लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

कृतज्ञता

दो भाई जिनेश और दिनेश अपना-अपना व्यापार करते हुए, एक ही घर में ऊपर रहते थे। भोजन अलग-अलग बनता। माता-पिता कभी ऊपर कभी नीचे सहजता से भोजन कर लेते थे। पिता का देहावसान हो गया। माँ अकेली रह गयी। छोटे भाई के बच्चे छोटे थे अतः माँ प्रायः छोटे भाई के पास नीचे ही रहती थी। दोनों भाइयों ने कहा कि माँ को कुछ राशि देना चाहिए। व्यवहार में लेन-देन के लिए, दो-दो हजार मासिक दोनों भाई देते रहेंगे और वे ऐसा ही करने लगे।
एक रात्रि में लेटे-लेटे बड़े भाई जिनेश को विचार आया कि जिस माँ ने हमें बिना हिसाब रखा, हमारा पालन-पोषण किया, मनमाना खर्च दिया,उस माँ को हम उसकी वृद्धावस्था में मात्र दो-दो हजार निश्चित वेतन की तरह दें, यह ठीक नहीं, कृतज्ञता नहीं है।
उसी समय उठा और अलमारी से नोटों की गड्डियाँ थैले में बिना गिने लेकर माँ के पास नीचे कमरे में पहुँचा। चरणों में सिर और थैला रखकर बोला- "माँ ! भूल क्षमा करें। अलमारी की चाबी ऊपर ही रखी रहती है। मुझसे पूछने की जरुरत नहीं है, आप स्वयं निकाल लेना।
आपके उपकारों का बदला चुकाने में तो मैं सब प्रकार असमर्थ ही हूँ। जब कमाने में सीमा नहीं, तब तुम्हें देने की सीमा क्यों रखूँ ? फिर कभी माँ की पेटी खाली नहीं रह पायी। वह देखता और बिना कहे ही और रख देता।
माँ भी सहजता और संतोष से धर्मध्यान में लगी हुई, अपनी आयु पूर्ण कर स्वर्गवासी हुई।
गुरुजनों को मात्र सामग्री एवं साधन दे देना ही पर्याप्त नहीं है; उन्हें आदर, सेवा और समय भी देना जरुरी है।
छोटे से उपकार के प्रति भी जिसमें अहोभाव नहीं आता, कृतज्ञता नहीं वर्तती, वह हृदय नहीं, पत्थर ही समझना।
सद्गृहस्थ के लिए (लौकिक दृष्टि से ) पिताजी घर का मस्तक है और माँ हृदय।

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