लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

अंधविश्वास का अन्त

सुमित कॉलेज में पढ़ता था। छुट्टियों में घर आया। उसके छोटे भाई को कई दिन से बुखार चढ़ा था। माँ से वैद्य की दवाई दिलाने के लिए कहा तो वे बोलीं - “दवाई से क्या होगा ? देवी के मंदिर में नारियल, मिश्री और ग्यारह रुपये पुजारीजी को दे आओ। यहाँ तो लोग यही करते हैं।”
उसने कुछ सोचा फिर पोल खोलने के अभिप्राय से बीस रुपये लेकर मित्र के साथ चला। एक नारियल और मिश्री उसने बाजार से खरीदे। मंदिर में पहुँच कर उसने पुजारी को नारियल और मिश्री देते हुए कहा -“उसके छोटे भाई को बुखार चढ़ा है।”
उसने रुपये और माँगे।
सुमित ने कहा - “रुपये नहीं है।”
पुजारी - " बिना रुपये दिये बुखार नहीं उतरेगा।"
सुमित - “तब हमारा नारियल, मिश्री हमें दे दो।”
कह कर उसने नारियल मिश्री उठा ली। पुजारी ने सुमित और उसके मित्र को भला-बुरा कहा, परन्तु दोनों मित्र चले आये। नारियल और मिश्री तो उन्होंने गरीबों के मोहल्ले में बच्चों को बाँट दिए और ५ रुपये एक गरीब विधवा को दे दिए। बुखार की दवा वैद्यजी के यहाँ से छोटे भाई की हालत बताकर ले ली।
घर जाकर माँ से वैसे ही कह दिया कि प्रसाद दे आये हैं और पुजारी ने दवा भी देने के लिए कहा है और छोटे भाई को दवा दी।
तीन दिन में बुखार ठीक हो गया। माँ ने कहा -" सुमित बेटा ! प्रसाद का चमत्कार देखा ?"
सुमित ने कहा - " मैंने प्रसाद दिया ही नहीं था। बुखार तो दवा से ठीक हुआ है। "
यह सुनकर माँ को भी सत्य समझ में आ गया। तब दोनों मित्रों ने गाँव के और लोगों को यह घटना सुनाई और लोगों का अंधविश्वास दूर हुआ।
भगवन्तों की निष्काम भक्ति भी अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए की जाती है। भक्ति में स्वरुप का चिन्तन, हमारे भेदविज्ञान और तत्त्वविचार में निमित्त होता है।
लौकिक कामनाएँ तो हमें मात्र भटकाती ही है। वे तो पुण्योदय में सहज ही पूरी हो जायें तो अलग बात है, परन्तु भक्ति, जप आदि अनुष्ठान करते हुए वे पूरी हो ही जायेंगी, ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए और न ही ऐसी मान्यता बनानी चाहिए

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