‘स’
सूक्ति | अर्थ |
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३५१. स्नेहपाशो हि जीवानामासंसारं न मुञ्चति ।।८/२२ ।। | जबतक संसार है, तबतक प्राणियों का स्नेहरूपी बन्धन नहीं छूटता। |
३५२. स्वदेशे हि शशप्रायो बलिष्ठः कुञ्जरादपि ।।२/६४ ।। | अपने स्थान पर खरगोश जैसा तुच्छ पशु भी हाथी से भी बलवान होता है। |
३५३. स्वकार्येषु हि तात्पर्यं स्वभावादेव देहिनाम् ।।९/२५ ।। | मनुष्य को अपने कार्यों में तत्परता स्वभाव से ही हुआ करती है। |
३५४. स्वभावो न हि वार्यते ।।१०/५१।।। | स्वभाव कभी भी बदला नहीं जा सकता। |
३५५. स्वमनीषितनिष्पत्तौ किं न तुष्यन्ति जन्तवः ।।६/३८।। | चिर प्रतीक्षित कार्य की सफलता पर क्या प्राणी आनन्दित नहीं होते? |
३५६. स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं कुलजानां कुतो भवेत् ।।१०/२।। | कुलीन स्त्रियां अपने पति की इच्छा के विरुद्ध प्रवृत्ती नहीं करती। |
३५७. स्वयं देया सती विद्या प्रार्थनायां तु किं पुनः ।।७/७५ ।। | निर्दोष विद्या बिना माँगे ही दूसरों को देना चाहिए; फिर याचना करने पर तो देना ही चाहिए। |
३५८. स्वयं नाशी ही नाशकः ।।१०/५०।। | दूसरे का नाश करनेवाला अपना ही नाश करता है। |
३५९. स्वयं परिणतो दन्ती प्रेरितोऽन्येन किं पुनः ।।१०/९।। | हाथी स्वभाव: वृक्ष आदि उखाड़ने में तत्पर रहता है, फिर यदि कोई उसे उत्तेजित करे तो फिर उसका कहना ही क्या ? |
३६०. स्वस्यैव सफलो यत्न: प्रीतये हि विशेषतः ।।४/४३।। | स्वयं का सफल प्रयत्न विशेष रूप से आनन्दकारी होता है। |
३६१. स्वयं वृण्वन्ति हि स्त्रिय: ।१/११० ॥ | स्त्रियाँ अच्छे वर के स्वयंवर लेती हैं। |
३६२. स्ववधाय हि मूढात्मा कृत्योत्थापनमिच्छति ।।१०/३२ ।। | मूर्ख व्यक्ति स्वयं अपने नाश के लिए बेताल को जगाने की इच्छा करता है। |
३६३. स्वास्थ्ये ह्यदृष्टिपूर्वाश्च कल्पयन्त्येव बन्धुताम् ।।४/२५ ॥। | पहले न देखे हुए मनुष्य सुख के समय भ्रातृत्व जताने लगते हैं। |
‘ह’
सूक्ति | अर्थ |
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३६४. हन्त कापटिका लोके बुधायन्ते हि मायया ।।१०/२१ ।। | खेद है कि कपटी मनुष्य छल-कपट से विद्वानों के समान व्यवहार करते हैं! |
३६५. हन्त क्रूरतमो विधि: ।।१/६३।। | खेद है कि भाग्य बहुत कठोर होता है। |
३६६. हस्तस्थेप्यमृते को वा तिक्तसेवापरायणः ।।११/८२ ।। | हाथ में अमृत आ जाने पर कड़वी वस्तु के सेवन की चाह कौन करता है? |
३६७. हन्तात्मानमपि घ्नन्तः क्रुद्धाः किं किं न कुर्वते ।।२/३८।। | अपने आप को भी नष्ट कर देनेवाले क्रोधी जन क्या-क्या नहीं कर डालते? |
३६८. हितकृत्वं हि मित्रता।५/३१। | मित्र के प्रति हित बुद्धि ही मित्रता है। |
३६९. हेतुच्छलोपलम्भेन जृम्भते हि दुराग्रहः ।।९/९।। | कोई बहाना/निमित्त मिल जाने से मनुष्य का दुराग्रह बढ़ ही जाता है। |
‘त्र’
सूक्ति | अर्थ |
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३७०. त्रिकालज्ञा हि निर्जरा: ।।५/३० ।। | देवगति के देव भूत-भविष्य सम्बन्धी घटनाओं को अवधिज्ञान द्वारा जानते हैं। |
३७१. त्रिलोकी मूल्यरत्नेन दुर्लभ: किं तुषोत्कर: ।।२/३२ ।। | जो रत्न तीन लोक की सम्पदा खरीदने में समर्थ है, उस रत्न से क्या भूसे का ढेर नहीं खरीदा जा सकता? |