सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

सूक्ति
अर्थ
१७६. निर्वाणपथपान्थानां पाथेयं तद्धि किं परैः ।।४/८।। अधिक क्या कहें ! णमोकार मन्त्र मुक्तिपथ के पथिकों के लिए कलेवा है।
१७७. निर्विवादविधिननिर्विवादविधिर्नो चेन्नैपुण्यं नाम किं भवेत्।।४/२२ ।। यदि निर्विवाद युक्ति न हो तो निपुणता किस बात की ?
१७८. निर्व्याजं सानुकम्पा हि सर्वाः सर्वेषु जन्तुषु ।।६/८ ।। सर्वहितैषी सज्जन पुरुष समस्त प्राणियों पर निष्कपट दया करते हैं।
१७९. निश्चलादविसंवादाद्वस्तुनो हि विनिश्चयः ।।१/९४ ।। निश्चल और विवादरहित वचनों से वस्तु का निश्चय होता है।
१८०. निष्प्रत्यूहा हि सामग्री नियतं कार्यकारिणी ।।२/५८ ।। बाधारहित कारण-सामग्री नियम से कार्य को पूरा करनेवाली होती है।
१८१. निसर्गादिङ्गितज्ञानमङ्गनासु हि जायते ।।७/४४ ।। शरीर की चेष्टा से मन के विचारों को जानने का इंगित/संकेत ज्ञान स्त्रियों में स्वभाव से ही होता है।
१८२. नि:स्पृहत्वं तु सौख्यम् ।।११/६७ ।। इच्छा का अभाव ही सुख है।
१८३. निर्हेतुकान्यरक्षा हि सतां नैसर्गिको गुण: ।।५/४३।। बिना कारण ही दूसरों की रक्षा करना सज्जन पुरुषों का स्वभाविक गुण है।
१८४. नीचत्वं नाम किं नु स्यादस्ति चेद् गुणगारिता।।५/५।। यदि दूसरों के गुणों में प्रीति हो तो नीचता कैसे टिके ?
१८५. नैसर्गिकं हि नारीणां चेत: सम्मोहि चेष्टितम् ।।८/४ ।। स्त्रियों की चेष्टाएँ स्वभाव से ही चित्त को मोहित करनेवाली होती हैं।
१८६. नो चेद्विवेकनीरौघो रागाग्रि: केन शाम्यति ।।४/३७ ।। यदि विवेकरूपी जल-समूह न हो तो राग रूपी अग्नि कैसे शान्त होगी ?

‘प’

सूक्ति
अर्थ
१८७. पतन्तः स्वयमन्येषां न हि हस्तावलम्बनम् ।।६/२५ ।। स्वयं गिरते हुए लोग दूसरों का सहारा नहीं हो सकते ।
१८८. प्रगन पय: पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ।।५/६।। सर्प को पिलाया गया दूध विष की ही वृद्धि करता है।
१८९. पम्फुलीति हि निर्वेगो भव्यानां कालपाकतः ।।२/९ ।। काल पक जाने पर भव्य जीवों को विशेषरूप से वैराग्य प्रकट होता है।
१९०. पयो ह्यास्यगतं शक्यं पाननिष्ठीवनद्वये ।१/५४॥ मुँह में रखे हुए दूध अथवा जल की परिणति थूकने या पीने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकती।
१९१. परस्परातिशायी हि मोहः पञ्चन्द्रियोद्भवः ।।९/२३ । पाँचो इन्द्रियों के निमित्त से होनेवाला मोह एक-दूसरे की अपेक्षा अधिक होता है।
१९२. पराभवो न हि सोढव्योऽशक्तैः शक्तैस्तु किं पुनः।।८/२९।। अपने तिरस्कार को असमर्थ जन भी सहन नहीं कर पाते तो फिर समर्थ पुरुष कैसे सहन करेंगे ?
१९३. पाके हि पुण्यपापानां भवेद्बाह्यं च कारणम् ।।११/१४।। पाप और पुण्य के उदय आने में कोई न कोई बाह्य निमित्त कारण अवश्य मिल जाता है।
१९४. पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुणदोषविनिश्चय: ।।४/२० ।। पदार्थों के गुण और दोषों का निर्णय करना पाण्डित्य है।
१९५. पाणौ कृतेन दीपेन किं कूपे पततां फलम् ।२/४५ । हाथ में दीपक होने पर भी कुएँ में गिरनेवाले व्यक्ति को दीपक से क्या लाभ?
१९६. पात्रतां नीतमात्मानं स्वयं यान्ति हि संपदः ।।५/४८।। सम्पत्ति स्वयं ही योग्य पुरुषों के पास जाती है।
१९७. पापात् बिभेति पण्डितः ।।१/८७।। विद्वानों को पाप से डरना चाहिए।
१९८. पावका न हि पात: सादातपक्लेशशान्तये ।।१/३० ।। गर्मी से होनेवाले दु:ख को दूर करने के लिए अग्नि में कूदना उपाय नहीं है।
१९९. पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ।।६/४ । सत्पुरुषों के आश्रय से स्थान भी पवित्र हो जाते हैं।
२००. पित्तज्वरवत: क्षीरं तिक्तमेव हि भासते ।।१/५१।। पित्तज्वरवाले मनुष्य को मीठा दूध कड़वा ही लगता है।

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