सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

सूक्ति
अर्थ
१०१. गुरुस्नेहो हि कामसूः ।।२/२ ।। गुरु का प्रेम इच्छाओं को पूरा करनेवाला होता है।

‘च’

सूक्ति
अर्थ
१०२. चतुराणां स्वकार्योक्तिः स्वन्मुखान्न हि वर्तते ।।८/२३ ।। चतुर पुरुष अपने अन्तरंग का अभिप्राय दूसरे के बहाने से ही प्रकट करते हैं।
१०३. चित्रं जैनी तपस्या हि स्वैराचारविरोधिनी ।।२/१५ ।। जैनी तपस्या स्वेच्छाचार की विरोधी है।
१०४. चिरकाड्ंक्षितलाभे हि तृप्ति: स्यादतिशायिनी ।।११/१ ।। चिरकांक्षित वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर अत्यधिक प्रसन्नता होती है।
१०५. चिरकाङ्गितसम्प्राप्त्या प्रसीदन्ति हि देहिनः ।।८/६८ ।। चिरकाल से चाही हुई वस्तु के मिल जाने पर मनुष्य आनन्दित होते ही हैं।
१०६. चिरस्थाय्यन्धकारोऽपि प्रकाशे हि विनश्यति ।।११/७३।। चिरकाल से व्याप्त अन्धकार भी प्रकाश के होने पर नष्ट हो जाता है।

‘ज’

सूक्ति
अर्थ
१०७. जठरे सारमेयस्य सर्पिषो न हि सञ्जनम् ।।७/६० ।। कुत्ते के पेट में घी नहीं ठहरता।
१०८. जन्मान्तरानुबन्धौ हि रागद्वेषौन नश्यतः ।।९/३२ ।। जन्म-जन्मान्तर से जीव के साथ सम्बन्ध रखनेवाले राग-द्वेष के परिणाम सहज नष्ट नहीं होते।
१०९. जलबुदबुद्नित्यत्वे चित्रीया न हि तत्क्षये ।।१/५९ ।। पानी के बुलबुलों के देर तक ठहरने में आश्चर्य है, उनकेनाश होने में नहीं।
११०. जीवितात्तु पराधीनाज्जीवानांमरणं वरम् ।।१/४० ।। पराधीन रहकर जीवन जीने की अपेक्षा मरण ही श्रेष्ठ है।
१११. जीवानां जननीस्नेहो न हान्यैः प्रतिहन्यते ।।८/४८ ।। जीवों का मातृ-प्रेम किन्हीं भी कारणों से नष्ट नहीं होता।

‘त’

सूक्ति
अर्थ
११२. तत्तन्मात्रकृतोत्साहैः साध्यते हि समीहितम् ।।७/६४ ।। उत्साही तथा चतुर लोग अपना इच्छित कार्य सिद्ध कर लेते हैं।
११३. तत्त्वज्ञानतिरोभावे रागादि हि निरङ्कुशम् ।।८/५३ ।। तत्त्वज्ञान का तिरोभाव होने पर राग-द्वेषादि निरंकुश हो जाते हैं।
११४. तत्वज्ञानजलं नो चेत् क्रोधाम्नि: केन शाम्यति ।।५/९ ।। यदि तत्त्वज्ञानरूपी जल न हो तो क्रोधरूपी अग्नि किससे बुझेगी ?
११५. तत्त्वज्ञानविहीनानां दुःखमेव हि शाश्वतम् ।।६/२ ।। तत्त्वज्ञान से रहित जीवों का दु:ख शाश्वत होता है।
११६. तत्त्वज्ञानं हि जागर्ति विदुषामार्तिसम्भवे ।।१/५७ ।। पीड़ा होने पर भी विद्वानों का तत्त्वज्ञान स्थिर ही रहता है।
११७. तत्त्वज्ञानं हि जीवानां लोकद्वयसुखावहम् ।।३/१८ ।। तत्त्वज्ञान इहलोक और परलोक में जीवों के लिए सुख देनेवाला है।
११८. तन्तवो न हि लूताया: कूपपातनिरोधिनः ।।१०/४८ ।। मकड़ी के जाल के तन्तु कुएँ में गिरते हुए प्राणी को नहीं बचा सकते।
११९. तप्यध्वं तत्तपो यूयं किं मुधा तुषखण्डनैः ।।६/२४ ।। तुम सब सर्वज्ञ प्रणीत तप तपो, व्यर्थ में भूसा कूटने से क्या लाभ ?
१२०. तमो ह्यभेद्यं खद्योतैर्भानुना तु विभिद्यते ।।२/७१ ।। जो अन्धकार जुगनुओं के लिए अभेद्य है, उसे सूर्य द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।
१२१. तीरस्था: खलु जीवन्ति न हि रागाब्धिगाहिनः ।।८/१।। रागरूपी समुद्र के किनारे रहनेवाले लोग जीवित रहते हैं, उसमें गोते लगानेवाले नहीं।

‘द’

सूक्ति
अर्थ
१२२. दग्धभूम्युप्तबीजस्य न हाङ्कुरसमर्थता ।।१/६२ ।। जली हुई भूमि में बोये गये बीज में अंकुर पैदा करने की सामर्थ्य नहीं होती।
१२३. दानपूजातप:शीलशालिनां किं न सिध्यति ।।१०/१९ ।। दान, पूजा, तप और शील से सम्पन्न मनुष्य को क्या सिद्ध नहीं होता?
१२४. दीपनाशे तमोराशि: किमाह्वानमपेक्षते ।।१/५८ ।। दीपक बुझ जाने पर अन्धकार का समूह क्या निमन्त्रणकी अपेक्षा रखता है?
१२५. दुःखचिंता हि तत्क्षणे ।।१/३२ ।। दुःख की चिन्ता दु:ख के समय ही रहती है।

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