान प्रतिभासित होते हैं/लगते हैं; यह प्रतिभास/मान्यता ही संसार का बीज है”। यह समझ में आ जाने पर जब हम उनसे भेद-विज्ञान कर अपने में अपनत्व स्थापित करते हैं; तब संसार का बीज नष्ट होकर, हमारा जीवन सुख-शांतिमय, सम्यक् रत्नत्रय- संपन्न हो जाता है।
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Jai Jinendra,

Pannaji,
I understood your point and agree on it.
Thanks for the opportunity of Tattva charcha.

Thanks to the website admins for creating this forum for Shastra charcha.

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