सूक्ति |
अर्थ |
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२६. अपदानमशक्तानामद्भुताय हि जायते ।।७/६५।। | स्वयं के लिए अशक्य कार्य दूसरों द्वारा कर दिया जाना असमर्थ लोगों को आश्चर्य के लिए होता है। |
२७. अपदोषानुषङ्गा ही करुणा कृति सम्भवा ।।७/३४। | विद्वानों की करुणा निर्दोष होती है। |
२८. अपश्चिमफलं वक्तुं निश्चितं हि हितार्थीनः ।।७/५४। | दूसरों का हित चाहनेवाले सज्जन पुरुष निश्चित रूप से सर्वोत्तम फलदायक बात (तत्वज्ञान) ही कहना चाहते है। |
२९. अपुष्कला हि विद्या स्यादवज्ञैकफला क्वचित् ।।३/४४। | अपूर्ण ज्ञान अपमान का फल देनेवाला होता है। |
३०. अप्राप्ते हि रुचि: स्त्रीणां न तु प्राप्ते कदाचन ।।७/२५।। | स्त्रियों की रुचि अप्राप्त पुरुष में होती है, सहज प्राप्त पति में नहीं। |
३१. अमित्रो हि कलत्रं च क्षत्रियाणां किमन्यत् ।।८/५९ ।। | क्षत्रियों (राजाओं) के लिए अपनी स्त्री ही शत्रु हो जाती है तो अन्य लोगों की तो बात ही क्या ? |
३२. अमूलस्य कुत: सुखम् ।।१/१७।। | मूल हेतु के बिना सुख कैसे हो सकता है? |
३३. अमूलस्य कुत: स्थितिः ।।२/३३।। | जड़रहित वृक्ष की स्थिति कैसे सम्भव है? |
३४. अम्बामदृष्टपूर्वां च द्रष्टुं को नाम नेच्छति ।।८/४९ ।। | ऐसा कौन व्यक्ति है जो पूर्व में न देखी गई माँ को देखने की इच्छा नहीं करता? |
३५. अयुक्तं खलु दुष्टं श्रुतं वा विस्मयावहम् ।।८/७।। | जब मनुष्य अनहोनी/असम्भव जैसी वस्तु को देखता है या सुनता है, तब उसे आश्चर्य होता है। |
३६. अलङ्घयं हि पितुर्वाक्यमपत्यैः पथ्यकांक्षिभिः ।।५/१०।। | अपना हित चाहनेवाले पुत्र पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। |
३७. अलं काकसहस्रेभ्य एकैव हि दृषद् भवेत् ।।३/५१ ।।। | हजारों कौओं को उड़ाने के लिए एक ही पत्थर पर्याप्त होता है। |
३८.अवश्यं हानुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।१/१०४ ।। | पूर्व में बाँधा हुआ शुभाशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ता है। |
३९. अविचारितरम्यं हि रागान्धानां विचेष्टितम् ।।१/१३ । | राग से अन्धे पुरुषों की चेष्टायें बिना विचार के ही अच्छी लगती हैं। |
४०. अविवेकिजनानां हि सतां वाक्यमसङ्गतम् ।।९/१७।। | अविवेकी लोगों के लिए सज्जनों के वचन असंगत लगते हैं। |
४१. अविशेषपरिज्ञाने न हि लोकोऽनुरज्यते ।।१०/५८ ।। | छोटे-बड़े सभी को समान मानने पर जनसमुदाय सन्तुष्ट नहीं हो सकता। |
४२. अशक्तैः कर्तुमारब्धं सुकरं किं न दुष्करम् ।।७/६३।। | असमर्थ मनुष्य को सरल काम भी कठिन लगता है। |
४३. असतां हि विनम्रत्वं धनुषामिव भीषणम् ।।१०/१४ ।। | दुर्जनों की नम्रता धनुष की तरह भयंकर होती है। |
४४. असमानकृतावज्ञा पूज्यानां हि सुदुःसहा ।।२/६३ ।। | छोटे लोगों द्वारा किया गया अपमान बड़े लोगों को असह्य होता है। |
४५. असुमतामसुभ्योऽपि गरीयो हि भृशं धनम्।।२/७२। | मनुष्यों को धन अपने प्राणों से भी प्यारा होता है। |
४६. अस्वप्नपूर्वं हि जीवानां न हि जातु शुभाशुभम् ।।१/२१।। | मनुष्यों को स्वप्न देखे बिना शुभ और अशुभ कार्य नहीं होता। |
४७. अहो पुण्यस्य वैभवम् ।।२/२२ ।। | पुण्य का वैभव आश्चर्यजनक होता है। |
‘आ’
सूक्ति |
अर्थ |
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४८. आत्मदुर्लभमन्येन सुलभं हि विलोचनम् ।१०/३।। | अपने लिए दुष्प्राप्य वस्तु दूसरे को सहजता से मिल जाए तो मनुष्य को आश्चर्य होता है। |
४९. आत्मनीने विनात्मनमञ्जसा न हि कश्चन ।।१०/३१ ।। | वास्तव में अपने को छोड़कर अन्य कोई अपना हित करनेवाला नहीं है। |
५०. आमोहो देहिनामास्थामस्थानेऽपि हि पातयेत् ।।१०/२४।। | जबतक मोह है, तबतक वह जीवों को अस्थान में भी प्रवृत्ति कराता है। |