सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

‘स’

सूक्ति अर्थ
३२६. सभयस्नेहसामर्थ्या: स्वाम्यधीना हि किड्कंरा: ।।९/१९।। नौकर अपने स्वामी से डरते हैं और उनसे स्नेह की भावना भी रखते हैं।
३२७. सम्पदामापदां चाप्तिर्व्याजेनैव हि केनचित् ।।८/६५ ।। सम्पत्ति और विपत्ति की प्राप्ति किसी न किसी बहाने से ही होती है।
३२८. समीहितार्थसंसिद्धौ मनः कस्य न तुष्यति ।।१/१०१॥ इच्छित कार्य सिद्ध होने पर किसका मन सन्तुष्ट नहीं होता ?
३२९. समीहितेऽपि साहाय्ये प्रयत्नो हि प्रकृष्यते ।।६/४० ।। कार्य में सहायक मिलने पर उत्साह बढ़ जाता है।
३३०. समौ हि नाट्यसभ्यानां सम्पदां च लयोदयौ ।।१०/४० ।। रंगमंच पर होनेवाली हानि-लाभ का अच्छा-बुरा प्रभाव दर्शकों पर होता ही नहीं।**
३३१. सर्वथा दग्धबीजाभाः कुतो जीवन्ति निर्घृणाः ।।९/१८ ।। जले हुए बीज के समान कान्तिवाले सर्वथा दयारहित जीव कैसे जी सकते हैं ?
३३२. सर्वदा भुज्यमानो हि पर्वतोऽपि परिक्षयी ।।३/५।। हमेशा भोगा जाने वाला पर्वत भी नष्ट हो जाता है।
३३३. संसारविषये सद्यः स्वतो: हि मनसो गतिः ।।८/८।। संसार के विषयों में मन की प्रवृत्ति स्वयमेव होती है।
३३४. संसारेऽपि यथा योग्याद्भोग्यान्नु सुखी जन: ।४/१। संसार में अनुकूल भोग-सामग्री से मनुष्य सुखी होता है।
३३५. संसारोऽपि हि सारः स्याद्दम्पत्योरेककण्ठयोः ।।९/३५ ।। पति-पत्नी के मतैक्य से संसार भी सारभूत लगता है।
३३६. संसृतौ व्यवहारस्तु न हि मायविवर्जितः ।।३/२७।। संसार में मायाचार रहित व्यवहार नहीं होता।
३३७. सामग्रीविकलं कार्यं न हि लोके विलोकितम् ।।८/५६ ।। संसार में आवश्यक सामग्री के बिना कार्य नहीं देखा जाता।
३३८. सुकृतिनामहो वाञ्छा सफलैव हि जायते ।।५/३६ ।। पुण्यशाली जीवों की इच्छा सफल ही होती है।
३३९. सुजनेतरलोकोऽयमधुनान हि जायते ।।१०/३६ ।। संसार में कुछ मनुष्य सज्जनों के और कुछ मनुष्य दुर्जनों के पक्षपाती सदा से हैं।
३४०. सुतप्राणा हि मातरः ।।८/५४ ।। माताओं के प्राण पुत्र ही होते हैं।
३४१. सुधासूते: सुधोत्पत्तिरपि लोके किमद्भुतम् ।।३/५२ ।। चन्द्रमा से अमृत की उत्पत्ति होती है, क्या इसमें किसी को आश्चर्य है ?
३४२. सौगन्धिकस्य सौगन्ध्यं शपथात्किं प्रतीयते ।।६/४७ ।। सुगन्धित नीलकमल की सुगन्ध के लिए शपथ खाने की जरूरत नहीं होती।
३४३. सौभाग्यं हि सुदुर्लभम् ।।१/८।। सद्भाग्य की प्राप्ति होना दुर्लभ है।
३४४. सौभ्रात्रं हि दुरासदम् ।।१/१०७।। सच्चा भाई मिलना बहुत कठिन है।
३४५. स्त्रीणामेव हि दुर्मति: ।।३/४०। स्त्रियों के दुर्बुद्धि ही होती है।
३४६. स्त्रीणां मौढ़य्ं ही भूषणम् ।।९/३३ । मूर्खता स्त्रियों का आभूषण है।
३४७. स्रीरागेणात्र के नाम जगत्यांन प्रतारिताः ।।३/४३ ।। संसार में ऐसे कौन पुरुष हैं, जो स्त्रियों के राग से नहीं ठगाये गये हैं?
३४८. स्त्रीष्ववज्ञा हि दुःसहा ।।१/५६ ।। स्त्रियों की अवज्ञा पुरुषों के लिए असह्य होती है।
३४९. स्थाने हि कृतिनां गिरः ।।१०/२७ ।। बुद्धिमान पुरुष उचित स्थान में/समय पर ही बोलते हैं।
३५०. स्थाने हि बीजवद्दत्तमेकं चापि सहस्रधा ।।७/६।। अच्छे स्थान में बोया गया एक ही बीज सहस्रगुना फल देता है।

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