लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

ईमानदारी

एक था चैकपोस्ट का अधिकारी धीरज। अत्यन्त ईमानदार, संतोषी और कर्त्तव्यनिष्ठ। भ्रष्टाचार के युग में व्यक्ति का निर्वाह कठिनता से होता है। अनेक छोटे-बड़े लोग, समय के अनुसार समझौते की नीति से चलने के लिये दबाव बनाते , परन्तु वह अपने सिद्धान्त पर अड़िग रहा। शीघ्र-शीघ्र स्थानांतरण की परेशानियाँ तो उसकी आदत में ही आ गयी थीं।
एक बार तस्करी का माल उसने पकड़ लिया। मालिक बड़ा व्यापारी एवं राजनेताओं से सम्बन्धित था। उसने पहले तो भारी प्रलोभन दिया, ५० लाख तक देने के लिए कह दिया ,परन्तु वह विचलित न हुआ। ऊपर से नेताओं एवं मंत्रियों के फोनों पर भी उसने ध्यान नहीं दिया। नियमानुसार चालान कर दिया और माल जब्त कर लिया।
कोर्ट में पेशी होने पर, रिश्वत के बल से केस शीघ्र ही ख़ारिज हो गया। मंत्रियों की नाराजी के कारण उसे नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा, परन्तु वह निराश न हुआ।
एक बड़े उद्योगपति को जब यह मालूम पड़ा, तब उसने शीघ्र ही उसे बुलाया और अपनी कम्पनी के सर्वोच्च पद पर सम्मान-सहित नियुक्त किया। जहाँ उसे सारी सुविधायें भी थी और वेतन भी पहले से अधिक।
अब वह पहले से सतर्क रहता। मालिक का अहित न होने देता और अधीनस्थ लोगों के हित का सदैव ध्यान रखता। माह में एक बार वह सभी की मीटिंग करता। जिसमें सभी कर्त्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, संतोष एवं परोपकार आदि की शिक्षा देता।
कम्पनी दिन-प्रतिदिन उन्नति कर रही थी। उसने मालिक को धन की असारता का पाठ पढ़ाते हुए शिक्षा, चिकित्सा व असहायों के सहयोग आदि कार्यों हेतु एक ट्रस्ट बनाने की सलाह दी। मालिक ने सहर्ष स्वीकार करते हुए, उसे ही ट्रस्ट का सचिव बनाया और कम्पनी की आय का एक निश्चित अंश लोकोपकारी कार्यों में खर्च होने लगा।

ठीक ही कहा है -"धन तो पुण्य के उदय से बहुत से लोगों को मिल जाता है, परन्तु जो उसका सदुपयोग कर लें वे प्रसन्न भी रहते हैं और प्रशंसनीय भी होते हैं। "

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