लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

कषाय की विचित्रता

नगर के बाहर एक छोटा-सा आश्रम था। वहां एक त्यागी जी रहते थे। वहां से निकलने वाले यात्री भी कभी घण्टे-दो-घण्टे तो कभी रात्रि में भी विश्राम कर लेते थे।
एक दिन सर्दी की सांय बरसात भी होने लगी। समीप के नगर की स्त्री पास के गाँव में अपने मायके जा रही थी। स्त्री ने आकर त्यागीजी से रात्रि में रुकने की अनुमति माँगी। त्यागीजी ने सहज भाव से कह दिया - पास के कमरे में ठहर जाओ।
रात्रि के समय उस स्त्री को नींद न आई। उसे कामवासना सताने लगी। वह उठ कर त्यागीजी के समीप आकर, हाव -भाव प्रदर्शित करते हुए , कामना पूरी करने के लिए गिड़गिड़ाने लगी, परन्तु अपने शील में दृढ़ त्यागीजी ने उसे समझा - बुझा कर अपने समीप से हटा दिया।
वह स्त्री लज्जित भी हुई और भयभीत भी। उसने विचारा यदि त्यागीजी ने किसी से कह दिया तो नगर में मेरी बदनामी होगी; अतः इन्हें मार देना चाहिए।
प्रातः वह उनसे क्षमा माँगते हुए बोली- महाराज! मैं घर पहुँच कर आपके लिए मिष्ठान्न भेजूँगी, आप अवश्य ग्रहण कर लेना।
घर जाकर मिष्ठान्न में विष मिलाकर नौकर के हाथ उसने भेज दिया। त्यागीजी ने भी सरल भाव से रख दिया। उसी समय उस स्त्री का परदेश से लौट कर आया हुआ पति बोला -“बाबाजी !भूख लगी है, कुछ खाने को तो कृपा करें।” तब उन्होंने उसे वही मिष्ठान्न दे दिया, जिसे खाकर वह अपने घर चला गया।
वहाँ जहर चढ़ जाने से मर गया। पता लगने पर वह स्त्री पछताती हुई, अत्यन्त दुःखी होती हुई, उन्हीं त्यागी के समीप पहुँची और क्षमायाचना की।

उन्होंने उसे वैराग्यपूर्ण धर्म का उपदेश दिया, जिससे वह स्त्री विरक्त हो गयी।

  1. शील में दृढ़ रहें।
  2. कपट कदापि न करें।
  3. दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर, निर्दोषता पूर्वक आगे बढ़ें।

"दुर्व्यसनों के त्याग बिना आर्थिक समृद्धि भी क्लेश और पतन का कारण बन जाती है।"

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