‘आचार्य वादीभसिंह’ कृत ‘क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ’ से संकलित
‘सूक्ति संग्रह’
सम्पादक एवं अनुवादक- ब्र.यशपाल जैन, जयपुर
Proofreading: @shashank जी
‘आचार्य वादीभसिंह’ कृत ‘क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ’ से संकलित
‘सूक्ति संग्रह’
सम्पादक एवं अनुवादक- ब्र.यशपाल जैन, जयपुर
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अ
सूक्ति |
अर्थ |
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१. अकुतोभीतिता भूमेर्भूपानामाज्ञयान्यथा।३/४२ ॥ | राजाओं की आज्ञा से भूमण्डल पर कहीं से भी भय नहीं रहता। |
२. अङ्गजायां हि सूत्यायामयोग्यं कालयापनम् ।।३/३८ ।। | कन्या के जवान हो जाने पर विवाह के बिना काल बिताना अनुचित है। |
३. अङ्गार सदृशी नारी नवनीत समा नराः ।।७/४१ ।। | स्त्री अंगारे के समान तथा पुरुष मक्खन के समान हैं। |
४. अजलाशयसम्भूतममृतं हि सतां वचः ।।२/५१ ।। | सज्जनों के वचन जलाशय के बिना ही उत्पन्न हुए अमृत के समान हैं। |
५. अञ्जसा कृत पुण्यानां न हि वाञ्छामि वञ्चिता ।।८/६७।। | सच्चे पुण्यवान पुरुषों की इच्छा भी विफल नहीं होती। |
६.अतर्क्यं खलु जीवानामर्थसञ्चय कारणम् ।।३/१२।। | मनुष्यों के धन संचय का कारण कल्पनातीत है। |
७. अतर्क्यसम्पदापद्भ्यां विस्मयो हि विशेषतः ।।१०/४६।। | अकस्मात् सम्पत्ति और विपत्ति के आने से विशेषरूप से आश्चर्य होता है। |
८.अत्यक्तं मरणं प्राणैः प्राणिनां हि दरिद्रता ।।३/६ । | दरिद्रता मनुष्य के लिए प्राणों के निकले बिना ही जीवित मरण है। |
९. अत्युत्कटो हि रत्नांशुस्तज्ज्ञवेकटकर्मणा ।।११/८४ ।। | चमकदार रत्न को शाण पर चढ़ाकर उसे और घिसने से वह और अधिक चमकदार हो जाता है। |
१०. अदोषोपहतोऽप्यर्थ: परोक्त्वा नैव दूष्यते ।।४/४६ ।। | निर्दोष पदार्थ किसी के कहने से ही दूषित नहीं हो जाता। |
११. अदृष्टपूर्वदृष्टौ हि प्रायेणोत्कण्ठते मनः।।७/६२।। | मनुष्य का मन पहले नहीं देखी हुई वस्तु को देखने में प्रायः उत्कण्ठित रहता है। |
१२. अन्यैरशङ्कनीया हि वृत्तिर्नीतिज्ञगोचरा: ।९/१०। | नीतिज्ञ लोगों के व्यवहार में दूसरों को शंका नहीं होती । |
१३. अनवद्या सती विद्या फलमूकापि किं भवेत् ।।९/९ ।। | निर्दोष और समीचीन विद्या कभी भी निष्फल होती है क्या ? |
१४. अनवद्या सती विद्या लोके किं न प्रकाशते ।।४/१९।। | १. लोक में उत्तम एवं निर्दोष विद्या प्रसिद्ध नहीं होती है क्या ? २. लोक में उत्तम एवं निर्दोष विद्या किसको प्रकाशित नहीं करती ? |
१५. अनवद्या हि विद्या स्याल्लोकद्वयफलावहा ।।३/४५ ।। | निर्दोष विद्या इस लोक और परलोक में उत्तम फल देनेवाली होती है। |
१६. अनपायादुपायाद्धि वाञ्छिताप्तिर्मनीषिणाम् ।।९/७।। | बुद्धिमानों को इच्छित वस्तु की प्राप्ति अमोघ उपायों से होती है। |
१७. अनुनयो हि माहात्म्यं महतामुपबृंहयेत् ।।८/५२।। | विनय भाव महापुरुषों की महानता को बढ़ाता है। |
१८. अनुरागकृदज्ञानां वशिनां हि विरक्तये ।।७/३६।। | मूर्खो को प्रिय लगनेवाली वस्तु जितेन्द्रिय पुरुषों को विराग के लिए होती है। |
१९. अनुसारप्रियो न स्यात्को वा लोके सचेतनः ।।७/७२ ।। | दुनिया में कौन प्राणी अपने अनुकूल व्यक्ति से प्रेम नहीं करता ? |
२०. अन्तस्तत्त्वस्य याथात्म्ये न हि वेषो नियामकः ।।९/२१।। | बाह्य वेश अन्तर्मन की यथार्थता का नियामक नहीं है। |
२१. अन्यरोधि न हि क्वापि वर्तते वशिनां मनः ।।९/२।। | जितेन्द्रिय पुरुषों का मन/विचार दूसरों से रुकने वाला नहीं होता। |
२२. अन्याभ्युदयखिन्नत्वं तद्धि दौर्जन्यलक्षणम् ।।३/४८ ।। | दूसरे की उन्नति में जलना ही दुर्जनता का लक्षण है। |
२३. अन्तिकं कृतपुण्यानां श्रीरन्विष्य हि गच्छति ।।३/४६ ।। | लक्ष्मी पुण्यवान पुरुषों को खोजती हुई स्वयं उनके पास चली जाती है। |
२४. अन्यैरशङ्कनीया हि वृत्तिर्नीतिज्ञगोचरा: ।।९/१० ।। | नीतिज्ञ लोगों के व्यवहार में किन्हीं को भी शंका नहीं होती। |
२५. अपथघ्नी हि वाग्गुरोः ॥२/४०।। | गुरु के वचन कुमार्ग के नाशक होते हैं। |
सूक्ति |
अर्थ |
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२६. अपदानमशक्तानामद्भुताय हि जायते ।।७/६५।। | स्वयं के लिए अशक्य कार्य दूसरों द्वारा कर दिया जाना असमर्थ लोगों को आश्चर्य के लिए होता है। |
२७. अपदोषानुषङ्गा ही करुणा कृति सम्भवा ।।७/३४। | विद्वानों की करुणा निर्दोष होती है। |
२८. अपश्चिमफलं वक्तुं निश्चितं हि हितार्थीनः ।।७/५४। | दूसरों का हित चाहनेवाले सज्जन पुरुष निश्चित रूप से सर्वोत्तम फलदायक बात (तत्वज्ञान) ही कहना चाहते है। |
२९. अपुष्कला हि विद्या स्यादवज्ञैकफला क्वचित् ।।३/४४। | अपूर्ण ज्ञान अपमान का फल देनेवाला होता है। |
३०. अप्राप्ते हि रुचि: स्त्रीणां न तु प्राप्ते कदाचन ।।७/२५।। | स्त्रियों की रुचि अप्राप्त पुरुष में होती है, सहज प्राप्त पति में नहीं। |
३१. अमित्रो हि कलत्रं च क्षत्रियाणां किमन्यत् ।।८/५९ ।। | क्षत्रियों (राजाओं) के लिए अपनी स्त्री ही शत्रु हो जाती है तो अन्य लोगों की तो बात ही क्या ? |
३२. अमूलस्य कुत: सुखम् ।।१/१७।। | मूल हेतु के बिना सुख कैसे हो सकता है? |
३३. अमूलस्य कुत: स्थितिः ।।२/३३।। | जड़रहित वृक्ष की स्थिति कैसे सम्भव है? |
३४. अम्बामदृष्टपूर्वां च द्रष्टुं को नाम नेच्छति ।।८/४९ ।। | ऐसा कौन व्यक्ति है जो पूर्व में न देखी गई माँ को देखने की इच्छा नहीं करता? |
३५. अयुक्तं खलु दुष्टं श्रुतं वा विस्मयावहम् ।।८/७।। | जब मनुष्य अनहोनी/असम्भव जैसी वस्तु को देखता है या सुनता है, तब उसे आश्चर्य होता है। |
३६. अलङ्घयं हि पितुर्वाक्यमपत्यैः पथ्यकांक्षिभिः ।।५/१०।। | अपना हित चाहनेवाले पुत्र पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। |
३७. अलं काकसहस्रेभ्य एकैव हि दृषद् भवेत् ।।३/५१ ।।। | हजारों कौओं को उड़ाने के लिए एक ही पत्थर पर्याप्त होता है। |
३८.अवश्यं हानुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।१/१०४ ।। | पूर्व में बाँधा हुआ शुभाशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ता है। |
३९. अविचारितरम्यं हि रागान्धानां विचेष्टितम् ।।१/१३ । | राग से अन्धे पुरुषों की चेष्टायें बिना विचार के ही अच्छी लगती हैं। |
४०. अविवेकिजनानां हि सतां वाक्यमसङ्गतम् ।।९/१७।। | अविवेकी लोगों के लिए सज्जनों के वचन असंगत लगते हैं। |
४१. अविशेषपरिज्ञाने न हि लोकोऽनुरज्यते ।।१०/५८ ।। | छोटे-बड़े सभी को समान मानने पर जनसमुदाय सन्तुष्ट नहीं हो सकता। |
४२. अशक्तैः कर्तुमारब्धं सुकरं किं न दुष्करम् ।।७/६३।। | असमर्थ मनुष्य को सरल काम भी कठिन लगता है। |
४३. असतां हि विनम्रत्वं धनुषामिव भीषणम् ।।१०/१४ ।। | दुर्जनों की नम्रता धनुष की तरह भयंकर होती है। |
४४. असमानकृतावज्ञा पूज्यानां हि सुदुःसहा ।।२/६३ ।। | छोटे लोगों द्वारा किया गया अपमान बड़े लोगों को असह्य होता है। |
४५. असुमतामसुभ्योऽपि गरीयो हि भृशं धनम्।।२/७२। | मनुष्यों को धन अपने प्राणों से भी प्यारा होता है। |
४६. अस्वप्नपूर्वं हि जीवानां न हि जातु शुभाशुभम् ।।१/२१।। | मनुष्यों को स्वप्न देखे बिना शुभ और अशुभ कार्य नहीं होता। |
४७. अहो पुण्यस्य वैभवम् ।।२/२२ ।। | पुण्य का वैभव आश्चर्यजनक होता है। |
‘आ’
सूक्ति |
अर्थ |
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४८. आत्मदुर्लभमन्येन सुलभं हि विलोचनम् ।१०/३।। | अपने लिए दुष्प्राप्य वस्तु दूसरे को सहजता से मिल जाए तो मनुष्य को आश्चर्य होता है। |
४९. आत्मनीने विनात्मनमञ्जसा न हि कश्चन ।।१०/३१ ।। | वास्तव में अपने को छोड़कर अन्य कोई अपना हित करनेवाला नहीं है। |
५०. आमोहो देहिनामास्थामस्थानेऽपि हि पातयेत् ।।१०/२४।। | जबतक मोह है, तबतक वह जीवों को अस्थान में भी प्रवृत्ति कराता है। |
सूक्ति |
अर्थ |
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५१. आराधनैकसम्पाद्या विद्या न ह्यन्यसाधना ।।७/७४ ।। | विद्या, गुरु की आराधना करने से ही प्राप्त होती है; अन्य साधनों से नहीं । |
५२. आलोच्यात्मरिकृत्यानां प्राबल्यं हि मतो विधि:।।१०/१८।। | शत्रु को अपने से अधिक बलवान जानकर ही युद्ध की तैयारी करना चाहिए। |
५३. आवश्यकेऽपि बन्धूनां प्रातिकूल्यं हि शल्यकृत् ।।८/५१।। | आवश्यक कार्य होने पर इष्टजनों की प्रतिकूलता काटें के समान चुभती है। |
५४. आशाब्धि: केन पूर्यते।।२/२० ॥ | आशारूपी समुद्र को कौन भर सकता है? |
५५. आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् ।।६/५० ।। | अपने आप प्राप्त होती हुई लक्ष्मी को कौन लात मारता है ? |
५६. आ समाहितनिष्पत्तेराराध्या: खलु वैरिण: ।।७/२२ ।। | अपने अभीष्ट की सिद्धि तक शत्रु भी आराध्य होते हैं। |
५७. आस्थायां हि विना यत्नमस्ति वाक्कायचेष्टितम् ।।८/९।। | प्रेम होने पर प्रयत्न किये बिना ही वचन और शरीर की प्रवृत्ति होती है। |
५८. आस्था सतां यश:काये न हास्थायिशरीरके।।१/३७ ।। | सज्जन पुरुषों की श्रद्धा यशरूपी शरीर में होती है, नश्वर शरीर में नहीं। |
‘इ’
सूक्ति |
अर्थ |
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५९. इष्टस्थाने सती वृष्टिस्तुष्टये हि विशेषतः ।।४/४१ ।। | इष्ट स्थान में होनेवाली वर्षा विशेष आनन्द देनेवाली होती है। |
‘ई’
सूक्ति |
अर्थ |
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६०. ईर्ष्या ही स्त्रीसमुद्भवा ।।४/२६।। | ईर्ष्या स्त्रियों से उत्पन्न हुई है। |
‘उ’
सूक्ति |
अर्थ |
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६१. उक्तिचातुर्यतो दाढच्र्यमुक्तार्थे हि विशेषतः ।।९/२७ ।। | कथन की चतुराई से कहे हुए विषय में विशेष दृढ़ता आती है। |
६२. उत्पथस्थे प्रबुद्धानामनुकम्पा हि युज्यते ।।७/६१ ।। | मिथ्यामार्ग पर चलनेवाले मनुष्यों पर बुद्धिमानों की कृपा उचित ही है। |
६३. उदात्तानां हि लोकोऽयमखिलो हि कुटुम्बकम् ।।२/७० ।। | उदार चरित्रवालों को सम्पूर्ण विश्व कुटुम्ब के समान है। |
६४. उदाराः खलु मन्यन्ते तृणायेदं जगत्रयम् ।।७/८२ ।। | उदारचित्त महापुरुष तीन लोक की संपत्ति को त्रण के समान तुच्छ मानते हैं। |
६५. उपायपृष्ठरूढा हि कार्यनिष्ठानिरड्कुंशाः ।।१०/२३ । | उत्तम उपाय में तत्पर पुरुष कार्य को नियम से सिद्ध करते हैं। |
‘ए’
सूक्ति |
अर्थ |
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६६. एककण्ठेषु जाता हि बन्धुता ह्यवतिष्ठते ।।८/३५ ।। | एकसमान व्यवहार करनेवालों में ही मित्रता स्थिर रहती है। |
६७. एककोटिगतस्नेहो जडानां खलु चेष्टितम् ।।८/३१ ।। | इकतरफा प्रीति करना मूर्खो की चेष्टा है। |
६८. एकार्थस्पृहया स्पर्धा न वर्धेतात्र कस्य वा ।।४/१६ ।। | एक ही पदार्थ की इच्छा होने से किसके स्पर्धा नहीं बढ़ती ? |
६९. एतादृशेन लिङ्गेन परलोको हि साध्यते ।।४/३९ ।। | प्रशंसात्मक बातों से अन्य मनुष्य वश में किये जाते हैं। |
७०. एधोगवेषिभिर्भाग्ये रत्नं चापि हि लभ्यते ।।८/३० ।। | भाग्योदय होने पर लकड़हारे को भी रत्न की प्राप्ति हो जाती है। |
७१. एधोन्वेषिजनैर्दृष्ट: किं वान प्रीतये मणिः ।।१/९६ ।। | ईधन तलाशनेवाले मनुष्यों द्वारा देखी गई माणिक्य प्रसन्नता के लिए नहीं होती ? |
‘ऐ’
सूक्ति |
अर्थ |
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७२. ऐहिकातिशयप्रीतिरतिमात्रा हि देहिनाम् ।।९/३ ।। | मनुष्य को सांसारिक उत्कर्ष में ही अधिक प्रेम होता है। |
‘क’
सूक्ति |
अर्थ |
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७३. कः कदा कीदृशो न स्याद्भाग्ये सति पचेलिमे ।।७/२९।। | भाग्य को उदय होने पर कौन, कब और कैसा मकान बनेगा - यह कह नहीं सकते। |
७४. कणिशोद्गमवैधुर्ये केदारादिगुणेन किम् ।।११/७५ ।। | पौधों में अन्नोत्पत्ति की सामर्थ्य न होने पर खेत आदि सामग्री अच्छी होने से भी क्या प्रयोजन ? |
७५. करुणामात्रपात्रं हि बाला वृद्धाश्च देहिनाम् ।९/८। | बालक तथा वृद्ध मात्र दया के पात्र होते हैं। |
सूक्ति |
अर्थ |
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७६. काकार्थफलनिम्बोऽपि श्लाघ्यते न हि चूतवत् ।।३/९ ।। | कौए के लिए नीम का वृक्ष आम के वृक्ष के समान प्रशंसनीय नहीं होता। |
७७. काचो हि याति वैगुण्यं गुण्यतां हारगो मणि:।।११/२। | हार में स्थित मणि ही शोभा को प्राप्त होती है, काँच नहीं। |
७८. कारणे जृम्भमाणेऽपि न हि कार्यपरिक्षयः ।।११/७२ ।। | कारण के विद्यमान रहने पर कार्य का विनाश नहीं होता। |
७९. कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति।११/७। | कार्य करने का उचित समय निकल जाने पर कार्य बिगड़ जाता है। |
८०. कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ।।४/९ ।। | रसायन के प्रभाव से लोहा भी सोना बन जाता है। |
८१. किं पुष्पावचयः शक्यः फलकाले समागते ।।१/३६।। | फलोत्पत्ति का काल आने पर क्या फूलों की प्राप्ति सम्भव है? |
८२. किं न मुञ्चन्ति रागिणि ।।१/७२ ।। | विषयासक्त मनुष्य क्या-क्या नहीं छोड़ देते हैं ? |
८३. किं गोष्पदजलक्षोभी क्षोभयेज्जलधेर्जलम् ।।२/५३ ।। | क्या खुर-प्रमाण जल को तरंगित करनेवाला छोटा-सा मेंढक क्या समुद्र के जल को तरंगित कर सकता है ? |
८४. किं स्यात्किं कृतं इत्येवं चिन्तयति हि पीडिता:।।२/६६ ।। | कौन-सा कार्य किस फल के लिए होगा - पीड़ित लोग यही विचार करते हैं। |
८५. कुत्सितं कर्म किं किं वा मत्सरिभ्यो न रोचते ।।४/१८ ।। | ईर्ष्या करने वालों को कौन-कौन से खोटे कार्य अच्छे नहीं लगते ? |
८६. कूपे पिपतिषुर्बालो न हि केनाऽप्युपेक्षते ।।६/९।। | कुएँ में गिरते हुए बालक की कोई भी उपेक्षा नहीं करता। |
८७. क्रूराः किं किं न कुर्वन्ति कर्म धर्मपराङ्गखा: ।।४/४।। | धर्म से परांगमुख क्रूर पुरुष क्या-क्या खोटे कार्य नहीं करते ? |
८८. कृतार्थानां हि पारार्थ्यमैहिकार्थपराङ्गुखम्।।७/७६।। | परोपकारी पुरुषों का परोपकार इस लोक सम्बन्धी प्रयोजनों से रहित होता है। |
८९. कृतिनोऽपि न गण्या हि वीतस्फीतपरिच्छदाः ।।८/३२ ।। | पुण्यवान पुरुषों को समृद्धि-परिवार आदि से रहित नहीं समझना चाहिए। |
९०. कृत्याकृत्यविमूढा हि गाढस्नेहान्धजन्तवः ।।२/७३ ।। | अति स्नेह से अन्धे पुरुष कर्तव्य-अकर्तव्य के विचार से रहित होते हैं। |
९१. कोऽनन्धो लङ्घयेद्गुरुम् ।।२/३९ । | कौन ज्ञानवान शिष्य गुरु के आदेश का उल्लंघन करेगा? |
९२. क्वचित्किमपि सौजन्यं नो चेल्लोकः कुतो भवेत् ।।४/३४।। | यदि संसार में कहीं पर भी सज्जनता न रहे तो संसार कैसे चलेगा ? |
९३. क्व विद्या पारगामिनी ।।१०/२५।। | विरले व्यक्ति ही परिपूर्ण विद्या के धारी होते हैं। |
‘ख’
सूक्ति |
अर्थ |
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९४. खाताऽपि हि नदी दत्ते पानीयं न पयोनिधि: ।।१०/५३ ।। | सूख जाने पर भी खोदी हुई नदी ही प्यासों को मीठा जल देती है, समुद्र नहीं। |
‘ग’
सूक्ति |
अर्थ |
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९५. गतेर्वार्ता हि पूर्वगा ।।१०/१७ ।। | समाचारों की गति अति तेज होती है, वे मनुष्य के पहुँचने के पूर्व ही दूर तक पहुँच जाते हैं। |
९६. गत्यधीनं हि मानसम् ।।१/६५ ।। | मन के विचार भविष्य में होनेवाली गति के अनुसार ही होते हैं। |
९७. गर्भाधानक्रियामात्रन्यूनौ हि पितरौ गुरुः ।।२/५९ ।। | मात्र गर्भाधान क्रिया को छोड़कर गुरु ही शिष्य के लिए माता-पिता हैं। |
९८. गात्रमात्रेण भिन्नं हि मित्रत्वं मित्रता भवेत् ।।२/७५ ।। | शरीर मात्र से भिन्न मित्रपना ही मित्रता कहलाती है। |
९९. गुणज्ञो लोक इत्येषा किम्वदन्ती हि सुतम् ।।५/१५।। | यह कहावत सत्य है कि मनुष्य गुणग्राही होते हैं। |
१००. गुरुरेव हि देवता।१/१११॥ | गुरु ही देवता है। |
सूक्ति |
अर्थ |
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१०१. गुरुस्नेहो हि कामसूः ।।२/२ ।। | गुरु का प्रेम इच्छाओं को पूरा करनेवाला होता है। |
‘च’
सूक्ति |
अर्थ |
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१०२. चतुराणां स्वकार्योक्तिः स्वन्मुखान्न हि वर्तते ।।८/२३ ।। | चतुर पुरुष अपने अन्तरंग का अभिप्राय दूसरे के बहाने से ही प्रकट करते हैं। |
१०३. चित्रं जैनी तपस्या हि स्वैराचारविरोधिनी ।।२/१५ ।। | जैनी तपस्या स्वेच्छाचार की विरोधी है। |
१०४. चिरकाड्ंक्षितलाभे हि तृप्ति: स्यादतिशायिनी ।।११/१ ।। | चिरकांक्षित वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर अत्यधिक प्रसन्नता होती है। |
१०५. चिरकाङ्गितसम्प्राप्त्या प्रसीदन्ति हि देहिनः ।।८/६८ ।। | चिरकाल से चाही हुई वस्तु के मिल जाने पर मनुष्य आनन्दित होते ही हैं। |
१०६. चिरस्थाय्यन्धकारोऽपि प्रकाशे हि विनश्यति ।।११/७३।। | चिरकाल से व्याप्त अन्धकार भी प्रकाश के होने पर नष्ट हो जाता है। |
‘ज’
सूक्ति |
अर्थ |
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१०७. जठरे सारमेयस्य सर्पिषो न हि सञ्जनम् ।।७/६० ।। | कुत्ते के पेट में घी नहीं ठहरता। |
१०८. जन्मान्तरानुबन्धौ हि रागद्वेषौन नश्यतः ।।९/३२ ।। | जन्म-जन्मान्तर से जीव के साथ सम्बन्ध रखनेवाले राग-द्वेष के परिणाम सहज नष्ट नहीं होते। |
१०९. जलबुदबुद्नित्यत्वे चित्रीया न हि तत्क्षये ।।१/५९ ।। | पानी के बुलबुलों के देर तक ठहरने में आश्चर्य है, उनकेनाश होने में नहीं। |
११०. जीवितात्तु पराधीनाज्जीवानांमरणं वरम् ।।१/४० ।। | पराधीन रहकर जीवन जीने की अपेक्षा मरण ही श्रेष्ठ है। |
१११. जीवानां जननीस्नेहो न हान्यैः प्रतिहन्यते ।।८/४८ ।। | जीवों का मातृ-प्रेम किन्हीं भी कारणों से नष्ट नहीं होता। |
‘त’
सूक्ति |
अर्थ |
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११२. तत्तन्मात्रकृतोत्साहैः साध्यते हि समीहितम् ।।७/६४ ।। | उत्साही तथा चतुर लोग अपना इच्छित कार्य सिद्ध कर लेते हैं। |
११३. तत्त्वज्ञानतिरोभावे रागादि हि निरङ्कुशम् ।।८/५३ ।। | तत्त्वज्ञान का तिरोभाव होने पर राग-द्वेषादि निरंकुश हो जाते हैं। |
११४. तत्वज्ञानजलं नो चेत् क्रोधाम्नि: केन शाम्यति ।।५/९ ।। | यदि तत्त्वज्ञानरूपी जल न हो तो क्रोधरूपी अग्नि किससे बुझेगी ? |
११५. तत्त्वज्ञानविहीनानां दुःखमेव हि शाश्वतम् ।।६/२ ।। | तत्त्वज्ञान से रहित जीवों का दु:ख शाश्वत होता है। |
११६. तत्त्वज्ञानं हि जागर्ति विदुषामार्तिसम्भवे ।।१/५७ ।। | पीड़ा होने पर भी विद्वानों का तत्त्वज्ञान स्थिर ही रहता है। |
११७. तत्त्वज्ञानं हि जीवानां लोकद्वयसुखावहम् ।।३/१८ ।। | तत्त्वज्ञान इहलोक और परलोक में जीवों के लिए सुख देनेवाला है। |
११८. तन्तवो न हि लूताया: कूपपातनिरोधिनः ।।१०/४८ ।। | मकड़ी के जाल के तन्तु कुएँ में गिरते हुए प्राणी को नहीं बचा सकते। |
११९. तप्यध्वं तत्तपो यूयं किं मुधा तुषखण्डनैः ।।६/२४ ।। | तुम सब सर्वज्ञ प्रणीत तप तपो, व्यर्थ में भूसा कूटने से क्या लाभ ? |
१२०. तमो ह्यभेद्यं खद्योतैर्भानुना तु विभिद्यते ।।२/७१ ।। | जो अन्धकार जुगनुओं के लिए अभेद्य है, उसे सूर्य द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। |
१२१. तीरस्था: खलु जीवन्ति न हि रागाब्धिगाहिनः ।।८/१।। | रागरूपी समुद्र के किनारे रहनेवाले लोग जीवित रहते हैं, उसमें गोते लगानेवाले नहीं। |
‘द’
सूक्ति |
अर्थ |
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१२२. दग्धभूम्युप्तबीजस्य न हाङ्कुरसमर्थता ।।१/६२ ।। | जली हुई भूमि में बोये गये बीज में अंकुर पैदा करने की सामर्थ्य नहीं होती। |
१२३. दानपूजातप:शीलशालिनां किं न सिध्यति ।।१०/१९ ।। | दान, पूजा, तप और शील से सम्पन्न मनुष्य को क्या सिद्ध नहीं होता? |
१२४. दीपनाशे तमोराशि: किमाह्वानमपेक्षते ।।१/५८ ।। | दीपक बुझ जाने पर अन्धकार का समूह क्या निमन्त्रणकी अपेक्षा रखता है? |
१२५. दुःखचिंता हि तत्क्षणे ।।१/३२ ।। | दुःख की चिन्ता दु:ख के समय ही रहती है। |
सूक्ति |
अर्थ |
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१२६. दुखस्यानन्तरं सौख्यं ततो दुःखं हि देहिनाम् ।।४/३६।l | प्राणियों को दु:ख के बाद सुख और सुख के बाद दु:ख होता ही रहता है। |
१२७. दुःखस्यानन्तरं सौख्यमतिमात्रं हि देहिनाम् ।।३/३५।। | प्राणियों को दु:ख के बाद का सुख अत्यधिक अच्छा लगता है। |
१२८. दुःखार्थोऽपि सुखार्थो हि तत्त्वज्ञानधने सति ।।३/२१ ।। | तत्व ज्ञान रूपी धन के होने पर दु:खदायक पदार्थ भी सुख का हेतु होता है। |
१२९. दुर्जनाग्रे हि सौजन्यं कर्दमे पतितं पयः ।।१०/१५ ।। | दुष्ट मनुष्य के सामने सज्जनता कीचड़ में दूध डालने के समान है। |
१३०. दुर्जनेऽपि हि सौजन्यं सुजनैर्यदि सङ्गम: ।१०/१२। | यदि सज्जनों की संगति होवे तो दुर्जन में भी सज्जनता आ जाती है। |
१३१. दुर्बला हि बलिष्ठेन बाध्यन्ते हन्त संसृतौ ।।१०/३७ ।। | खेद है ! संसार में बलवान जीव दुर्बल के लिए बाधायें उत्पन्न करता है। |
१३२. दुर्लभो हि वरो लोके योग्य भाग्यसमन्वितः ।।४/४४॥ | लोक में भाग्यशाली एवं योग्य वर मिलने अत्यंत दुर्लभ है। |
१३३. दैवतेनापि पूज्यन्ते धार्मिका: किं पुन: परैः ।।५/४१ ।। | धार्मिक पुरुष देवों के द्वारा भी पूज्य होते हैं; तो दूसरों की बात ही क्या ? |
१३४. दोषं नार्थी हि पश्यति ।।१/५२।। | कार्य की सफलता का इच्छुक मनुष्य दोष को नहीं देखता। |
‘ध’
सूक्ति |
अर्थ |
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१३५. धनाशा कस्य न भवेत् ।।३/२।। | धन की इच्छा किसके नहीं होती ? |
१३६. धर्मो हि भुवि कामसू ।।११/७८ ।। | इस संसार में धर्म सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है। |
१३७. धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिक एव नापरे ।।२/१७ ।। | धर्मात्माओं के सहायक धर्मात्मा ही होते हैं; अन्य नहीं । |
१३८. ध्यातेऽपि हि पुरा दुःखे भृशं दु:खायते जनः ।।८/१३ ।। | पहले भोगे हुए दु:खों के स्मरण मात्र से मनुष्य अत्यधिक दु:खी होता है। |
१३९. ध्यातो गरुड़बोधेन हि हन्ति विषं बक: ।।६/२३ ।। | गरुड़ मानकर बगुले का ध्यान करने से विष दूर नहीं होता। |
‘न’
सूक्ति |
अर्थ |
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१४०. नटायन्ते हि भूभुजः ।।१/१५।। | राजा नट के समान आचरण करते हैं। |
१४१. न विद्यते हि विद्यायामगम्यं रम्यवस्तुषु ।७/५५ | विद्या के होने पर कोई भी सुन्दर वस्तु अलभ्य नहीं है। |
१४२. न विभेति कुतो लोक आजीवनपरिक्षये ।।२/६५ ।। | आजीविका के साधन छिन जाने पर मनुष्य अत्यन्त भयभीत हो जाता है। |
१४३. न हि कार्यपराचीनैर्मृग्यते भुवि कारणम् ।।६/१५।। | संसार में कार्य से विमुख पुरुष कारण की खोज नहीं करते। |
१४४, न हि खादापतन्ती चेद्रत्नवृष्टिनिवार्यते ।११/१७। | यदि आकाश से रत्न वृष्टि हो रही हो तो उसे रोका नहीं जाता। |
१४५. न हि तण्डुलपाकः स्यात्पावकादिपरिक्षये ।।११/६६ ।। | अग्नि आदिक न होने पर चावलों का पकना नहीं होता। |
१४६. न हि तिष्ठति राजसम् ।।१/५५।। | क्षत्रिय तेज शांत नहीं रह पाता। |
१४७. न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रिया।११/३ । | नदी के जल से समुद्र में विकार नहीं होता। |
१४८. न हि नीचमनोवृत्तिरेकरूपास्थिता भवेत् ।।४/४५ ।। | नीच मनुष्यों की मनोवृत्ति सदैव एक-सी स्थिर नहीं रहती। |
१४९. न हि प्रसादखेदाभ्यां विक्रियन्ते विवेकिनः ।।८/२५ ।। | विवेकी पुरुष हर्ष-विषाद से विकार को प्राप्त नहीं होते। |
१५०. न हि प्राणवियोगेऽपि प्राज्ञैर्लप्राज्ञैर्लड्ंघ्यं गुरोर्वच: ।।५/१३।। | बुद्धिमान मरण उपस्थित होने पर भी गुरु के वचनों का उल्लंघन नहीं करते। |
‘न’
सूक्ति |
अर्थ |
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१५१. न हि भेद्यं मन: स्त्रिया: ।। ४/२७।। | स्त्रियों का मन भेद्य नहीं है। |
१५२. न हि मातुः सजीवेन सोढव्या स्याद्दुरासिका ।।८/६१ ।। | माता की दुखी अवस्था किसी भी सचेतन के लिए सह्य नहीं होती। |
१५३. न हि मुग्धा सतां वाक्यं विश्वसन्ति कदाचन ।।७/२।। | भोले लोग सज्जनों की बात का कभी-कभी विश्वास नहीं करते । |
१५४. न हि रक्षितुमिच्छन्तो निर्दहन्ति फलद्रुमम् ।।१/२९ ।। | फल सहित वृक्ष के रक्षक उस वृक्ष को नहीं जलाते। |
१५५. न हि वारणपर्याणं भर्तुं शक्तो वनायुजः ।।७/२० ।। | शक्तिशाली घोड़ा हाथी जितना भार ढोने में समर्थ नहीं होता। |
१५६. न हि वारयितुं शक्यं पौरुषेण पुराकृतम् ।।५/११ ॥ | पूर्वकृत दुष्कर्म का पुरुषार्थ से निवारण करना सम्भव नहीं। |
१५७. न हि वेद्यो विपत्क्षण: ।।३/१३।। | आपत्ति का समय अज्ञात होता है। |
१५८. न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवत् ।।२/४९ ।। | पदार्थों के विनाश के समान उनका उत्पन्न करना सरल नहीं है। |
१५९. न हि सन्तीह जन्तूनामपाये सति बान्धवाः ।।४/३० ।। | दुनिया में आपत्ति आ जाने पर प्राणियों का कोई सहायक नहीं रहता। |
१६०. न हि सोढव्यतां याति तिरश्चां वा तिरस्क्रिया ।।५/२।। | तिर्यञ्चों को भी अपना अपमान सह्य नहीं होता। |
१६१. न हि स्थाल्यादिभिः साध्यमन्नमन्यैरतण्डुलैः ।।६/१८ ।। | चावल रूप उपादान कारण बिना मात्र बटलोई आदि निमित्त कारणों से साध्यभूत पका चावल प्राप्त नहीं हो सकता। |
१६२. न हि स्ववीर्यगुप्तानां भीति: केसरिणामिव ।।५/३२ ।। | पराक्रमी सिंह के समान स्वपराक्रम से ही रक्षित पुरुषों को भय नहीं रहता। |
१६३. न ह्यकालकृतं कर्म कार्यनिष्पादनक्षमम् ।।४/२३ ।। | असमय में किया गया परिश्रम कार्यकारी नहीं होता। |
१६४. न ह्यङ्गलिरसाहाय्या स्वयं शब्दायतेतराम् ।१/६४। | एक ही उंगली से चुटकी नहीं बजती।। |
१६५. न ह्यत्र रोचते न्यायमीर्ष्यादूषितचेतसे ।।४/२५ ।। | ईर्ष्या से मलिन चित्तवाले व्यक्ति को सच्ची बात भी अच्छी नहीं लगती। |
१६६. न ह्यनिष्टेष्टसंयोगवियोगाभमरुन्तुदम् ।।४/२८ ।। | अनिष्ट के संयोग और इष्ट के वियोग के समान और कोई पीड़ा देनेवाला नहीं। |
१६७. न ह्यमन्त्रं विनिश्चेयं निश्चिते च न मन्त्रणम् ।।१०/१० ।। | बिना विचार किये कोई भी कार्य निश्चित नहीं करना चाहिए तथा निश्चित हो जाने पर पुनः विचार नहीं करना चाहिए। |
१६८. न ह्ययोग्ये स्पृहा सताम् ।।२/७४ । | सज्जन पुरुष की इच्छा अनुचित पदार्थ में नहीं होती। |
१६९. न ह्यारोढुमधिश्रेणिं यौगपद्येन पार्यते ।।७/२१ ।। | ऊँची नसैनी पर एक ही साथ चढ़ने में कोई समर्थ नहीं है। |
१७०. न ह्मासक्त्या तु सापेक्षो भानु: पद्मविकासने ।।१०/४४।। | सूर्य कमलों को खिलाने के बाद अनासक्ति से अस्पताल की ओर जाता है। |
१७१. न ह्यसत्यं सतां वचः ।।९/१६।। | सज्जनों के वचन असत्य नहीं होते। |
१७२. न ह्यस्थानेऽपि रुट् सताम् ।।१०/५५ ।। | सज्जनों का क्रोध अनुचित स्थान में नहीं होता। |
१७३. नादाने किन्तु दाने हि सतां तुष्यति मानसम् ।।७/३० ।। | सज्जन पुरुष दान देने में प्रसन्न होते हैं, लेने में नहीं। |
१७४. निरङ्कुशं हि जीवानामैहिकोपायचिन्तनम् ।।३/३ ।। | मनुष्यों के इस लोक सम्बन्धी आजीविका के उपाय का चिन्तन निराबाध ही हो जाता है। |
१७५. निर्गमे चाप्रवेशे च धाराबन्धे कुतो जलम् ।११/६४। | सरोवर में से संचित जल के निकल जाने पर और नवीन जल के नहीं आने पर उसमें पानी कैसे रह सकता है? |
सूक्ति |
अर्थ |
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१७६. निर्वाणपथपान्थानां पाथेयं तद्धि किं परैः ।।४/८।। | अधिक क्या कहें ! णमोकार मन्त्र मुक्तिपथ के पथिकों के लिए कलेवा है। |
१७७. निर्विवादविधिननिर्विवादविधिर्नो चेन्नैपुण्यं नाम किं भवेत्।।४/२२ ।। | यदि निर्विवाद युक्ति न हो तो निपुणता किस बात की ? |
१७८. निर्व्याजं सानुकम्पा हि सर्वाः सर्वेषु जन्तुषु ।।६/८ ।। | सर्वहितैषी सज्जन पुरुष समस्त प्राणियों पर निष्कपट दया करते हैं। |
१७९. निश्चलादविसंवादाद्वस्तुनो हि विनिश्चयः ।।१/९४ ।। | निश्चल और विवादरहित वचनों से वस्तु का निश्चय होता है। |
१८०. निष्प्रत्यूहा हि सामग्री नियतं कार्यकारिणी ।।२/५८ ।। | बाधारहित कारण-सामग्री नियम से कार्य को पूरा करनेवाली होती है। |
१८१. निसर्गादिङ्गितज्ञानमङ्गनासु हि जायते ।।७/४४ ।। | शरीर की चेष्टा से मन के विचारों को जानने का इंगित/संकेत ज्ञान स्त्रियों में स्वभाव से ही होता है। |
१८२. नि:स्पृहत्वं तु सौख्यम् ।।११/६७ ।। | इच्छा का अभाव ही सुख है। |
१८३. निर्हेतुकान्यरक्षा हि सतां नैसर्गिको गुण: ।।५/४३।। | बिना कारण ही दूसरों की रक्षा करना सज्जन पुरुषों का स्वभाविक गुण है। |
१८४. नीचत्वं नाम किं नु स्यादस्ति चेद् गुणगारिता।।५/५।। | यदि दूसरों के गुणों में प्रीति हो तो नीचता कैसे टिके ? |
१८५. नैसर्गिकं हि नारीणां चेत: सम्मोहि चेष्टितम् ।।८/४ ।। | स्त्रियों की चेष्टाएँ स्वभाव से ही चित्त को मोहित करनेवाली होती हैं। |
१८६. नो चेद्विवेकनीरौघो रागाग्रि: केन शाम्यति ।।४/३७ ।। | यदि विवेकरूपी जल-समूह न हो तो राग रूपी अग्नि कैसे शान्त होगी ? |
‘प’
सूक्ति |
अर्थ |
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१८७. पतन्तः स्वयमन्येषां न हि हस्तावलम्बनम् ।।६/२५ ।। | स्वयं गिरते हुए लोग दूसरों का सहारा नहीं हो सकते । |
१८८. प्रगन पय: पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ।।५/६।। | सर्प को पिलाया गया दूध विष की ही वृद्धि करता है। |
१८९. पम्फुलीति हि निर्वेगो भव्यानां कालपाकतः ।।२/९ ।। | काल पक जाने पर भव्य जीवों को विशेषरूप से वैराग्य प्रकट होता है। |
१९०. पयो ह्यास्यगतं शक्यं पाननिष्ठीवनद्वये ।१/५४॥ | मुँह में रखे हुए दूध अथवा जल की परिणति थूकने या पीने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकती। |
१९१. परस्परातिशायी हि मोहः पञ्चन्द्रियोद्भवः ।।९/२३ । | पाँचो इन्द्रियों के निमित्त से होनेवाला मोह एक-दूसरे की अपेक्षा अधिक होता है। |
१९२. पराभवो न हि सोढव्योऽशक्तैः शक्तैस्तु किं पुनः।।८/२९।। | अपने तिरस्कार को असमर्थ जन भी सहन नहीं कर पाते तो फिर समर्थ पुरुष कैसे सहन करेंगे ? |
१९३. पाके हि पुण्यपापानां भवेद्बाह्यं च कारणम् ।।११/१४।। | पाप और पुण्य के उदय आने में कोई न कोई बाह्य निमित्त कारण अवश्य मिल जाता है। |
१९४. पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुणदोषविनिश्चय: ।।४/२० ।। | पदार्थों के गुण और दोषों का निर्णय करना पाण्डित्य है। |
१९५. पाणौ कृतेन दीपेन किं कूपे पततां फलम् ।२/४५ । | हाथ में दीपक होने पर भी कुएँ में गिरनेवाले व्यक्ति को दीपक से क्या लाभ? |
१९६. पात्रतां नीतमात्मानं स्वयं यान्ति हि संपदः ।।५/४८।। | सम्पत्ति स्वयं ही योग्य पुरुषों के पास जाती है। |
१९७. पापात् बिभेति पण्डितः ।।१/८७।। | विद्वानों को पाप से डरना चाहिए। |
१९८. पावका न हि पात: सादातपक्लेशशान्तये ।।१/३० ।। | गर्मी से होनेवाले दु:ख को दूर करने के लिए अग्नि में कूदना उपाय नहीं है। |
१९९. पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ।।६/४ । | सत्पुरुषों के आश्रय से स्थान भी पवित्र हो जाते हैं। |
२००. पित्तज्वरवत: क्षीरं तिक्तमेव हि भासते ।।१/५१।। | पित्तज्वरवाले मनुष्य को मीठा दूध कड़वा ही लगता है। |
सूक्ति |
अर्थ |
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२०१. पीडायां तु भृशं जीवा अपेक्षन्ते हि रक्षकान् ।।८/२७ ।। | कष्ट/पीड़ा होने पर ही लोग रक्षकों की अपेक्षा करते हैं। |
२०२. पीडा ह्यभिनवा नृणां प्रायो वैराग्यकारणम् ।।१/७१ ।। | नई पीड़ा प्राय: मनुष्यों के वैराग्य का कारण बनती है। |
२०३. पुत्रमात्रं मुदे पित्रोविद्यापात्रं तु किं पुनः ।।७/७८ । | माता-पिता को पुत्र ही हर्ष का कारण होता है, फिर विद्वान पुत्र का तो कहना ही क्या? |
२०४. पुण्ये किंवा दुरासदम् ।१/८९॥ | पुण्योदय होने पर क्या दुर्लभ है ? |
२०५. पूज्यत्वं नाम किम् नु स्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ।।५/४५ ।। | पुज्य पुरूषों की पूजा का उल्लंघन होने पर पूज्यपना कैसे रह सकता है? |
२०६. प्रकृत्या स्यादकृत्ये धीर्दु:शिक्षायां तु किं पुनः ।३/५०। | बुद्धि स्वभाव से ही खोटे कार्यों में प्रवृत्त होती है; फिर खोटी शिक्षा मिलने पर तो उसका कहना ही क्या? |
२०७. प्रजानां जन्मवर्जं हि सर्वत्र पितरौ नृपाः ।।११/४ ।। | जन्म देने के अलावा सर्वत्र राजा ही प्रजा के माता-पिता हैं। |
२०८. प्रतारणविधौ स्त्रीणां बहुद्वारा हि दुर्मति: ।।७/४५ ।। | स्त्रियों की खोटी बुद्धि दूसरों को ठगने में अनेक प्रकार से चलती है। |
२०९. प्रतिकर्तुं कथं नेच्छेदुपकर्तुः सचेतनः ।।४/१४ ।। | सचेतन प्राणी उपकार करनेवाले के प्रति प्रत्युपकार करने की भावना क्यों नहीं रखेगा? |
२१०. प्रतिहन्तुं न हि प्राज्ञै: प्रारब्धं पार्यते परैः ।।६/३ ।। | बुद्धिमानों द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य दूसरों द्वारा रोका जाना सम्भव नहीं है। |
२११. प्रत्यक्षे च परोक्षे च सन्तो हि समवृत्तिका: ।।७/३२ ।। | सज्जन पुरुष सामने और पीछे समान व्यवहार करते हैं । |
२१२. प्रदीपैर्दीपिते देशे न ह्यस्ति तमसो गतिः ।।१/३१ ।। | दीपकों से प्रकाशित स्थान पर अन्धकार का आगमन ही नहीं होता। |
२१३. प्रभूणां प्राभवं नाम प्रणतेष्वेकरूपता।।६/३९ ।। | विनयशील जनों के प्रति समान व्यवहार करना महापुरुषों की महानता है। |
२१४. प्रयत्नेन हि लब्धं स्यात्प्राय: स्नेहस्य कारणम् ।।५/१।। | परिश्रम से प्राप्त वस्तु प्राय: स्नेह का कारण होती है। |
२१५. प्राणप्रदायिनामन्या न ह्यस्ति प्रत्युपक्रिया।५/४४॥ | प्राण रक्षा करनेवालों का दूसरा कोई प्रत्युपकार नहीं होता। |
२१६. प्राणप्रयाणवेलायां न हि लोके प्रतिक्रिया ।।२/५७ ।। | संसार में प्राण निकलने के समय में मृत्यु रोकने का कोई उपाय नहीं होता। |
२१७. प्राणवत्प्रीतये पुत्रा मृतोत्पन्नास्तु किं पुन: ।।१/९९ ।। | पुत्र तो प्राणों के समान प्रिय होते हैं, फिर जो मरकर पुनः जीवित हो जाए उसका तो कहना ही क्या ? |
२१८. प्राणाः पाणिगृहीतीनां प्राणनाथो हि नापरम् ।७/३ । | विवाहिता स्त्रियों के प्रति उनके पति ही होते हैं; और कोई नहीं। |
२१९. प्राणेष्वपि प्रमाणं यत्तद्धि मित्रमितीष्यते ।३/३७। | जो प्राणों से भी अधिक प्रामाणिक हो, वही सच्चा मित्र है। |
२२०. प्रीतये हि सतां लोके स्वोदयाच्च परोदयः ।।६३० ।। | सज्जन को अपनी उन्नति से भी दूसरों की उन्नति अधिक आनंददायी होती है। |
२२१. प्रेक्षावन्तो वितन्वन्ति न ह्युपेक्षामपेक्षिते।४/४२। | बुद्धिमान पुरुष अपेक्षित वस्तु की उपेक्षा नहीं करते। |
‘फ’
सूक्ति |
अर्थ |
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२२२. फलमेव हि यच्छन्ति पनसा इन सज्जनाः ।।१०/४२ ।। | सज्जन मनुष्य कटहल के वृक्ष के समान फल को ही देते हैं। |
‘ब’
सूक्ति |
अर्थ |
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२२३. बकायन्ते हि जिष्णवः ।।१०/१६ ।। | विजय पाने के इच्छुक लोग बगुले के समान आचरण करते हैं। |
२२४. बन्धोर्बन्धौ च बन्धो हि बन्धुता चेदवञ्चिता ।।८/२६ ।। | यदि निष्कपट बन्धुत्व का भाव हो तो सम्बन्धी के सम्बन्धियों में भी प्रेम हो जाता है। |
२२५. बहुद्वारा हि जीवानां पराराधनदीनता ।९/४। | प्राणियों दूसरों की सेवा से प्रकट होनेवाली दीनता बहुत प्रकार की होती है। |
सूक्ति |
अर्थ |
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२२६, बहुयत्नोपलब्धस्य प्रच्यवो हि दुरुत्सहः ।।७/४।। | बहुत प्रयत्न पूर्वक प्राप्त हुई वस्तु का वियोग असह्य होता है |
२२७. बहुयत्नोपलब्धे हि प्रेमबन्धो विशिष्यते ।।१०/१।। | दुर्लभता से प्राप्त हुई वस्तु के प्रति विशेष प्रेम हुआ करता है। |
२२८. बुद्धि:कर्मानुसारिणी।१/१९। | बुद्धि कर्म के अनुसार चलती है। |
‘भ’
सूक्ति |
अर्थ |
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२२९.भवितव्यानुकूलं हि सकलं कर्म देहिनाम् ।९/२०। | प्राणियों के समस्त कार्य होनहार के अनुसार होते हैं। |
२३०. भव्यो वा स्यान्न वा श्रोता पारायँ हि सतां मन: ।६/१०। | श्रोता भव्य हो अथवा न हो, सज्जनों की भावना सबका उपकार करने की ही होती है। |
२३१. भस्मने दहतो रत्नं मूढ: क: स्यात्परो जन: ।।११/७६ | राख के लिए रत्न को जलानेवाले व्यक्ति से बढ़कर मूर्ख दसरा कौन है ? |
२३२. भस्मने रत्नहारोऽयं पण्डितैर्न हि दहाते ।।११/१८।। | पण्डित लोग राख के लिए रत्नहार को नहीं जलाते । |
२३३. भागधेयविधेया हि प्राणिनां तु प्रवृत्तयः ।।७/७ ।। | प्राणियों की प्रवृत्तियाँ भवितव्यानुसार ही होती हैं। |
२३४. भाग्ये जाग्रति का व्यथा ॥१/१०९ | भाग्योदय होने पर कौन-सा दु:ख रहता है ? |
२३५.भानुः किं न तमोहर: १०/२६। | क्या सूर्य अंधकार को नष्ट नहीं कर पाता? |
२३६. भानुर्लोकं तपन्कुर्याद्विकासश्रियमम्बुजे ।।५/२५।। | संसार को संतप्त करनेवाला सूर्य कमल की कलियों को खिलाता है। |
२३७. भाव्यधीनं हि मानसम् ।।५/२९ ।। | मन भवितव्य अनुसार होता है। |
२३८. भ्रातुर्विलोकनं प्रीत्यै विप्रयुक्तस्य किं पुनः ।।८/१० ।। | भाई को देखना ही प्रसन्नता का कारण है, फिर बिछुड़े हुए भाई से मिलने पर तो कहना ही क्या ? |
२३९. भेजे शुभनिमित्तेन सनिमित्ता हि भाविन: ।1५/४२॥ | भविष्य में होनेवाले उत्तम कार्य शुभ निमित्तपूर्वक होते हैं। |
२४०. भेतव्यं खलु भेतव्यं प्राज्ञैरज्ञोचितात्परम् ।।७/४३।। | अज्ञानियों के उचित कार्यों से ज्ञानी मनुष्यों को भयभीत रहना चाहिए। |
२४१. भाव्यवश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते ।१०/४९। | भविष्य में जो कुछ होनेवाला है, वह होकर ही रहता है; किसी से भी टाला नहीं जा सकता । |
‘म’
सूक्ति |
अर्थ |
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२४२. मत्सराणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्यचिन्तनम् ।।१०/३५ ।। | ईर्ष्यालु मनुष्यों के वस्तुस्वरूप का विचार नहीं होता। |
२४३. मध्ये मध्ये हि चापल्यमामोहादपि योगिनाम् ।।३/२६ ।। | मोह कर्म रहने तक बीच-बीच में योगियों के परिणामों में भी चंचलता रहती है। |
२४४. मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम् ।।१/४३ ।। | पापियों के मन में कुछ होता है, वचन में कुछ अन्य तथा वे शरीर से कुछ दूसरा ही कार्य करते हैं। |
२४५. मनीषितानुकूलं हि प्रीणयेत्प्राणिनां मन: ।९/२९। | मनोरथ के अनुकूल उपाय को दिखाना ही प्राणियों के मन को प्रसन्न करता है। |
२४६. मनोरथेन तृप्तानां मूललब्धौ तु किं पुनः ।।९/३० ।। | मनोरथ से सन्तुष्ट होनेवाले मनुष्यों को यदि मूल पदार्थ मिल जाए तो फिर कहना ही क्या है? |
२४७. ममत्वधीकृतो मोहः सविशेषो हि देहिनाम् ।।८/६४ ।। | ममत्व बुद्धि से प्राणियों को मोह अधिक होता है। |
२४८. मरुत्सखे मसुद्धूते मह्यां किं वा न दह्यते।।१०/३३ । | हवा से प्रज्ज्वलित अग्नि के होने पर पृथ्वी पर कौन-कौनसी वस्तुएँ नहीं जल जाती। |
२४९. महिषैः क्षुभितं तोयं न हि सद्यः प्रसीदति ।।१०/५७ ।। | भैंसों द्वारा गन्दा किया गया जल शीघ्र स्वच्छ नहीं होता। |
२५०. माणिक्यस्य हि लब्धस्य शुद्धेर्मोदो विशेषतः ।।२/२९ ।। | प्राप्त हुई मणि की उत्तमता के निर्णय से विशेष हर्ष होता है। |
सूक्ति |
अर्थ |
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२५१. मात्सर्यात्किंन नश्यति ।।४/१७ ।। | ईर्ष्या भाव से क्या नष्ट नहीं होता? |
२५२. मायामयी हि नारीणां मनोवृत्तिर्निसर्गतः ।।७/४९ ।। | स्त्रियों की मनोवृत्ति स्वभाव से ही मायामयी होती है। |
२५३. मित्रं धात्रीपतिं लोके कोऽपरः पश्यतः सुखी ।।३/३६ । | संसार में मित्रस्वरूप राजा को देखनेवाले की अपेक्षा दूसरा कौन सुखी हो सकता है ? |
२५४. मुक्तिद्वारकवाटस्य भेदिना किं न भिद्यते ।।६/३६ ।। | मोक्ष के द्वार खोलनेवाले के द्वारा किसका भेदन नहीं किया जा सकता ? |
२५५. मुक्तिप्रदेन मन्त्रेण देवत्वं न हि दुर्लभम् ।।४/१३ ।। | मुक्ति-प्रदाता महामंत्र से देवपना प्राप्त होना दुर्लभ नहीं है। |
२५६. मुखदानं हि मुख्यानां लघूनामभिषेचनम् ।७/९। | महापुरुषों का सामान्य व्यक्ति से प्रीतिपूर्वक बोलना उनके राज्याभिषेक के समान होता है। |
२५७. मुग्धा: श्रुतविनिश्चेया न हि युक्तिवितर्किण: ।८/५८ । | भोले मनुष्य सुनने से बात का निश्चय करनेवाले होते हैं; तर्क और युक्तियों से विचार करनेवाले नहीं। |
२५८. मुग्धेष्वतिविदग्धानां युक्तं हि बलकीर्तनम् ।।८/५७।। | बुद्धिमानों का भोले मनुष्यों के सामने बलादि गुणों की प्रशंसा करना उचित है। |
२५९. मूढानां हन्त कोपाग्निरस्थानेऽपि हि वर्धते ।।५/७ ।। | खेद है कि मूर्ख पुरुषों की क्रोधाग्नि अस्थान में भी बढ़ती है! |
‘य’
सूक्ति |
अर्थ |
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२६०. यदशोकः प्रतिक्रिया ।।२/६८।। | शोक नहीं करना ही शोक का प्रतिकार है। |
२६१. यदि रत्नेऽपि मालिन्यं न हि तत्कृच्छशोधनम् ।।११/२०।। | रत्न पर आई हुई मलिनता सरलता से दूर करने योग्य होती है। |
२६२. याञ्चायां फलमूकायां न हि जीवन्ति मानिनः ।।९/२६।। | याचना निष्फल हो जाने पर अभिमानी लोग जीवित नहीं रहते । |
२६३. योग्यकालप्रतीक्षा हि प्रेक्षापूर्वविधायिनः ।।९/२२ ।। | विचारपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य उचित समय की प्रतीक्षा करने वाले होते हैं। |
२६४. योग्यायोग्यविचारोऽयं रागान्धानां कुतो भवेत् ।।४/३८ ।। | रागान्ध मनुष्यों को उचित-अनुचित का विचार कहाँ से हो सकता है? |
‘र’
सूक्ति |
अर्थ |
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२६५. रक्तेन दूषितं वस्त्र नहि रक्तेन शुध्यति ।।६/१७ ।। | खून से मलिन हुआ वस्त्र खून से ही धोने पर निर्मल नहीं होता। |
२६६. रागद्वेषादि तेनैव बलिष्ठेन हि बाध्यते ।।८/५० ।। | अति बलवान रागादि से ही सामान्य राग-द्वेष आदि बाधित होते हैं। |
२६७. रागान्धानां वसन्तो हि बन्धुरग्नेरिवानिल: ।४/२॥ | राग से अन्धे पुरुषों के लिए वसन्त ऋतु अग्नि को प्रज्ज्वलित करने में पवन की तरह मित्र है। |
२६८. रागान्धे हि न जागर्ति याञ्चादैन्यवितर्कणम् ।।९/२८ ।। | प्रेम से अन्धे प्राणी में दीनता का विचार भी नहीं रहता। |
२६९. राजवन्ती सती भूमिः कुतो वा न सुखायते ।।१०/५४ ।। | उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख कैसे नहीं देती ? |
२७०. राज्यभ्रष्टोऽपि तुष्टः स्याल्लब्धप्राणो हि जन्तुक: I३/२० । | राज्य से भ्रष्ट हो जाने पर भी यदि प्राणों की रक्षा हो जाती है तो मनुष्य आनन्दित होता है। |
२७१. रोचते न हि शौण्डाय परपिण्डादिदीनता ।।३/४ ।। | उद्यमशील मनुष्य के लिए दूसरे से उपार्जित धन द्वारा निर्वाह से उत्पन्न दीनता अच्छी नहीं लगती। |
‘ल’
सूक्ति |
अर्थ |
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२७२. लवणाब्धिगतं हि स्यान्नादेयं विफलं जलम् ।।३/१०।। | नदी का मीठा जल भी लवण समुद्र में जाकर बेकार हो जाता है। |
२७३. लाभं लाभमभीच्छा स्यान्न हि तृप्तिः कदाचन ।८/५५॥ | एक वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर दूसरी वस्तु प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है; सन्तोष कभी भी नहीं होता। |
२७४. लोकद्वयहितध्वंसोर्न हि तृष्णारुषोर्भिदा ।।३/२२ ।। | लोकद्वय सम्बन्धी हित के नाशक तृष्णा और क्रोध में कुछ भी अन्तर नहीं है। |
२७५. लोकमालोकसात्कुर्वन्न हि विस्मयते रविः ।।६/३७ ।। | संसार को प्रकाशमय करता हुआ सूर्य गर्वान्वित नहीं होता। |
सूक्ति |
अर्थ |
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२७६. लोको ह्यभिनवप्रिय:।४/३। | लोग नई वस्तु से प्रेम करनेवाले होते हैं। |
‘व’
सूक्ति |
अर्थ |
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२७७. वक्त्रं वक्ति ही मानसम् ।।१/२७ ।। | मुख की आकृति मन के भाव को प्रकट कर देती है। |
२७८. वचनीयाद्धि भीरूत्वं महतां महनीयता।।७/५३।। | निंदाजनक कार्यों में भीरूता होना महापुरुषों की महानता है । |
२७९. वत्सलेषु च मोहः स्याद्वात्सल्यं हि मनोहरम् ।।८/२ ।। | स्नेहीजनों पर प्रेमभाव हो ही जाता है, क्योंकि प्रेमभाव मनोहर होता है। |
२८०. वत्सलै: सह संवासे वत्सरो हि क्षणायते ।।८/३ ।। | प्रियजनों के साथ रहने पर वर्ष भी क्षण के समान लगता है। |
२८१. वपुर्वक्ति हि माहात्म्यं दौरात्म्यमपि तद्विदाम् ।।५/४७ ।। | शरीर के लक्षणों को जाननेवाले शरीर को देखकर ही मनुष्य की सज्जनता और दुर्जनता का निर्णय कर लेते हैं। |
२८२. वपुर्वक्ति हि सुव्यक्तमनुभावमनक्षरम् ।।७/७३ ।। | शब्दोच्चारण के बिना ही शरीर की बनावट मनुष्य के प्रभाव को बताती है। |
२८३. वशिनां हि मनोवृत्ति: स्थान एव हि जायते ।।८/६६ ।। | जितेन्द्रिय पुरुषों के मन की प्रवृत्ति उचित स्थान में ही होती है। |
२८४. व्यवस्था हि सतां शैली साहाय्येऽप्यत्र किं पुनः ।।११/८१।। | महापुरुषों की शैली व्यवस्थित होती है, इसमें सहायता मिल जाए तो फिर कहना ही क्या ? |
२८५. वाञ्छितार्थेऽपि कातर्यं वशिनां न हि दृश्यते ।।८/७२ ।। | जितेन्द्रिय मनुष्य इच्छित पदार्थ को पाने में भी अधीर नहीं होते। |
२८६. वाञ्छिता यदि वाञ्छेयुः ससारैव हि संसृति: ।।९/१।। | जिनको हम चाहते हैं, यदि वे भी हमें चाहें तो संसार भी सारभूत भासित होने लगता है। |
२८७. वार्धिमेव धनार्थी किं गाहते पार्थिवानपि ।।३/११।। | धन का इच्छुक मनुष्य समुद्र की ही यात्रा करता है क्या ? अरे वह तो द्वीप द्वीपान्तरों और राजा-महाराजाओं को भी प्राप्त करता है । |
२८८. विक्रिया हि विमूढानां सम्पदापल्लवादपि ।।५/३३ ।। | मूर्ख को ही अत्यल्प संपत्ति और विपत्ति में हर्ष-विषाद हुआ करते हैं। |
२८९. विचाररूढकृत्यानां व्यभिचार: कुतो भवेत्।९/३१ । | विचारपूर्वक कार्य करने वालों के कार्य में हानि कैसे हो सकती है ? |
२९०. विचार्यैवेतरै: कार्यं कार्यं स्यात्कार्यवेदिभिः ।।८/६० ।। | कार्यकुशल मनुष्य को दूसरों के साथ विचार करके ही कार्य करना चाहिए। |
२९१. विधित्सिते ह्यनुत्पन्ने विरमन्ति न पण्डिताः ।।१०/६।। | जबतक इच्छित कार्य नहीं होता, तबतक बुद्धिमान पुरुष विराम नहीं लेते। |
२९२. विधिर्घटयतीष्टार्थैः स्वयमेव हि देहिनः ।।७/७१ ।। | कर्म इष्ट पदार्थों का प्राणियों से सम्बन्ध स्वयमेव करा देता है। |
२९३. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।२/२६ ।। | विद्वान सब जगह पूजा जाता है। |
२९४. विद्वेष: पक्षपातश्च प्रतिपात्रं च भिद्यते ।।८/२४ ।। | प्रत्येक वस्तु सम्बन्धी राग और द्वेषभाव भिन्न-भिन्न होता है। |
२९५. विनय: खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरञ्जसा ।।७/७७ ।। | गुरु की सच्ची विनय विद्याओं को देनेवाली कामधेनु है। |
२९६. विपच्च सम्पदे हि स्याद्भाग्यं यदि पचेलिमम् ।।८/१९ ।। | यदि पुण्य का उदय हो तो विपत्ति भी सम्पत्ति का कारण बन जाती है। |
२९७. विपदोऽपि हि तद्धीतिर्मूढानां हन्त बाधिका ।।४/२९ ।। | मूर्ख मनुष्यों को विपत्ति का भय विपत्ति से भी अधिक दुःखदायक होता है। |
२९८. विपदो वीतपुण्यानां तिष्ठन्त्येव हि पृष्ठतः ।।१०/३४ । | पुण्यहीन मनुष्यों के पीछे विपत्तियां लगी ही रहती हैं। |
२९९. विपाके हि सतां वाक्यं विश्वसन्त्यविवेकिनः ।।१/३५ ।। | अविवेकी व्यक्ति संकट आने पर सज्जनों की बात का विश्वास करते हैं। |
३००. विवेकभूषितानां हि भूषा दोषाय कल्पते ।७/५। | विवेक से शोभायमान विवेकीजनों के आभूषण दोष रूप ही प्रतीत होते हैं। |
‘व’
सूक्ति | अर्थ |
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३०१. विशेते हि विशेषज्ञो विशेषाकारवीक्षणात् ।।८/३४ ।। | विशेषज्ञ पुरुष विशेषताओं को देखकर सन्देह करने लगते हैं। |
३०२. विशेषज्ञा हि बुध्यन्ते सदसन्तौ कुतश्चन ।।९/२४ ।। | बुद्धिमान किसी न किसी कारण से सत्य-असत्य को जान लेते हैं। |
३०३. विशृङ्खला न हि क्वापि तिष्ठन्तीन्द्रियदन्तिनः ।।८/६३।। | बन्धनरहित इन्द्रियरूपी हाथी किसी भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते। |
३०४. विस्फुलिङ्गेन किं शक्यं दग्धुमार्द्रमपीन्धनम् ।।२/१२।। | क्या अग्नि की चिंगारी मात्र से गीले ईन्धन को जलाया जा सकता है? |
३०५. विषयासक्तचित्तानां गुण: को वा न नश्यति ।।१/१० ।। | विषय में आसक्त पुरुषों के कौन-से गुण नष्ट नहीं होते ? |
३०६. विस्मृतं हि चिरं भुक्तं दुःखं स्यात्सुखलाभतः ।।८/११।। | बहुत काल तक भोगा गया महादुःख सुख की प्राप्ति होते ही विस्मृत होजाता है। |
३०७. वीरेण हि मही भोग्या योग्यतायां च किं पुनः ।।१०/३० ।। | यह पृथ्वी वीर पुरुषों द्वारा ही भोगने योग्य है और यदि उनमें विशेष योग्यता हो तो फिर कहना ही क्या ? |
३०८. वृषला: किं न तुष्यन्ति शालेये बीजवापिनः ।।११/५ ।। | खेत में बीज बोनेवाले किसान क्या सन्तुष्ट नहीं होते ? |
‘श’
सूक्ति | अर्थ |
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३०९. शरण्यं सर्वजीवानां पुण्यमेव हि नापरम् ।।७/३३।। | जीवों का रक्षक एकमात्र पूर्वबद्ध पुण्यही है; और कोई नहीं। |
३१०. शस्तं वस्तु हि भूभुजाम् ।।३/४९।। | राज्य की सर्वोत्तम वस्तु राजाओं की ही होती है। |
३११. शैत्ये जाग्रति किं नु स्यादातपार्ति: कदाचन ।।२/६० ।। | शीत के जागृत होने पर क्या कभी गर्मी का दु:ख होता है ? |
३१२. शोच्याः कथं न रागान्धाये तुवाच्यान्न बिभ्यति ।।७/५० ।। | जो रागान्ध पुरुष अपवाद एवं निन्दा से नहीं डरते, उनकी दशा शोचनीय क्यों न होवे ? |
‘श्र’
सूक्ति | अर्थ |
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३१३. श्रेयांसि बहुविघ्नानीत्येतन्नाधुनाभवत् ।।२/१३।। | कल्याणकारक कार्यों में विघ्न बहुत आते हैं - यह नियम आज का नहीं, अनादि का है। |
‘स’
सूक्ति | अर्थ |
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३१४. सचेतनः कथं नु स्यादकुर्वन्प्रत्युपक्रियाम् ।।५/१४ ।। | प्रत्युपकार नहीं करनेवाला सचेतन कैसे हो सकता है ? |
३१५. सत्यामप्यभिषङ्गासत्यामप्यभिषङ्गार्तौ जागर्त्येव हि पौरुषम्।।१/२८ ।। | अकस्मात् दैवादिजन्य पीड़ा होने पर पुरुषार्थ जगता ही है। |
३१६. सत्यायुषि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् ।।३/१९ ।। | आयुकर्म शेष रहने पर प्राणियों के प्राणों की रक्षा हो ही जाती है। |
३१७. सतां हि प्रह्वतां शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ।।५/१२ ।। | सज्जनों की शान्ति का कारण होनेवाली नम्रता दुर्जनों के लिए घमण्ड का कारण बनती है । |
३१८. सतां हि प्रहृतां शास्ति शालीनामिव पक्वताम् ।।६/४८ ।। | धान्यों के समान महापुरुषों की विनम्रता उनकी योग्यता का परिचय देती है। |
३१९. सति हेतौ विकारस्य तदभावो हिधीरता।२/४०। | विकार के कारण विद्यमान होने पर भी विकारी न होना ही धीरता है। |
३२०. सदसत्वं हि वस्तूनां संसर्गादेव दृश्यते ।।५/३९ ।। | वस्तुओं का अच्छा-बुरापना, अच्छे-बुरे पदार्थों के संसग से ही होता है। |
३२१. सन्निधावपि दीपस्य किं तमिस्र गुहामुखम् ।।१०/६० ।। | दीपक की समीपता होने पर भी क्या गुफा का मुख अन्धकार से युक्त रह सकता है ? |
३२२. सन्निधाने समर्थानां वराको हि परो जनः ।।७/६६ ।। | समर्थ व्यक्ति के सामने अन्य व्यक्ति दीन हो जाता है। |
३२३. सन्निधौ हि स्वबन्धूनां दु:खमुन्मस्तकं भवेत् ।।१/९०।। | हितचिन्तकों का सामीप्य होने पर दु:ख बढ़ ही जाता है। |
३२४. सर्पशङ्काविभीताः किं सर्पास्ये करदायिनः ।।३/१६ ।। | सर्प से भयभीत लोग क्या सर्प के मुँह में हाथ डालते हैं ? |
३२५. सर्पिष्पातेन सप्तार्चिरुदर्चिः सुतरां भवेत् ।।५/३ ।। | अग्नि में घी डालने से अग्नि भड़क उठती है। |
‘स’
सूक्ति | अर्थ |
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३२६. सभयस्नेहसामर्थ्या: स्वाम्यधीना हि किड्कंरा: ।।९/१९।। | नौकर अपने स्वामी से डरते हैं और उनसे स्नेह की भावना भी रखते हैं। |
३२७. सम्पदामापदां चाप्तिर्व्याजेनैव हि केनचित् ।।८/६५ ।। | सम्पत्ति और विपत्ति की प्राप्ति किसी न किसी बहाने से ही होती है। |
३२८. समीहितार्थसंसिद्धौ मनः कस्य न तुष्यति ।।१/१०१॥ | इच्छित कार्य सिद्ध होने पर किसका मन सन्तुष्ट नहीं होता ? |
३२९. समीहितेऽपि साहाय्ये प्रयत्नो हि प्रकृष्यते ।।६/४० ।। | कार्य में सहायक मिलने पर उत्साह बढ़ जाता है। |
३३०. समौ हि नाट्यसभ्यानां सम्पदां च लयोदयौ ।।१०/४० ।। | रंगमंच पर होनेवाली हानि-लाभ का अच्छा-बुरा प्रभाव दर्शकों पर होता ही नहीं।** |
३३१. सर्वथा दग्धबीजाभाः कुतो जीवन्ति निर्घृणाः ।।९/१८ ।। | जले हुए बीज के समान कान्तिवाले सर्वथा दयारहित जीव कैसे जी सकते हैं ? |
३३२. सर्वदा भुज्यमानो हि पर्वतोऽपि परिक्षयी ।।३/५।। | हमेशा भोगा जाने वाला पर्वत भी नष्ट हो जाता है। |
३३३. संसारविषये सद्यः स्वतो: हि मनसो गतिः ।।८/८।। | संसार के विषयों में मन की प्रवृत्ति स्वयमेव होती है। |
३३४. संसारेऽपि यथा योग्याद्भोग्यान्नु सुखी जन: ।४/१। | संसार में अनुकूल भोग-सामग्री से मनुष्य सुखी होता है। |
३३५. संसारोऽपि हि सारः स्याद्दम्पत्योरेककण्ठयोः ।।९/३५ ।। | पति-पत्नी के मतैक्य से संसार भी सारभूत लगता है। |
३३६. संसृतौ व्यवहारस्तु न हि मायविवर्जितः ।।३/२७।। | संसार में मायाचार रहित व्यवहार नहीं होता। |
३३७. सामग्रीविकलं कार्यं न हि लोके विलोकितम् ।।८/५६ ।। | संसार में आवश्यक सामग्री के बिना कार्य नहीं देखा जाता। |
३३८. सुकृतिनामहो वाञ्छा सफलैव हि जायते ।।५/३६ ।। | पुण्यशाली जीवों की इच्छा सफल ही होती है। |
३३९. सुजनेतरलोकोऽयमधुनान हि जायते ।।१०/३६ ।। | संसार में कुछ मनुष्य सज्जनों के और कुछ मनुष्य दुर्जनों के पक्षपाती सदा से हैं। |
३४०. सुतप्राणा हि मातरः ।।८/५४ ।। | माताओं के प्राण पुत्र ही होते हैं। |
३४१. सुधासूते: सुधोत्पत्तिरपि लोके किमद्भुतम् ।।३/५२ ।। | चन्द्रमा से अमृत की उत्पत्ति होती है, क्या इसमें किसी को आश्चर्य है ? |
३४२. सौगन्धिकस्य सौगन्ध्यं शपथात्किं प्रतीयते ।।६/४७ ।। | सुगन्धित नीलकमल की सुगन्ध के लिए शपथ खाने की जरूरत नहीं होती। |
३४३. सौभाग्यं हि सुदुर्लभम् ।।१/८।। | सद्भाग्य की प्राप्ति होना दुर्लभ है। |
३४४. सौभ्रात्रं हि दुरासदम् ।।१/१०७।। | सच्चा भाई मिलना बहुत कठिन है। |
३४५. स्त्रीणामेव हि दुर्मति: ।।३/४०। | स्त्रियों के दुर्बुद्धि ही होती है। |
३४६. स्त्रीणां मौढ़य्ं ही भूषणम् ।।९/३३ । | मूर्खता स्त्रियों का आभूषण है। |
३४७. स्रीरागेणात्र के नाम जगत्यांन प्रतारिताः ।।३/४३ ।। | संसार में ऐसे कौन पुरुष हैं, जो स्त्रियों के राग से नहीं ठगाये गये हैं? |
३४८. स्त्रीष्ववज्ञा हि दुःसहा ।।१/५६ ।। | स्त्रियों की अवज्ञा पुरुषों के लिए असह्य होती है। |
३४९. स्थाने हि कृतिनां गिरः ।।१०/२७ ।। | बुद्धिमान पुरुष उचित स्थान में/समय पर ही बोलते हैं। |
३५०. स्थाने हि बीजवद्दत्तमेकं चापि सहस्रधा ।।७/६।। | अच्छे स्थान में बोया गया एक ही बीज सहस्रगुना फल देता है। |
‘स’
सूक्ति | अर्थ |
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३५१. स्नेहपाशो हि जीवानामासंसारं न मुञ्चति ।।८/२२ ।। | जबतक संसार है, तबतक प्राणियों का स्नेहरूपी बन्धन नहीं छूटता। |
३५२. स्वदेशे हि शशप्रायो बलिष्ठः कुञ्जरादपि ।।२/६४ ।। | अपने स्थान पर खरगोश जैसा तुच्छ पशु भी हाथी से भी बलवान होता है। |
३५३. स्वकार्येषु हि तात्पर्यं स्वभावादेव देहिनाम् ।।९/२५ ।। | मनुष्य को अपने कार्यों में तत्परता स्वभाव से ही हुआ करती है। |
३५४. स्वभावो न हि वार्यते ।।१०/५१।।। | स्वभाव कभी भी बदला नहीं जा सकता। |
३५५. स्वमनीषितनिष्पत्तौ किं न तुष्यन्ति जन्तवः ।।६/३८।। | चिर प्रतीक्षित कार्य की सफलता पर क्या प्राणी आनन्दित नहीं होते? |
३५६. स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं कुलजानां कुतो भवेत् ।।१०/२।। | कुलीन स्त्रियां अपने पति की इच्छा के विरुद्ध प्रवृत्ती नहीं करती। |
३५७. स्वयं देया सती विद्या प्रार्थनायां तु किं पुनः ।।७/७५ ।। | निर्दोष विद्या बिना माँगे ही दूसरों को देना चाहिए; फिर याचना करने पर तो देना ही चाहिए। |
३५८. स्वयं नाशी ही नाशकः ।।१०/५०।। | दूसरे का नाश करनेवाला अपना ही नाश करता है। |
३५९. स्वयं परिणतो दन्ती प्रेरितोऽन्येन किं पुनः ।।१०/९।। | हाथी स्वभाव: वृक्ष आदि उखाड़ने में तत्पर रहता है, फिर यदि कोई उसे उत्तेजित करे तो फिर उसका कहना ही क्या ? |
३६०. स्वस्यैव सफलो यत्न: प्रीतये हि विशेषतः ।।४/४३।। | स्वयं का सफल प्रयत्न विशेष रूप से आनन्दकारी होता है। |
३६१. स्वयं वृण्वन्ति हि स्त्रिय: ।१/११० ॥ | स्त्रियाँ अच्छे वर के स्वयंवर लेती हैं। |
३६२. स्ववधाय हि मूढात्मा कृत्योत्थापनमिच्छति ।।१०/३२ ।। | मूर्ख व्यक्ति स्वयं अपने नाश के लिए बेताल को जगाने की इच्छा करता है। |
३६३. स्वास्थ्ये ह्यदृष्टिपूर्वाश्च कल्पयन्त्येव बन्धुताम् ।।४/२५ ॥। | पहले न देखे हुए मनुष्य सुख के समय भ्रातृत्व जताने लगते हैं। |
‘ह’
सूक्ति | अर्थ |
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३६४. हन्त कापटिका लोके बुधायन्ते हि मायया ।।१०/२१ ।। | खेद है कि कपटी मनुष्य छल-कपट से विद्वानों के समान व्यवहार करते हैं! |
३६५. हन्त क्रूरतमो विधि: ।।१/६३।। | खेद है कि भाग्य बहुत कठोर होता है। |
३६६. हस्तस्थेप्यमृते को वा तिक्तसेवापरायणः ।।११/८२ ।। | हाथ में अमृत आ जाने पर कड़वी वस्तु के सेवन की चाह कौन करता है? |
३६७. हन्तात्मानमपि घ्नन्तः क्रुद्धाः किं किं न कुर्वते ।।२/३८।। | अपने आप को भी नष्ट कर देनेवाले क्रोधी जन क्या-क्या नहीं कर डालते? |
३६८. हितकृत्वं हि मित्रता।५/३१। | मित्र के प्रति हित बुद्धि ही मित्रता है। |
३६९. हेतुच्छलोपलम्भेन जृम्भते हि दुराग्रहः ।।९/९।। | कोई बहाना/निमित्त मिल जाने से मनुष्य का दुराग्रह बढ़ ही जाता है। |
‘त्र’
सूक्ति | अर्थ |
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३७०. त्रिकालज्ञा हि निर्जरा: ।।५/३० ।। | देवगति के देव भूत-भविष्य सम्बन्धी घटनाओं को अवधिज्ञान द्वारा जानते हैं। |
३७१. त्रिलोकी मूल्यरत्नेन दुर्लभ: किं तुषोत्कर: ।।२/३२ ।। | जो रत्न तीन लोक की सम्पदा खरीदने में समर्थ है, उस रत्न से क्या भूसे का ढेर नहीं खरीदा जा सकता? |