सूक्ति |
अर्थ |
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५१. आराधनैकसम्पाद्या विद्या न ह्यन्यसाधना ।।७/७४ ।। | विद्या, गुरु की आराधना करने से ही प्राप्त होती है; अन्य साधनों से नहीं । |
५२. आलोच्यात्मरिकृत्यानां प्राबल्यं हि मतो विधि:।।१०/१८।। | शत्रु को अपने से अधिक बलवान जानकर ही युद्ध की तैयारी करना चाहिए। |
५३. आवश्यकेऽपि बन्धूनां प्रातिकूल्यं हि शल्यकृत् ।।८/५१।। | आवश्यक कार्य होने पर इष्टजनों की प्रतिकूलता काटें के समान चुभती है। |
५४. आशाब्धि: केन पूर्यते।।२/२० ॥ | आशारूपी समुद्र को कौन भर सकता है? |
५५. आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् ।।६/५० ।। | अपने आप प्राप्त होती हुई लक्ष्मी को कौन लात मारता है ? |
५६. आ समाहितनिष्पत्तेराराध्या: खलु वैरिण: ।।७/२२ ।। | अपने अभीष्ट की सिद्धि तक शत्रु भी आराध्य होते हैं। |
५७. आस्थायां हि विना यत्नमस्ति वाक्कायचेष्टितम् ।।८/९।। | प्रेम होने पर प्रयत्न किये बिना ही वचन और शरीर की प्रवृत्ति होती है। |
५८. आस्था सतां यश:काये न हास्थायिशरीरके।।१/३७ ।। | सज्जन पुरुषों की श्रद्धा यशरूपी शरीर में होती है, नश्वर शरीर में नहीं। |
‘इ’
सूक्ति |
अर्थ |
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५९. इष्टस्थाने सती वृष्टिस्तुष्टये हि विशेषतः ।।४/४१ ।। | इष्ट स्थान में होनेवाली वर्षा विशेष आनन्द देनेवाली होती है। |
‘ई’
सूक्ति |
अर्थ |
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६०. ईर्ष्या ही स्त्रीसमुद्भवा ।।४/२६।। | ईर्ष्या स्त्रियों से उत्पन्न हुई है। |
‘उ’
सूक्ति |
अर्थ |
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६१. उक्तिचातुर्यतो दाढच्र्यमुक्तार्थे हि विशेषतः ।।९/२७ ।। | कथन की चतुराई से कहे हुए विषय में विशेष दृढ़ता आती है। |
६२. उत्पथस्थे प्रबुद्धानामनुकम्पा हि युज्यते ।।७/६१ ।। | मिथ्यामार्ग पर चलनेवाले मनुष्यों पर बुद्धिमानों की कृपा उचित ही है। |
६३. उदात्तानां हि लोकोऽयमखिलो हि कुटुम्बकम् ।।२/७० ।। | उदार चरित्रवालों को सम्पूर्ण विश्व कुटुम्ब के समान है। |
६४. उदाराः खलु मन्यन्ते तृणायेदं जगत्रयम् ।।७/८२ ।। | उदारचित्त महापुरुष तीन लोक की संपत्ति को त्रण के समान तुच्छ मानते हैं। |
६५. उपायपृष्ठरूढा हि कार्यनिष्ठानिरड्कुंशाः ।।१०/२३ । | उत्तम उपाय में तत्पर पुरुष कार्य को नियम से सिद्ध करते हैं। |
‘ए’
सूक्ति |
अर्थ |
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६६. एककण्ठेषु जाता हि बन्धुता ह्यवतिष्ठते ।।८/३५ ।। | एकसमान व्यवहार करनेवालों में ही मित्रता स्थिर रहती है। |
६७. एककोटिगतस्नेहो जडानां खलु चेष्टितम् ।।८/३१ ।। | इकतरफा प्रीति करना मूर्खो की चेष्टा है। |
६८. एकार्थस्पृहया स्पर्धा न वर्धेतात्र कस्य वा ।।४/१६ ।। | एक ही पदार्थ की इच्छा होने से किसके स्पर्धा नहीं बढ़ती ? |
६९. एतादृशेन लिङ्गेन परलोको हि साध्यते ।।४/३९ ।। | प्रशंसात्मक बातों से अन्य मनुष्य वश में किये जाते हैं। |
७०. एधोगवेषिभिर्भाग्ये रत्नं चापि हि लभ्यते ।।८/३० ।। | भाग्योदय होने पर लकड़हारे को भी रत्न की प्राप्ति हो जाती है। |
७१. एधोन्वेषिजनैर्दृष्ट: किं वान प्रीतये मणिः ।।१/९६ ।। | ईधन तलाशनेवाले मनुष्यों द्वारा देखी गई माणिक्य प्रसन्नता के लिए नहीं होती ? |
‘ऐ’
सूक्ति |
अर्थ |
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७२. ऐहिकातिशयप्रीतिरतिमात्रा हि देहिनाम् ।।९/३ ।। | मनुष्य को सांसारिक उत्कर्ष में ही अधिक प्रेम होता है। |
‘क’
सूक्ति |
अर्थ |
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७३. कः कदा कीदृशो न स्याद्भाग्ये सति पचेलिमे ।।७/२९।। | भाग्य को उदय होने पर कौन, कब और कैसा मकान बनेगा - यह कह नहीं सकते। |
७४. कणिशोद्गमवैधुर्ये केदारादिगुणेन किम् ।।११/७५ ।। | पौधों में अन्नोत्पत्ति की सामर्थ्य न होने पर खेत आदि सामग्री अच्छी होने से भी क्या प्रयोजन ? |
७५. करुणामात्रपात्रं हि बाला वृद्धाश्च देहिनाम् ।९/८। | बालक तथा वृद्ध मात्र दया के पात्र होते हैं। |