सूक्ति |
अर्थ |
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१२६. दुखस्यानन्तरं सौख्यं ततो दुःखं हि देहिनाम् ।।४/३६।l | प्राणियों को दु:ख के बाद सुख और सुख के बाद दु:ख होता ही रहता है। |
१२७. दुःखस्यानन्तरं सौख्यमतिमात्रं हि देहिनाम् ।।३/३५।। | प्राणियों को दु:ख के बाद का सुख अत्यधिक अच्छा लगता है। |
१२८. दुःखार्थोऽपि सुखार्थो हि तत्त्वज्ञानधने सति ।।३/२१ ।। | तत्व ज्ञान रूपी धन के होने पर दु:खदायक पदार्थ भी सुख का हेतु होता है। |
१२९. दुर्जनाग्रे हि सौजन्यं कर्दमे पतितं पयः ।।१०/१५ ।। | दुष्ट मनुष्य के सामने सज्जनता कीचड़ में दूध डालने के समान है। |
१३०. दुर्जनेऽपि हि सौजन्यं सुजनैर्यदि सङ्गम: ।१०/१२। | यदि सज्जनों की संगति होवे तो दुर्जन में भी सज्जनता आ जाती है। |
१३१. दुर्बला हि बलिष्ठेन बाध्यन्ते हन्त संसृतौ ।।१०/३७ ।। | खेद है ! संसार में बलवान जीव दुर्बल के लिए बाधायें उत्पन्न करता है। |
१३२. दुर्लभो हि वरो लोके योग्य भाग्यसमन्वितः ।।४/४४॥ | लोक में भाग्यशाली एवं योग्य वर मिलने अत्यंत दुर्लभ है। |
१३३. दैवतेनापि पूज्यन्ते धार्मिका: किं पुन: परैः ।।५/४१ ।। | धार्मिक पुरुष देवों के द्वारा भी पूज्य होते हैं; तो दूसरों की बात ही क्या ? |
१३४. दोषं नार्थी हि पश्यति ।।१/५२।। | कार्य की सफलता का इच्छुक मनुष्य दोष को नहीं देखता। |
‘ध’
सूक्ति |
अर्थ |
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१३५. धनाशा कस्य न भवेत् ।।३/२।। | धन की इच्छा किसके नहीं होती ? |
१३६. धर्मो हि भुवि कामसू ।।११/७८ ।। | इस संसार में धर्म सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है। |
१३७. धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिक एव नापरे ।।२/१७ ।। | धर्मात्माओं के सहायक धर्मात्मा ही होते हैं; अन्य नहीं । |
१३८. ध्यातेऽपि हि पुरा दुःखे भृशं दु:खायते जनः ।।८/१३ ।। | पहले भोगे हुए दु:खों के स्मरण मात्र से मनुष्य अत्यधिक दु:खी होता है। |
१३९. ध्यातो गरुड़बोधेन हि हन्ति विषं बक: ।।६/२३ ।। | गरुड़ मानकर बगुले का ध्यान करने से विष दूर नहीं होता। |
‘न’
सूक्ति |
अर्थ |
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१४०. नटायन्ते हि भूभुजः ।।१/१५।। | राजा नट के समान आचरण करते हैं। |
१४१. न विद्यते हि विद्यायामगम्यं रम्यवस्तुषु ।७/५५ | विद्या के होने पर कोई भी सुन्दर वस्तु अलभ्य नहीं है। |
१४२. न विभेति कुतो लोक आजीवनपरिक्षये ।।२/६५ ।। | आजीविका के साधन छिन जाने पर मनुष्य अत्यन्त भयभीत हो जाता है। |
१४३. न हि कार्यपराचीनैर्मृग्यते भुवि कारणम् ।।६/१५।। | संसार में कार्य से विमुख पुरुष कारण की खोज नहीं करते। |
१४४, न हि खादापतन्ती चेद्रत्नवृष्टिनिवार्यते ।११/१७। | यदि आकाश से रत्न वृष्टि हो रही हो तो उसे रोका नहीं जाता। |
१४५. न हि तण्डुलपाकः स्यात्पावकादिपरिक्षये ।।११/६६ ।। | अग्नि आदिक न होने पर चावलों का पकना नहीं होता। |
१४६. न हि तिष्ठति राजसम् ।।१/५५।। | क्षत्रिय तेज शांत नहीं रह पाता। |
१४७. न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रिया।११/३ । | नदी के जल से समुद्र में विकार नहीं होता। |
१४८. न हि नीचमनोवृत्तिरेकरूपास्थिता भवेत् ।।४/४५ ।। | नीच मनुष्यों की मनोवृत्ति सदैव एक-सी स्थिर नहीं रहती। |
१४९. न हि प्रसादखेदाभ्यां विक्रियन्ते विवेकिनः ।।८/२५ ।। | विवेकी पुरुष हर्ष-विषाद से विकार को प्राप्त नहीं होते। |
१५०. न हि प्राणवियोगेऽपि प्राज्ञैर्लप्राज्ञैर्लड्ंघ्यं गुरोर्वच: ।।५/१३।। | बुद्धिमान मरण उपस्थित होने पर भी गुरु के वचनों का उल्लंघन नहीं करते। |