सूक्ति |
अर्थ |
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२५१. मात्सर्यात्किंन नश्यति ।।४/१७ ।। | ईर्ष्या भाव से क्या नष्ट नहीं होता? |
२५२. मायामयी हि नारीणां मनोवृत्तिर्निसर्गतः ।।७/४९ ।। | स्त्रियों की मनोवृत्ति स्वभाव से ही मायामयी होती है। |
२५३. मित्रं धात्रीपतिं लोके कोऽपरः पश्यतः सुखी ।।३/३६ । | संसार में मित्रस्वरूप राजा को देखनेवाले की अपेक्षा दूसरा कौन सुखी हो सकता है ? |
२५४. मुक्तिद्वारकवाटस्य भेदिना किं न भिद्यते ।।६/३६ ।। | मोक्ष के द्वार खोलनेवाले के द्वारा किसका भेदन नहीं किया जा सकता ? |
२५५. मुक्तिप्रदेन मन्त्रेण देवत्वं न हि दुर्लभम् ।।४/१३ ।। | मुक्ति-प्रदाता महामंत्र से देवपना प्राप्त होना दुर्लभ नहीं है। |
२५६. मुखदानं हि मुख्यानां लघूनामभिषेचनम् ।७/९। | महापुरुषों का सामान्य व्यक्ति से प्रीतिपूर्वक बोलना उनके राज्याभिषेक के समान होता है। |
२५७. मुग्धा: श्रुतविनिश्चेया न हि युक्तिवितर्किण: ।८/५८ । | भोले मनुष्य सुनने से बात का निश्चय करनेवाले होते हैं; तर्क और युक्तियों से विचार करनेवाले नहीं। |
२५८. मुग्धेष्वतिविदग्धानां युक्तं हि बलकीर्तनम् ।।८/५७।। | बुद्धिमानों का भोले मनुष्यों के सामने बलादि गुणों की प्रशंसा करना उचित है। |
२५९. मूढानां हन्त कोपाग्निरस्थानेऽपि हि वर्धते ।।५/७ ।। | खेद है कि मूर्ख पुरुषों की क्रोधाग्नि अस्थान में भी बढ़ती है! |
‘य’
सूक्ति |
अर्थ |
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२६०. यदशोकः प्रतिक्रिया ।।२/६८।। | शोक नहीं करना ही शोक का प्रतिकार है। |
२६१. यदि रत्नेऽपि मालिन्यं न हि तत्कृच्छशोधनम् ।।११/२०।। | रत्न पर आई हुई मलिनता सरलता से दूर करने योग्य होती है। |
२६२. याञ्चायां फलमूकायां न हि जीवन्ति मानिनः ।।९/२६।। | याचना निष्फल हो जाने पर अभिमानी लोग जीवित नहीं रहते । |
२६३. योग्यकालप्रतीक्षा हि प्रेक्षापूर्वविधायिनः ।।९/२२ ।। | विचारपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य उचित समय की प्रतीक्षा करने वाले होते हैं। |
२६४. योग्यायोग्यविचारोऽयं रागान्धानां कुतो भवेत् ।।४/३८ ।। | रागान्ध मनुष्यों को उचित-अनुचित का विचार कहाँ से हो सकता है? |
‘र’
सूक्ति |
अर्थ |
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२६५. रक्तेन दूषितं वस्त्र नहि रक्तेन शुध्यति ।।६/१७ ।। | खून से मलिन हुआ वस्त्र खून से ही धोने पर निर्मल नहीं होता। |
२६६. रागद्वेषादि तेनैव बलिष्ठेन हि बाध्यते ।।८/५० ।। | अति बलवान रागादि से ही सामान्य राग-द्वेष आदि बाधित होते हैं। |
२६७. रागान्धानां वसन्तो हि बन्धुरग्नेरिवानिल: ।४/२॥ | राग से अन्धे पुरुषों के लिए वसन्त ऋतु अग्नि को प्रज्ज्वलित करने में पवन की तरह मित्र है। |
२६८. रागान्धे हि न जागर्ति याञ्चादैन्यवितर्कणम् ।।९/२८ ।। | प्रेम से अन्धे प्राणी में दीनता का विचार भी नहीं रहता। |
२६९. राजवन्ती सती भूमिः कुतो वा न सुखायते ।।१०/५४ ।। | उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख कैसे नहीं देती ? |
२७०. राज्यभ्रष्टोऽपि तुष्टः स्याल्लब्धप्राणो हि जन्तुक: I३/२० । | राज्य से भ्रष्ट हो जाने पर भी यदि प्राणों की रक्षा हो जाती है तो मनुष्य आनन्दित होता है। |
२७१. रोचते न हि शौण्डाय परपिण्डादिदीनता ।।३/४ ।। | उद्यमशील मनुष्य के लिए दूसरे से उपार्जित धन द्वारा निर्वाह से उत्पन्न दीनता अच्छी नहीं लगती। |
‘ल’
सूक्ति |
अर्थ |
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२७२. लवणाब्धिगतं हि स्यान्नादेयं विफलं जलम् ।।३/१०।। | नदी का मीठा जल भी लवण समुद्र में जाकर बेकार हो जाता है। |
२७३. लाभं लाभमभीच्छा स्यान्न हि तृप्तिः कदाचन ।८/५५॥ | एक वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर दूसरी वस्तु प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है; सन्तोष कभी भी नहीं होता। |
२७४. लोकद्वयहितध्वंसोर्न हि तृष्णारुषोर्भिदा ।।३/२२ ।। | लोकद्वय सम्बन्धी हित के नाशक तृष्णा और क्रोध में कुछ भी अन्तर नहीं है। |
२७५. लोकमालोकसात्कुर्वन्न हि विस्मयते रविः ।।६/३७ ।। | संसार को प्रकाशमय करता हुआ सूर्य गर्वान्वित नहीं होता। |