लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

मातृत्व

एक गाँव में एक विधवा स्त्री का इकलौता २० वर्ष का लड़का था। उसका नाम मनोज था। लगभग तीन एकड़ खेती थी। आराम से गुजार हो जाता था।
उसके समीप ही एक किसान का घर था, उसके भी २ लड़के थे। एक लड़का अशोक तो उस लड़के के साथ ही खेलता। एक दिन खेत पर दोनों लड़को में कहा-सुनी हो गयी। बात बढ़ गयी और गुस्से में अशोक ने बड़ा-सा पत्थर मनोज के सिर में फेंककर मार दिया, जिससे उसका सिर फट गया और शीघ्र ही वह मर गया।
पुलिस आयी और अशोक को पकड़कर ले गयी। दोनों घरों में शोक छा गया। एक माह बाद केस का बयान, गवाह आदि होकर फैसला होना था। उस विधवा स्त्री को दूसरे दिन अदालत में बयान देने थे। उसने शान्त होकर विचारा और सो गयी। दूसरे दिन स्नान करके भगवान के दर्शन किये और अदालत पहुँच गयी। उसकी मुद्रा अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थी।
न्यायाधीश द्वारा पूछे जाने पर बोली - "अशोक और मनोज तो अच्छे मित्र थे। अशोक मनोज को कदापि नहीं मार सकता। कोई और ही लड़का पत्थर मार कर भाग गया। अशोक तो वहां से निकल रहा था और लोगों ने अशोक को ही हत्यारा समझ लिया। "
पुलिस के वकील ने उसे उसके पिछले बयानों की याद दिलाई तो उसने कहा -“उस समय मैं पुत्र की मृत्यु के शोक में होश खो बैठी थी। पता नहीं मेरे मुख से क्या निकल गया। मुझे ध्यान नहीं हैं, परन्तु मैं जो इस समय कह रही हूँ वही सत्य है। अशोक निर्दोष है।”
अदालत ने अशोक को बरी (मुक्त) कर दिया।
वह विधवा स्त्री वहाँ से आकर घर के चबूतरे पर बैठी ही थी कि गाँव के अन्य लोग,सरपंच आदि आ गये और बोले -“तुमने ऐसा क्यों कहा ?”
स्त्री - "मैंने जब शान्त चित्त से विचार किया कि मेरा पुत्र तो लौट कर आयेगा नहीं, मेरा घर तो उजड़ ही गया। अशोक को फाँसी हो जाने से उसकी माँ भी दुखी होगी। मुझे क्या लाभ ? मैं इतने दिनों से रात्रि में अशोक की माँ का रोना सुनती रहती थी। मैंने उसे बचाने का निश्चय कर लिया। मैंने एक माँ का कर्त्तव्य मात्र किया है।
सभी धन्य-धन्य कह उठे। सरपंच सहित सभी ग्रामवासी चरण छूते हुए बोले - “आज से आप समस्त ग्राम की माँ है, हम सभी आपकी सेवा करेंगे।”
इतने में अशोक भी छूट कर दौड़ा-दौड़ा आया और चरणों में सिर रख कर बोला -“आज से तुम ही मेरी माँ हो। अशोक को तो फाँसी हो गयी। मैं तो तुम्हारा मनोज हूँ।”
अशोक की माँ भी वहीं खड़ी थी। बोली -“सत्य ही है। इसको जीवन दान देने वाली माँ तो आप ही हो।”
और अशोक वहीं रह गया। उसने जीवन भर मनोज की भाँति उसकी सेवा की।
परोपकार से स्वयं का उपकार सहज ही हो जाता है।

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