सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

सूक्ति
अर्थ
२७६. लोको ह्यभिनवप्रिय:।४/३। लोग नई वस्तु से प्रेम करनेवाले होते हैं।

‘व’

सूक्ति
अर्थ
२७७. वक्त्रं वक्ति ही मानसम् ।।१/२७ ।। मुख की आकृति मन के भाव को प्रकट कर देती है।
२७८. वचनीयाद्धि भीरूत्वं महतां महनीयता।।७/५३।। निंदाजनक कार्यों में भीरूता होना महापुरुषों की महानता है ।
२७९. वत्सलेषु च मोहः स्याद्वात्सल्यं हि मनोहरम् ।।८/२ ।। स्नेहीजनों पर प्रेमभाव हो ही जाता है, क्योंकि प्रेमभाव मनोहर होता है।
२८०. वत्सलै: सह संवासे वत्सरो हि क्षणायते ।।८/३ ।। प्रियजनों के साथ रहने पर वर्ष भी क्षण के समान लगता है।
२८१. वपुर्वक्ति हि माहात्म्यं दौरात्म्यमपि तद्विदाम् ।।५/४७ ।। शरीर के लक्षणों को जाननेवाले शरीर को देखकर ही मनुष्य की सज्जनता और दुर्जनता का निर्णय कर लेते हैं।
२८२. वपुर्वक्ति हि सुव्यक्तमनुभावमनक्षरम् ।।७/७३ ।। शब्दोच्चारण के बिना ही शरीर की बनावट मनुष्य के प्रभाव को बताती है।
२८३. वशिनां हि मनोवृत्ति: स्थान एव हि जायते ।।८/६६ ।। जितेन्द्रिय पुरुषों के मन की प्रवृत्ति उचित स्थान में ही होती है।
२८४. व्यवस्था हि सतां शैली साहाय्येऽप्यत्र किं पुनः ।।११/८१।। महापुरुषों की शैली व्यवस्थित होती है, इसमें सहायता मिल जाए तो फिर कहना ही क्या ?
२८५. वाञ्छितार्थेऽपि कातर्यं वशिनां न हि दृश्यते ।।८/७२ ।। जितेन्द्रिय मनुष्य इच्छित पदार्थ को पाने में भी अधीर नहीं होते।
२८६. वाञ्छिता यदि वाञ्छेयुः ससारैव हि संसृति: ।।९/१।। जिनको हम चाहते हैं, यदि वे भी हमें चाहें तो संसार भी सारभूत भासित होने लगता है।
२८७. वार्धिमेव धनार्थी किं गाहते पार्थिवानपि ।।३/११।। धन का इच्छुक मनुष्य समुद्र की ही यात्रा करता है क्या ? अरे वह तो द्वीप द्वीपान्तरों और राजा-महाराजाओं को भी प्राप्त करता है ।
२८८. विक्रिया हि विमूढानां सम्पदापल्लवादपि ।।५/३३ ।। मूर्ख को ही अत्यल्प संपत्ति और विपत्ति में हर्ष-विषाद हुआ करते हैं।
२८९. विचाररूढकृत्यानां व्यभिचार: कुतो भवेत्।९/३१ । विचारपूर्वक कार्य करने वालों के कार्य में हानि कैसे हो सकती है ?
२९०. विचार्यैवेतरै: कार्यं कार्यं स्यात्कार्यवेदिभिः ।।८/६० ।। कार्यकुशल मनुष्य को दूसरों के साथ विचार करके ही कार्य करना चाहिए।
२९१. विधित्सिते ह्यनुत्पन्ने विरमन्ति न पण्डिताः ।।१०/६।। जबतक इच्छित कार्य नहीं होता, तबतक बुद्धिमान पुरुष विराम नहीं लेते।
२९२. विधिर्घटयतीष्टार्थैः स्वयमेव हि देहिनः ।।७/७१ ।। कर्म इष्ट पदार्थों का प्राणियों से सम्बन्ध स्वयमेव करा देता है।
२९३. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।२/२६ ।। विद्वान सब जगह पूजा जाता है।
२९४. विद्वेष: पक्षपातश्च प्रतिपात्रं च भिद्यते ।।८/२४ ।। प्रत्येक वस्तु सम्बन्धी राग और द्वेषभाव भिन्न-भिन्न होता है।
२९५. विनय: खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरञ्जसा ।।७/७७ ।। गुरु की सच्ची विनय विद्याओं को देनेवाली कामधेनु है।
२९६. विपच्च सम्पदे हि स्याद्भाग्यं यदि पचेलिमम् ।।८/१९ ।। यदि पुण्य का उदय हो तो विपत्ति भी सम्पत्ति का कारण बन जाती है।
२९७. विपदोऽपि हि तद्धीतिर्मूढानां हन्त बाधिका ।।४/२९ ।। मूर्ख मनुष्यों को विपत्ति का भय विपत्ति से भी अधिक दुःखदायक होता है।
२९८. विपदो वीतपुण्यानां तिष्ठन्त्येव हि पृष्ठतः ।।१०/३४ । पुण्यहीन मनुष्यों के पीछे विपत्तियां लगी ही रहती हैं।
२९९. विपाके हि सतां वाक्यं विश्वसन्त्यविवेकिनः ।।१/३५ ।। अविवेकी व्यक्ति संकट आने पर सज्जनों की बात का विश्वास करते हैं।
३००. विवेकभूषितानां हि भूषा दोषाय कल्पते ।७/५। विवेक से शोभायमान विवेकीजनों के आभूषण दोष रूप ही प्रतीत होते हैं।

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