सूक्ति संग्रह l Sukti Sangrah

सूक्ति
अर्थ
२२६, बहुयत्नोपलब्धस्य प्रच्यवो हि दुरुत्सहः ।।७/४।। बहुत प्रयत्न पूर्वक प्राप्त हुई वस्तु का वियोग असह्य होता है
२२७. बहुयत्नोपलब्धे हि प्रेमबन्धो विशिष्यते ।।१०/१।। दुर्लभता से प्राप्त हुई वस्तु के प्रति विशेष प्रेम हुआ करता है।
२२८. बुद्धि:कर्मानुसारिणी।१/१९। बुद्धि कर्म के अनुसार चलती है।

‘भ’

सूक्ति
अर्थ
२२९.भवितव्यानुकूलं हि सकलं कर्म देहिनाम् ।९/२०। प्राणियों के समस्त कार्य होनहार के अनुसार होते हैं।
२३०. भव्यो वा स्यान्न वा श्रोता पारायँ हि सतां मन: ।६/१०। श्रोता भव्य हो अथवा न हो, सज्जनों की भावना सबका उपकार करने की ही होती है।
२३१. भस्मने दहतो रत्नं मूढ: क: स्यात्परो जन: ।।११/७६ राख के लिए रत्न को जलानेवाले व्यक्ति से बढ़कर मूर्ख दसरा कौन है ?
२३२. भस्मने रत्नहारोऽयं पण्डितैर्न हि दहाते ।।११/१८।। पण्डित लोग राख के लिए रत्नहार को नहीं जलाते ।
२३३. भागधेयविधेया हि प्राणिनां तु प्रवृत्तयः ।।७/७ ।। प्राणियों की प्रवृत्तियाँ भवितव्यानुसार ही होती हैं।
२३४. भाग्ये जाग्रति का व्यथा ॥१/१०९ भाग्योदय होने पर कौन-सा दु:ख रहता है ?
२३५.भानुः किं न तमोहर: १०/२६। क्या सूर्य अंधकार को नष्ट नहीं कर पाता?
२३६. भानुर्लोकं तपन्कुर्याद्विकासश्रियमम्बुजे ।।५/२५।। संसार को संतप्त करनेवाला सूर्य कमल की कलियों को खिलाता है।
२३७. भाव्यधीनं हि मानसम् ।।५/२९ ।। मन भवितव्य अनुसार होता है।
२३८. भ्रातुर्विलोकनं प्रीत्यै विप्रयुक्तस्य किं पुनः ।।८/१० ।। भाई को देखना ही प्रसन्नता का कारण है, फिर बिछुड़े हुए भाई से मिलने पर तो कहना ही क्या ?
२३९. भेजे शुभनिमित्तेन सनिमित्ता हि भाविन: ।1५/४२॥ भविष्य में होनेवाले उत्तम कार्य शुभ निमित्तपूर्वक होते हैं।
२४०. भेतव्यं खलु भेतव्यं प्राज्ञैरज्ञोचितात्परम् ।।७/४३।। अज्ञानियों के उचित कार्यों से ज्ञानी मनुष्यों को भयभीत रहना चाहिए।
२४१. भाव्यवश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते ।१०/४९। भविष्य में जो कुछ होनेवाला है, वह होकर ही रहता है; किसी से भी टाला नहीं जा सकता ।

‘म’

सूक्ति
अर्थ
२४२. मत्सराणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्यचिन्तनम् ।।१०/३५ ।। ईर्ष्यालु मनुष्यों के वस्तुस्वरूप का विचार नहीं होता।
२४३. मध्ये मध्ये हि चापल्यमामोहादपि योगिनाम् ।।३/२६ ।। मोह कर्म रहने तक बीच-बीच में योगियों के परिणामों में भी चंचलता रहती है।
२४४. मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम् ।।१/४३ ।। पापियों के मन में कुछ होता है, वचन में कुछ अन्य तथा वे शरीर से कुछ दूसरा ही कार्य करते हैं।
२४५. मनीषितानुकूलं हि प्रीणयेत्प्राणिनां मन: ।९/२९। मनोरथ के अनुकूल उपाय को दिखाना ही प्राणियों के मन को प्रसन्न करता है।
२४६. मनोरथेन तृप्तानां मूललब्धौ तु किं पुनः ।।९/३० ।। मनोरथ से सन्तुष्ट होनेवाले मनुष्यों को यदि मूल पदार्थ मिल जाए तो फिर कहना ही क्या है?
२४७. ममत्वधीकृतो मोहः सविशेषो हि देहिनाम् ।।८/६४ ।। ममत्व बुद्धि से प्राणियों को मोह अधिक होता है।
२४८. मरुत्सखे मसुद्धूते मह्यां किं वा न दह्यते।।१०/३३ । हवा से प्रज्ज्वलित अग्नि के होने पर पृथ्वी पर कौन-कौनसी वस्तुएँ नहीं जल जाती।
२४९. महिषैः क्षुभितं तोयं न हि सद्यः प्रसीदति ।।१०/५७ ।। भैंसों द्वारा गन्दा किया गया जल शीघ्र स्वच्छ नहीं होता।
२५०. माणिक्यस्य हि लब्धस्य शुद्धेर्मोदो विशेषतः ।।२/२९ ।। प्राप्त हुई मणि की उत्तमता के निर्णय से विशेष हर्ष होता है।

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