लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

अंधश्रद्धा

सातवीं कक्षा का एक छात्र सुलभ अत्यन्त उदास था। पढ़ने में ठीक था, परन्तु बीमार हो जाने से अच्छी तरह पढ़ाई न हो पाई। परीक्षा निकट थी। उसका एक सहपाठी बोला -“चिन्ता क्यों करते हो। अपने स्कूल के ही पीछे टीले पर एक देव का थान बना है। वहाँ सोमवार को प्रसाद और रुपये चढ़ाने और प्रार्थना करने से परीक्षा में उत्तीर्ण हो ही जाते है।”
सुलभ उस लड़के की बातों में आ गया और स्वयं तो ऐसा करने ही लगा और भी साथियों से ऐसा ही कह दिया। अनेक लड़के ऐसा ही करने लगे और अध्ययन के प्रति आलसी हो गये।
जब परीक्षा में फेल हुए , तब पोल खुली। उनके अध्यापक ने समझाया कि “अंधविश्वासों में उलझकर हमें पुरुषार्थ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।”
आगामी वर्ष में वे लड़के रुचिपूर्वक पढ़ने लगे और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए।

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