सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

‘व’

सूक्ति अर्थ
३०१. विशेते हि विशेषज्ञो विशेषाकारवीक्षणात् ।।८/३४ ।। विशेषज्ञ पुरुष विशेषताओं को देखकर सन्देह करने लगते हैं।
३०२. विशेषज्ञा हि बुध्यन्ते सदसन्तौ कुतश्चन ।।९/२४ ।। बुद्धिमान किसी न किसी कारण से सत्य-असत्य को जान लेते हैं।
३०३. विशृङ्खला न हि क्वापि तिष्ठन्तीन्द्रियदन्तिनः ।।८/६३।। बन्धनरहित इन्द्रियरूपी हाथी किसी भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते।
३०४. विस्फुलिङ्गेन किं शक्यं दग्धुमार्द्रमपीन्धनम् ।।२/१२।। क्या अग्नि की चिंगारी मात्र से गीले ईन्धन को जलाया जा सकता है?
३०५. विषयासक्तचित्तानां गुण: को वा न नश्यति ।।१/१० ।। विषय में आसक्त पुरुषों के कौन-से गुण नष्ट नहीं होते ?
३०६. विस्मृतं हि चिरं भुक्तं दुःखं स्यात्सुखलाभतः ।।८/११।। बहुत काल तक भोगा गया महादुःख सुख की प्राप्ति होते ही विस्मृत होजाता है।
३०७. वीरेण हि मही भोग्या योग्यतायां च किं पुनः ।।१०/३० ।। यह पृथ्वी वीर पुरुषों द्वारा ही भोगने योग्य है और यदि उनमें विशेष योग्यता हो तो फिर कहना ही क्या ?
३०८. वृषला: किं न तुष्यन्ति शालेये बीजवापिनः ।।११/५ ।। खेत में बीज बोनेवाले किसान क्या सन्तुष्ट नहीं होते ?

‘श’

सूक्ति अर्थ
३०९. शरण्यं सर्वजीवानां पुण्यमेव हि नापरम् ।।७/३३।। जीवों का रक्षक एकमात्र पूर्वबद्ध पुण्यही है; और कोई नहीं।
३१०. शस्तं वस्तु हि भूभुजाम् ।।३/४९।। राज्य की सर्वोत्तम वस्तु राजाओं की ही होती है।
३११. शैत्ये जाग्रति किं नु स्यादातपार्ति: कदाचन ।।२/६० ।। शीत के जागृत होने पर क्या कभी गर्मी का दु:ख होता है ?
३१२. शोच्याः कथं न रागान्धाये तुवाच्यान्न बिभ्यति ।।७/५० ।। जो रागान्ध पुरुष अपवाद एवं निन्दा से नहीं डरते, उनकी दशा शोचनीय क्यों न होवे ?

‘श्र’

सूक्ति अर्थ
३१३. श्रेयांसि बहुविघ्नानीत्येतन्नाधुनाभवत् ।।२/१३।। कल्याणकारक कार्यों में विघ्न बहुत आते हैं - यह नियम आज का नहीं, अनादि का है।

‘स’

सूक्ति अर्थ
३१४. सचेतनः कथं नु स्यादकुर्वन्प्रत्युपक्रियाम् ।।५/१४ ।। प्रत्युपकार नहीं करनेवाला सचेतन कैसे हो सकता है ?
३१५. सत्यामप्यभिषङ्गासत्यामप्यभिषङ्गार्तौ जागर्त्येव हि पौरुषम्।।१/२८ ।। अकस्मात् दैवादिजन्य पीड़ा होने पर पुरुषार्थ जगता ही है।
३१६. सत्यायुषि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् ।।३/१९ ।। आयुकर्म शेष रहने पर प्राणियों के प्राणों की रक्षा हो ही जाती है।
३१७. सतां हि प्रह्वतां शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ।।५/१२ ।। सज्जनों की शान्ति का कारण होनेवाली नम्रता दुर्जनों के लिए घमण्ड का कारण बनती है ।
३१८. सतां हि प्रहृतां शास्ति शालीनामिव पक्वताम् ।।६/४८ ।। धान्यों के समान महापुरुषों की विनम्रता उनकी योग्यता का परिचय देती है।
३१९. सति हेतौ विकारस्य तदभावो हिधीरता।२/४०। विकार के कारण विद्यमान होने पर भी विकारी न होना ही धीरता है।
३२०. सदसत्वं हि वस्तूनां संसर्गादेव दृश्यते ।।५/३९ ।। वस्तुओं का अच्छा-बुरापना, अच्छे-बुरे पदार्थों के संसग से ही होता है।
३२१. सन्निधावपि दीपस्य किं तमिस्र गुहामुखम् ।।१०/६० ।। दीपक की समीपता होने पर भी क्या गुफा का मुख अन्धकार से युक्त रह सकता है ?
३२२. सन्निधाने समर्थानां वराको हि परो जनः ।।७/६६ ।। समर्थ व्यक्ति के सामने अन्य व्यक्ति दीन हो जाता है।
३२३. सन्निधौ हि स्वबन्धूनां दु:खमुन्मस्तकं भवेत् ।।१/९०।। हितचिन्तकों का सामीप्य होने पर दु:ख बढ़ ही जाता है।
३२४. सर्पशङ्काविभीताः किं सर्पास्ये करदायिनः ।।३/१६ ।। सर्प से भयभीत लोग क्या सर्प के मुँह में हाथ डालते हैं ?
३२५. सर्पिष्पातेन सप्तार्चिरुदर्चिः सुतरां भवेत् ।।५/३ ।। अग्नि में घी डालने से अग्नि भड़क उठती है।

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