सूक्ति |
अर्थ |
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२०१. पीडायां तु भृशं जीवा अपेक्षन्ते हि रक्षकान् ।।८/२७ ।। | कष्ट/पीड़ा होने पर ही लोग रक्षकों की अपेक्षा करते हैं। |
२०२. पीडा ह्यभिनवा नृणां प्रायो वैराग्यकारणम् ।।१/७१ ।। | नई पीड़ा प्राय: मनुष्यों के वैराग्य का कारण बनती है। |
२०३. पुत्रमात्रं मुदे पित्रोविद्यापात्रं तु किं पुनः ।।७/७८ । | माता-पिता को पुत्र ही हर्ष का कारण होता है, फिर विद्वान पुत्र का तो कहना ही क्या? |
२०४. पुण्ये किंवा दुरासदम् ।१/८९॥ | पुण्योदय होने पर क्या दुर्लभ है ? |
२०५. पूज्यत्वं नाम किम् नु स्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ।।५/४५ ।। | पुज्य पुरूषों की पूजा का उल्लंघन होने पर पूज्यपना कैसे रह सकता है? |
२०६. प्रकृत्या स्यादकृत्ये धीर्दु:शिक्षायां तु किं पुनः ।३/५०। | बुद्धि स्वभाव से ही खोटे कार्यों में प्रवृत्त होती है; फिर खोटी शिक्षा मिलने पर तो उसका कहना ही क्या? |
२०७. प्रजानां जन्मवर्जं हि सर्वत्र पितरौ नृपाः ।।११/४ ।। | जन्म देने के अलावा सर्वत्र राजा ही प्रजा के माता-पिता हैं। |
२०८. प्रतारणविधौ स्त्रीणां बहुद्वारा हि दुर्मति: ।।७/४५ ।। | स्त्रियों की खोटी बुद्धि दूसरों को ठगने में अनेक प्रकार से चलती है। |
२०९. प्रतिकर्तुं कथं नेच्छेदुपकर्तुः सचेतनः ।।४/१४ ।। | सचेतन प्राणी उपकार करनेवाले के प्रति प्रत्युपकार करने की भावना क्यों नहीं रखेगा? |
२१०. प्रतिहन्तुं न हि प्राज्ञै: प्रारब्धं पार्यते परैः ।।६/३ ।। | बुद्धिमानों द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य दूसरों द्वारा रोका जाना सम्भव नहीं है। |
२११. प्रत्यक्षे च परोक्षे च सन्तो हि समवृत्तिका: ।।७/३२ ।। | सज्जन पुरुष सामने और पीछे समान व्यवहार करते हैं । |
२१२. प्रदीपैर्दीपिते देशे न ह्यस्ति तमसो गतिः ।।१/३१ ।। | दीपकों से प्रकाशित स्थान पर अन्धकार का आगमन ही नहीं होता। |
२१३. प्रभूणां प्राभवं नाम प्रणतेष्वेकरूपता।।६/३९ ।। | विनयशील जनों के प्रति समान व्यवहार करना महापुरुषों की महानता है। |
२१४. प्रयत्नेन हि लब्धं स्यात्प्राय: स्नेहस्य कारणम् ।।५/१।। | परिश्रम से प्राप्त वस्तु प्राय: स्नेह का कारण होती है। |
२१५. प्राणप्रदायिनामन्या न ह्यस्ति प्रत्युपक्रिया।५/४४॥ | प्राण रक्षा करनेवालों का दूसरा कोई प्रत्युपकार नहीं होता। |
२१६. प्राणप्रयाणवेलायां न हि लोके प्रतिक्रिया ।।२/५७ ।। | संसार में प्राण निकलने के समय में मृत्यु रोकने का कोई उपाय नहीं होता। |
२१७. प्राणवत्प्रीतये पुत्रा मृतोत्पन्नास्तु किं पुन: ।।१/९९ ।। | पुत्र तो प्राणों के समान प्रिय होते हैं, फिर जो मरकर पुनः जीवित हो जाए उसका तो कहना ही क्या ? |
२१८. प्राणाः पाणिगृहीतीनां प्राणनाथो हि नापरम् ।७/३ । | विवाहिता स्त्रियों के प्रति उनके पति ही होते हैं; और कोई नहीं। |
२१९. प्राणेष्वपि प्रमाणं यत्तद्धि मित्रमितीष्यते ।३/३७। | जो प्राणों से भी अधिक प्रामाणिक हो, वही सच्चा मित्र है। |
२२०. प्रीतये हि सतां लोके स्वोदयाच्च परोदयः ।।६३० ।। | सज्जन को अपनी उन्नति से भी दूसरों की उन्नति अधिक आनंददायी होती है। |
२२१. प्रेक्षावन्तो वितन्वन्ति न ह्युपेक्षामपेक्षिते।४/४२। | बुद्धिमान पुरुष अपेक्षित वस्तु की उपेक्षा नहीं करते। |
‘फ’
सूक्ति |
अर्थ |
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२२२. फलमेव हि यच्छन्ति पनसा इन सज्जनाः ।।१०/४२ ।। | सज्जन मनुष्य कटहल के वृक्ष के समान फल को ही देते हैं। |
‘ब’
सूक्ति |
अर्थ |
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२२३. बकायन्ते हि जिष्णवः ।।१०/१६ ।। | विजय पाने के इच्छुक लोग बगुले के समान आचरण करते हैं। |
२२४. बन्धोर्बन्धौ च बन्धो हि बन्धुता चेदवञ्चिता ।।८/२६ ।। | यदि निष्कपट बन्धुत्व का भाव हो तो सम्बन्धी के सम्बन्धियों में भी प्रेम हो जाता है। |
२२५. बहुद्वारा हि जीवानां पराराधनदीनता ।९/४। | प्राणियों दूसरों की सेवा से प्रकट होनेवाली दीनता बहुत प्रकार की होती है। |