सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

‘न’

सूक्ति
अर्थ
१५१. न हि भेद्यं मन: स्त्रिया: ।। ४/२७।। स्त्रियों का मन भेद्य नहीं है।
१५२. न हि मातुः सजीवेन सोढव्या स्याद्दुरासिका ।।८/६१ ।। माता की दुखी अवस्था किसी भी सचेतन के लिए सह्य नहीं होती।
१५३. न हि मुग्धा सतां वाक्यं विश्वसन्ति कदाचन ।।७/२।। भोले लोग सज्जनों की बात का कभी-कभी विश्वास नहीं करते ।
१५४. न हि रक्षितुमिच्छन्तो निर्दहन्ति फलद्रुमम् ।।१/२९ ।। फल सहित वृक्ष के रक्षक उस वृक्ष को नहीं जलाते।
१५५. न हि वारणपर्याणं भर्तुं शक्तो वनायुजः ।।७/२० ।। शक्तिशाली घोड़ा हाथी जितना भार ढोने में समर्थ नहीं होता।
१५६. न हि वारयितुं शक्यं पौरुषेण पुराकृतम् ।।५/११ ॥ पूर्वकृत दुष्कर्म का पुरुषार्थ से निवारण करना सम्भव नहीं।
१५७. न हि वेद्यो विपत्क्षण: ।।३/१३।। आपत्ति का समय अज्ञात होता है।
१५८. न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवत् ।।२/४९ ।। पदार्थों के विनाश के समान उनका उत्पन्न करना सरल नहीं है।
१५९. न हि सन्तीह जन्तूनामपाये सति बान्धवाः ।।४/३० ।। दुनिया में आपत्ति आ जाने पर प्राणियों का कोई सहायक नहीं रहता।
१६०. न हि सोढव्यतां याति तिरश्चां वा तिरस्क्रिया ।।५/२।। तिर्यञ्चों को भी अपना अपमान सह्य नहीं होता।
१६१. न हि स्थाल्यादिभिः साध्यमन्नमन्यैरतण्डुलैः ।।६/१८ ।। चावल रूप उपादान कारण बिना मात्र बटलोई आदि निमित्त कारणों से साध्यभूत पका चावल प्राप्त नहीं हो सकता।
१६२. न हि स्ववीर्यगुप्तानां भीति: केसरिणामिव ।।५/३२ ।। पराक्रमी सिंह के समान स्वपराक्रम से ही रक्षित पुरुषों को भय नहीं रहता।
१६३. न ह्यकालकृतं कर्म कार्यनिष्पादनक्षमम् ।।४/२३ ।। असमय में किया गया परिश्रम कार्यकारी नहीं होता।
१६४. न ह्यङ्गलिरसाहाय्या स्वयं शब्दायतेतराम् ।१/६४। एक ही उंगली से चुटकी नहीं बजती।।
१६५. न ह्यत्र रोचते न्यायमीर्ष्यादूषितचेतसे ।।४/२५ ।। ईर्ष्या से मलिन चित्तवाले व्यक्ति को सच्ची बात भी अच्छी नहीं लगती।
१६६. न ह्यनिष्टेष्टसंयोगवियोगाभमरुन्तुदम् ।।४/२८ ।। अनिष्ट के संयोग और इष्ट के वियोग के समान और कोई पीड़ा देनेवाला नहीं।
१६७. न ह्यमन्त्रं विनिश्चेयं निश्चिते च न मन्त्रणम् ।।१०/१० ।। बिना विचार किये कोई भी कार्य निश्चित नहीं करना चाहिए तथा निश्चित हो जाने पर पुनः विचार नहीं करना चाहिए।
१६८. न ह्ययोग्ये स्पृहा सताम् ।।२/७४ । सज्जन पुरुष की इच्छा अनुचित पदार्थ में नहीं होती।
१६९. न ह्यारोढुमधिश्रेणिं यौगपद्येन पार्यते ।।७/२१ ।। ऊँची नसैनी पर एक ही साथ चढ़ने में कोई समर्थ नहीं है।
१७०. न ह्मासक्त्या तु सापेक्षो भानु: पद्मविकासने ।।१०/४४।। सूर्य कमलों को खिलाने के बाद अनासक्ति से अस्पताल की ओर जाता है।
१७१. न ह्यसत्यं सतां वचः ।।९/१६।। सज्जनों के वचन असत्य नहीं होते।
१७२. न ह्यस्थानेऽपि रुट् सताम् ।।१०/५५ ।। सज्जनों का क्रोध अनुचित स्थान में नहीं होता।
१७३. नादाने किन्तु दाने हि सतां तुष्यति मानसम् ।।७/३० ।। सज्जन पुरुष दान देने में प्रसन्न होते हैं, लेने में नहीं।
१७४. निरङ्कुशं हि जीवानामैहिकोपायचिन्तनम् ।।३/३ ।। मनुष्यों के इस लोक सम्बन्धी आजीविका के उपाय का चिन्तन निराबाध ही हो जाता है।
१७५. निर्गमे चाप्रवेशे च धाराबन्धे कुतो जलम् ।११/६४। सरोवर में से संचित जल के निकल जाने पर और नवीन जल के नहीं आने पर उसमें पानी कैसे रह सकता है?

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