जीव की अनादिगत भूल को बताने के लिए -
रागादि, निश्चय से, जीव के ही हैं।
रागादि, व्यवहार से, पुद्गल के ही हैं।
(पुद्गल ने ज़बरदस्ती विकार नहीं कराया है, वह जीव का ही स्वदोष है।)
और जीव के अनादिगत शुद्ध स्वभाव को बताने के लिए - (गाथा 2, 3, 4, 6, 7, 9-10, 11, 12, 13, 14-15, 38… आदि)
रागादि, निश्चय से, जीव के नहीं ही हैं। निश्चय से ज्ञानादि ही जीव के हैं।
रागादि, व्यवहार (भेदोपचार) से, जीव के हैं।
(जीव के शुद्ध स्वभाव में विकार का कोई स्थान ही नहीं है, विकार की उत्पत्ति पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने से होती है।)
Its written that पुद्गलपिण्ड में रहने वाली फल देनेकी शक्ति भावकर्म है। It says “भावकर्म है” which proves that वास्तव में पुद्गल रागादि (भावकर्म) है। “कहा है” कहकर विवक्षा नहीं दी।
Further it states कार्य कारण के उपचार से (please pay attention it says clearly कार्य कारण का उपचार है- निश्चय वास्तविक कार्य कारण संबंध नहिं) उस शक्ति से उत्पन्न हुए अज्ञानादि “भी” भाव कर्म है।
Again it says “भी” “भावकर्म है”। भी Proves twoness and “है” proves वास्तविकता of जीव रागादि।
Gentle reminder:
I havent rejected that व्यवहार से जीव के रागादि को पुद्गल कह सकते है। But my point is शास्त्र में पुद्गल रागादि की वात है तो अजीव अधिकार उसकी बात क्यों नहीं करेगा? पुद्गल रागादि अजीव ही तो है। When समयसार गाथा is talking about निश्चय से पुद्गल, it has to be talking about पुद्गल रागादि।
Hope its clear that there are two types of रागादि and not just two विवक्षा about जीव रागादि।
समयसार गाथा support for the same was give previously.
See the flow of गोम्मटसार गाथा, above below also is talking about पुद्गलकर्म only.
I feel in fix, when individual’s view point is brought into the discussion. I had said earlier too that appreciating someone in public forum is fine but how to show flaw in the given viewpoints in public forum. If one shares it, it puts the other into big fix. Lets use मूलशास्त्र as support.
Your post is quite clear but misses one point. Can you add, “निश्चय से पुद्गलमय” is referring to which रागादि? जीव रागादि or पुद्गल रागादि?
You did mention about
जीव की अनादिगत भूल को बताने के लिए -
जीव रागादि, निश्चय से, जीव के ही हैं।
जीव रागादि, व्यवहार से, पुद्गल के ही हैं।
(पुद्गल ने ज़बरदस्ती विकार नहीं कराया है, वह जीव का ही स्वदोष है।)
{जैसे - पानी की गर्मी vs आग की गर्मी}
पुद्गलकर्म के साथ अनादिगत सम्बन्ध बताने के लिए -
पुद्गल रागादि, निश्चय से, पुद्गल के ही हैं।
पुद्गल रागादि, व्यवहार से, जीव के ही हैं।
(द्रव्य कर्म और भाव कर्म की अनादि सन्तान ऐसी ही है।)
{जैसे - आग की गर्मी vs पानी की गर्मी}
और जीव के अनादिगत शुद्ध स्वभाव को बताने के लिए - (गाथा 2, 3, 4, 6, 7, 9-10, 11, 12, 13, 14-15, 38… आदि)
रागादि, निश्चय से, जीव के नहीं ही हैं। निश्चय से ज्ञानादि ही जीव के हैं। (अर्थापत्ति से अविभाजित रागादि पुद्गल के ही हैं।)
रागादि, व्यवहार (भेदोपचार) से, जीव के ही हैं।
(जीव के शुद्ध स्वभाव में विकार का कोई स्थान ही नहीं है, विकार की उत्पत्ति पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने से होती है।)
{जैसे - पानी की शीतलता vs आग की निमित्त-नैमित्तिक गर्मी}
Thanks for reframing. It indeed brought more clarity. May i request for some more clarity?
I agree to this point but can you give reference of samaysaar gathas for your acceptance of it?
And for this
As per भावार्थ of समयसार गाथा 371 शुद्धद्रव्यदृस्टि से रागादि न पुद्गल में है न सम्यग्द्रष्टि में। and श्लोक 218 says वस्तुत्व स्थापित द्रष्टि से देखने पर वे राग-द्वेष कुछ भी नहीं हैं।
I think, may be its better to follow आचार्य and say: “शुद्ध स्वभाव से देखे तो रागादि कुछ नही” instand of applying अर्थापत्ति न्याय and say “पुद्गल के ही है।” None of them have used अर्थापत्ति न्याय may be coz शुद्ध दृस्टि होने पर अज्ञान जनित रागादि indeed doesnt exist. And nor do we have such पुद्गल उदय. कर्म का क्षय (or उपशम )हो जाता है। तो how can a none existing thing (जीव or पुद्गल रागादि) be attributed to पुद्गल?
जीव के अनादिगत शुद्ध स्वभाव एवं उसकी पर्याय में प्रकटता को बताने के लिए - (गाथा 2, 3, 4, 6, 7, 9-10, 11, 12, 13, 14-15, 38… आदि)
रागादि, निश्चय से, द्रव्यदृष्टि से जीव के नहीं ही हैं और पर्यायदृष्टि से सम्यग्दृष्टि के भी नहीं ही हैं। (अर्थापत्ति से अविभाजित रागादि द्रव्य दृष्टि से पुद्गल के ही हैं और पर्यायदृष्टि से मिथ्यादृष्टि के ही हैं।)
रागादि, व्यवहार (भेदोपचार) से, जीव के ही हैं।
(जीव के शुद्ध स्वभाव में विकार का कोई स्थान ही नहीं है, विकार की उत्पत्ति पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने से होती है।)
{जैसे - पानी की शीतलता vs आग की निमित्त-नैमित्तिक गर्मी}
चूँकि रागादि का सारा दारोमदार मिथ्यादृष्टि के ही पाया जाता है -
निश्चय से वे न तो शुद्ध जीव के हैं, न ही उसकी शुद्ध पर्याय के हैं और नाहि पुद्गल के हैं।
व्यवहार से जीव-पुद्गल के हैं।
(जैसे - बालक निश्चय से खुद का ही है, व्यवहार से माँ-बाप का है।)
जीव की अनादिगत भूल को बताने के लिए - (स्वच्छन्दता का निवारण)
जीव रागादि, निश्चय से, जीव के ही हैं; पुद्गल के नहीं।
जीव रागादि, व्यवहार से, पुद्गल के ही हैं; जीव के नहीं।
(पुद्गल ने ज़बरदस्ती विकार नहीं कराया है, वह जीव का ही स्वदोष है।)
{जैसे - पानी की गर्मी vs आग की गर्मी}
पुद्गलकर्म के साथ अनादिगत सम्बन्ध बताने के लिए - (जगत का संचालन)
पुद्गल रागादि, निश्चय से, पुद्गल के ही हैं; जीव के नहीं।
पुद्गल रागादि, व्यवहार से, जीव के ही हैं; पुद्गल के नहीं।
(द्रव्य कर्म और भाव कर्म की अनादि सन्तान ऐसी ही है।)
{जैसे - आग की गर्मी vs पानी की गर्मी}
गोम्मटसार का निष्कर्ष ये नहीं है। व्यक्ति विशेष का है। I am sorry for commenting on individual’s view but you again put me in fix. Sorry. In my ealier post i have shown मूल गाथा of गोम्मटसार। please read with open mind. Its in clear wordings.
Explanation in all post is again the same that जीव के रागादि को निमित अपेक्षा पुद्गल का “कहा है”। और अब अर्थापत्ति न्याय आया, जो भावार्थ/ टीका दिखाने के बाद भी उसका उलंघन किया जा रहा है। how to accept it? Majority wins? Or reality?
समयसार में यह विवक्षा ऐसे है ही नहीं। I gave मूल गाथा too to say its not जीव के रागादि, its actually पुद्गल रागादि। निश्चय से पुद्गल के रागादि को ही पुद्गल कहा जा सकता है। जीव के नहीं। शुद्ध द्रव्यदृस्टि में जीव या पुद्गल के रागादि है ही नहीं वह क्यों उसे जीव या पुद्गल का कहेगी? और हेय बुद्धि से गौण करना ज्ञान को आता है। किसी भी प्रयोजन के लिए निश्चय से अपना दोष अन्य में डालने की उसे जरूर नहीं। व्यवहार का उपचार ठीक है। Its that simple. Hope someday you will get it.
Anyways all of us have the choice of thinking the way we want. I just thought all of us would be accepting आचार्य’s words over individuals perspective on it. I too had video’s and write up of individual’s to support my point. But i prefer direct आचार्य’s word in discussing such core topics.
I have put all points clearly, and i have sensed that my points are clearly understood by all. No questions ever came disproving my point. Only post i recieved was forcing to see it as jiv ragadi, from individuals explaination and not shastra adhar. I shall not reply to any more post on it.
Thanking you.
Nice conversing with all.
Jai jinendra.
No one is exceeding or misjudging आचार्य’s words… We’re only extrapolating.
Calling निश्चयनय से रागादि पुद्गल के हैं - was one of our observations from Samaysaar and you have constantly being pressurizing that that it is ‘the’ thought that we had.
Hope the same.
All of us are willing to accept that निश्चय से रागादि जीव के नहीं हैं। So, let’s stick to that.
I need a clarification regarding this. Please help.
Does this refers to ‘रागादि’ or is it something else? (because फल देने की शक्ति को भाव कर्म कहा है and रागादि is not mentioned anywhere.)
Also, as you have pointed this part - ‘कार्य में कारण के उपचार से अज्ञानादि “भी” भाव कर्म है।’ I think, अज्ञानादि should incorporates रागादि here… in the उपचार part.
So, I may be wrong here but I understand it (पुद्गलपिण्ड में रहने वाली फल देनेकी शक्ति भावकर्म है)
as अनुभाग बंध. Do correct me if I am wrong with this part.
I would like to quote one thing regarding नय that they refers to speakers intentions and what objective they want to achieve with those. (वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं) and so it might be the case that we are looking different things or things differently. And even with the contrasting viewpoints, we all can be correct if our objective remains ‘वीतरागता’.
स्याद्वाद से मुझे इस समस्या का समाधान है। मुझे रागादि को निश्चय से जीव का और निश्चय से ही पुद्गल का अलग अलग अपेक्षा से स्वीकार है। इसी कारण इस विषय में आ. कल्पना दीदी जी के प्रस्तुत उत्तर से मुझे पूर्ण संतुष्टि है। (ध्यान देने योग्य एक और बात - दीदी ने वह उत्तर दिया तो गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका मे है, परंतु वह समयसार तथा उसकी टीकाओं के आधार से ही दिया है।)
Its a pleasant feeling when you have been heard and get a concrete counter question. Thank you Sulabhji for it. Getting a साधर्मी like this is a dream, and one of the purpose for joining the forum.
1 अमृतचंद्र आचार्य टीका of गाथा 87, where its said मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीव के अपने द्रव्यस्वभाव… अजीव ही हैं। (मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव are considered as उदय, supported by भावार्थ as underlined in the attached picture.)
2 Fortunately for us all that even जयसेन आचार्य has made it cristal clear. हम पर अगणित उपकार है इन आचार्यो का🙏
In तात्पर्यवृति टीका for गाथा 190-192 (number as per अमृतचंद्र आचार्य टीका), उदय को प्राप्त द्रव्यप्रत्ययगत रागादि अध्यवसान भावप्रत्यय… भावकर्म दो प्रकार के हैं। He has quoted गोम्मटसार गाथा 6 here.
Gentlely wants to remind that its not two अपेक्षा/विवक्षा of जीव के रागादि but two types of भावकर्म.
Also जयसेनआचार्य की आज्ञा है कि इसप्रकार भावकर्म का स्वरूप जीवगत और पुद्गल द्रव्यगत दो प्रकार है। ऐसा भावकर्म के व्याख्यान के समय सभी जगह जानना चाहिए।
Regarding नय what you have written… there is slight flaw in your understanding… but i am refraining from mentioning it at the moment. If you wish i shall state that too. My core focus was to show “मोहकर्म के उदय-रागादि-भावकर्म को निश्चय से पुद्गल है” ऐसा आचार्य ने कहा है। जीव के रागादि को निश्चय से पुद्गल नहीं कहा।
आचार्य के कथन से सभी जीवों को पूर्ण संतुष्टि प्राप्त हो - ऐसी भावना ।
Thank you @panna ji for your answer… Many things got clear… I’ll have to study a little more and only then will be able to put up my remaining questions…
प्रथम तो किसी भी व्यक्ति-वक्ता / speaker का अभिप्राय/intention नय नहीं होता। स्वानुभवी ज्ञानी के कथन ही नय है।
जैन शासन की यह एक अद्भुत विशेषता है कि नयचक्र शास्त्रो में इन अभिप्रायों के आधार से नय के clasification (वर्गीकरण) इतनी चतुराई से किये है कि उसका खंडन नहीं हो सकता।
इनकी रूपरेखा कुछ इस तरह है कि
अभिप्राय अनेक होते है जैसे कि
अभिप्राय A
अभिप्राय B
अभिप्राय C
अभिप्राय D
अब अभिप्राय A की मुख्यता से किये कथन को नय 1 कहते है
अभिप्राय B की मुख्यता से किये कथन को नय 2 कहते है
अभिप्राय C की मुख्यता से किये कथन को नय 3 कहते है etc
अब कोई अभिप्राय A की मुख्यता से कथन करे और उसे नय 2 कहे तो ये contamination (भेलसेल/मिलावट) हुआ। उस अभिप्राय का स्थान तो जिनागम में है पर उस नय (2)से नहीं, अन्य नय (1) से।
आपका यह कथन कि- “मुझे रागादि (assuming जीव रागादि) को निश्चय से जीव का और निश्चय से ही पुद्गल का अलग अलग अपेक्षा से स्वीकार है।” यह contamination (भेलसेल/मिलावट) का ही उदाहरण है।
अपेक्षा/मुख्यता (specially परस्पर विरुद्ध ) बदलने पर नय भी बदलते है। एक ही नय में दो मुख्यता/अपेक्षा (specially परस्पर विरुद्ध) नहीं होती। जैसे उपादान की मुख्यता से कहे कथन को निश्चयनय कहते है और निमित मुख्यता से कहे कथन को व्यवहारनय। उपादान-निमित परस्पर विरुद्ध अपेक्षाए है।
यदि कोई अभिप्राय A (उपादान मुख्यता से किये कथन को) नय 2 (व्यवहार नय-असद्भूत) कहे तो contamination हुआ।
उसी तरह कोई अभिप्राय B (निमित मुख्यता से किये कथन को) नय 1 (निश्चयनय) कहे तो भी contamination हुआ।
रागादि (जीव रागादि) को निश्चय से जीव का और (पुद्गल रागादि) को निश्चय से पुद्गल - यह कथन में contamination नहीं है।
This post is brief and havent included subsets of नय।
आप की समझ शक्ति हमें भली भासित होती है इसलिए इतना लिखकर यह पोस्ट का अंत किया है। अधिक आप कुछ पूछे तो बताएंगे।